पुराण विषय अनुक्रमणिका(अ-अनन्त) Purana Subject Index

Atithi

अतिथि



अरणि मन्थन का यह चित्र ज्योति अप्तोर्याम सोमयाग, गार्गेयपुरम, कर्नूल, 20 जनवरी -1 फरवरी, 2015 के श्री राजशेखर शर्मा के संग्रह से लिया गया है।



अरणि मन्थन का यह चित्र ज्योति अप्तोर्याम सोमयाग, गार्गेयपुरम, कर्नूल, 20 जनवरी -1 फरवरी, 2015 के श्री राजशेखर शर्मा के संग्रह से लिया गया है।

 

टिप्पणी - पुराण जब किसी विषय का विवेचन करने बैठते हैं तो अतिशयोक्ति  की सभी सीमाएं पार कर जाते हैं। यही स्थिति अतिथि शब्द के विषय में भी है। लेकिन पुराणों का जो वर्णन अतिशयोक्ति प्रतीत होता है, वह तब सामान्य बन जाता है जब हम वैदिक साहित्य के रहस्यों से उसकी तुलना करने बैठते हैं। वैदिक कर्मकाण्ड में अतिथि के आगमन पर अरणि-द्वय द्वारा मन्थन करके अग्नि को उत्पन्न किया जाता है और इस प्रकार उत्पन्न हुई अग्नि को पहले से प्रज्वलित अग्नि में डाल दिया जाता है। कहा गया है कि जो अग्नि मन्थन द्वारा उत्पन्न की गई है, वह अतिथि का रूप है। जो अग्नि पहले से विद्यमान है, वह आत्मा का रूप है। अग्नि शब्द क्या है, इसकी पुनरावृत्ति करना उचित होगा। अग्नि सारी चेतना का सार रूप है। सारे तत्त्वों की चेतनाओं की अव्यवस्था को, एण्ट्रांपी को कम करते – करते जो रूप प्राप्त हुआ है, वह अग्नि है जिसे आत्मा, अंगुष्ठ पुरुष कह सकते हैं। अब कहा जा रहा है कि इस अग्नि से भी अधिक सार रूप एक अग्नि का जनन किया जा सकता है। इसका उपाय अरणि – मन्थन कहा गया है। अरणि – द्वय कौन सी होंगी, इसके विभिन्न स्तरों पर विभिन्न उत्तर हो सकते हैं। एक उत्तर यह है कि आचार्य एक अरणि है, अन्तेवासी या शिष्य दूसरी अरणि। उपनिषदों के अनुसार अग्नि मन्थन से तात्पर्य यह है कि विभिन्न कोशों के पद्मों की ज्योतियां विकसित हो जाएं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो आत्मा या चेतना अभी विद्यमान है, उससे ऊपर एक चेतना की स्थापना विभिन्न प्रयासों द्वारा की जा सकती है। आचार्य का स्थान समाज भी ले सकता है। इस चेतना को अतिथि नाम दिया गया है। यह स्थिर नहीं है। जब यह आती है तो कहा गया है कि यह भूत – भविष्य सब कुछ बता देती है। यह चेतना वर्तमान में जीवन व्यापन करती है। कथा आती है कि जब यज्ञ में आए हुए अतिथि ने ऋत्विजों का भूत – भविष्य सब कुछ बता दिया तो ऋत्विजों ने अतिथि से पूछा कि तुम्हें यह शक्ति कहां से प्राप्त हुई है। अतिथि ने उत्तर दिया कि उसने 6 गुरु बनाए हैं और उनसे शिक्षा ग्रहण की है। पहला गुरु तो पिंगला है। एक बार एक राजा ने अतिथि को अन्तःपुर का रक्षक बना दिया। अतिथि ने देखा कि राजा की सभी रानियां रात्रि में इस आशा में जी रही हैं कि आज रात राजा अपनी शय्या पर मुझे बुलाएगा, मुझे बुलाएगा। पिंगला भी उनमें से एक है जो सबसे अधिक आतुर है। उसे रात्रि में नींद नहीं आती। लेकिन एक दिन पिंगला ने सारी आशा त्याग दी और वह सुख की नींद सोई। इस कथा को उल्टा करके सोचने की आवश्यकता है। जब अतिथि रूपी अग्नि जाग्रत होगी तो पिंगला रूपी नाडियां सब आशा त्याग कर सुख की नींद सो जाएंगी। पिंगला की प्रसिद्धि वेश्या रूप में है। यह बहिर्मुखी वृत्ति हो सकती है। इसका अर्थ हुआ कि अतिथि अग्नि के विकसित होने पर बहिर्मुखी वृत्ति समाप्त हो जाएगी। अतिथि का दूसरा गुरु कुरर पक्षी है जिसे एक मांस का टुकडा मिल गया तो सारे पक्षी उसे प्राप्त करने के लिए झपट रहे हैं। जैसे ही उस पक्षी ने वह टुकडा गिरा दिया, वह मुक्त हो गया। तीसरा गुरु भ्रमर है जो सारे पुष्पों से मधु रूपी सार भाग एकत्र करता है जिसका बाद में सब सेवन करते हैं। अतिथि ने बताया कि इसी प्रकार सभी शास्त्रों का सार भाग एकत्र करना चाहिए। चौथा गुरु सर्प है जो दूसरों के बनाए गृह में ही निवास करता है, स्वयं घर नहीं बनाता। पांचवां गुरु इषुकार है जिसका लक्ष्य केवल अपने इषु बनाने पर है, उससे अपने परितः घटने वाली घटनाओं का ज्ञान नहीं है। छठां गुरु उसकी कन्या है जिसके हाथ में दो चूडियां हैं जो परस्पर संघट्टन करके बजती हैं। जब एक ही चूडी रह जाती है तो वह नहीं बजती । इसी प्रकार मनुष्य को अकेले रहना चाहिए। अतिथि अग्नि की प्राप्ति पर इन गुरुओं के साक्षात्कार से क्या तात्पर्य हो सकता है, यह अन्वेषणीय है।

     यह रोचक है कि पुराणों की उपरोक्त कथा का वैदिक मूल क्या है। कर्मकाण्ड में केवल इतना ही उल्लेख आता है कि आतिथ्येष्टि इडान्त होती है, उसमें स्विष्टकृत, अनुयाज कर्म नहीं किया जाता, इडा प्राशन के उपरान्त आतिथ्येष्टि पूर्ण हो जाती है। स्विष्टकृत् कर्म रौद्र प्राणों को, रुद्र अग्नि को शान्त करने के लिए होता है। कहा गया है कि जब अरणि मन्थन से उत्पन्न अग्नि को चयनित अग्नि में मिला दिया जाता है तो उससे रौद्र प्राण स्वयं ही शान्त हो जाते हैं। अतः यह रोचक है कि वैदिक साहित्य के एक संक्षिप्त कथन का विस्तार पुराणों ने किस प्रकार किया है।

     सार्वत्रिक रूप से निर्देश आता है राजा आदि अतिथि के आगमन पर उक्षा या बैल का आलभन करे। इस निर्देश का उल्लेख यह प्रमाणित करने के लिए किया जाता है कि वैदिक धर्म में तो हिंसा, विशेष रूप से गौवंश की हिंसा विद्यमान है। वेद में उक्षा के साथ पृश्नि विशेषण आता है ( उक्षाणं पृश्निमपचन्त -- )। उक्षा उषा का पूर्व रूप हो सकता है। जब तक किसी अतिथि रूपी ज्योति का साक्षात्कार नहीं होता, तब तक हमारी चेतना भूत – भविष्य की घटनाओं को केवल पृश्नि, चितकबरे रूप में ही देखने में समर्थ हो सकती है। अतिथि के आगमन पर यह चितकबरापन समाप्त हो जाता है, दृष्टि निर्मल हो जाती है। यह उक्षा को पचाने का, पकाने का अर्थ हो सकता है।

     वैदिक साहित्य में उल्लेख आता है कि अतिथि का रूप चाहे अग्नि का हो, चाहे सोम का, अतिथि विष्णु का रूप होता है। पुराणों में इस सम्बन्ध में विरोधी कथन मिलते हैं। एक कथन है कि अतिथि यदि विप्र हो, तभी उसका स्वागत करना चाहिए, उसका यज्ञोपवीत देखकर। दूसरी ओर कथन है कि अतिथि चाहे चाण्डाल हो अथवा विप्र, उसके रूप पर ध्यान नहीं देना चाहिए।



ज्योति अप्तोर्याम सोमयाग, गार्गेयपुरम्, कर्नूल, 20 जनवरी – 1 फरवरी 2015ई. में प्रवर्ग्य/सोम आतिथ्येष्टि का एक चित्र। यह चित्र श्री राजशेखर शर्मा के संग्रह से लिया गया है।

 

प्रथम लेखन – 13-9-2015ई.(भाद्रपद कृष्ण अमावास्या, विक्रम संवत् 2072)

Dear Vipinji,

Thanks for very good explanation for Atithi from Vedic to Puranic reference, The Soul of an individual is present in the body as Atithi, it is present in the atmosphere also to control it from the atmosphere.

The soul remains in the body with life till death, it depart with death, hence the soul is Atithi guest in the body.

With Arani Manthan means with fertilization it enters in the body in the womb of mother, rest is related with creation sacrifice.

With regards

 

2015-09-13 10:25 GMT+05:30 Chandra Prakash Trivedi <atcptrivedi@gmail.com>:

  

अतिथि

टिप्पणी : साधना काल में शक्तियों का अवतरण अतिथि रूप में ही होता है। - फतहसिंह

          ऋग्वेद में जिन ऋचाओं में अतिथि शब्द आया है, वह अधिकांश रूप में अग्नि अतिथि के लिए है। दुरोण? में स्थित अतिथि को श्रेष्ठ माना जाता है। अथर्ववेद ९.६ से ९.११ सूक्तों में अतिथि की महिमा का वर्णन किया गया है और यही सूक्त पुराणों में अतिथि महिमा वर्णन के आधार प्रतीत होते हैं। ऋग्वेद में कुछ राजाओं को अतिथिग्व, अतिथियों का सत्कार करने वाला, संज्ञा दी गई है। ब्राह्मण ग्रन्थों जैसे मैत्रायणी संहिता ३.७.९ में आतिथ्य को यज्ञ का शीर्ष कहा गया है। यज्ञ के शीर्ष को कर्मकाण्ड में उपसद रूपी ग्रीवा पर स्थापित करते हैं। उपसद अहोरात्र, पक्ष, मासों आदि का प्रतीक है। शब्दकल्पद्रुम में उद्धृत व्याकरण के अनुसार अतिथि वह है जिसे चन्द्रमा की कला प्रभावित न करे।

प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.

 

 

 





३.४.१.[१]

शिरो वै यज्ञस्यातिथ्यं बाहू प्रायणीयोदयनीयौ । अभितो वै शिरो बाहू भवतस्तस्मादभित आतिथ्यमेते हविषी भवतः प्रायणीयश्चोदयनीयश्च

 

३.४.१.[२]

अथ यस्मादातिथ्यं नाम । अतिथिर्वा एष एतस्यागच्छति यत्सोमः क्रीतस्तस्मा एतद्यथा राज्ञे वा ब्राह्मणाय वा महोक्षं वा महाजं वा पचेत्तदह मानुषं हविर्देवानामेवमस्मा एतदातिथ्यं करोति

 

३.४.१.[३]

तदाहुः । पूर्वोऽतीत्य गृह्णीयादिति यत्र वा अर्हन्तमागतं नापचायन्ति क्रुध्यति वै स तत्र तथा हापचितो भवति

 

३.४.१.[४]

तद्वा अन्यतर एव विमुक्तः स्यात् । अन्यतरोऽविमुक्तोऽथ गृह्णीयात्स यदन्यतरो विमुक्तस्तेनागतो यद्वन्यतरोऽविमुक्तस्तेनापचितः

 

३.४.१.[५]

तदु तथा न कुर्यात् विमुच्यैव प्रपाद्य गृह्णीयाद्यथा वै देवानां चरणं तद्वा अनु मनुष्याणां तस्मान्मानुषे यावन्न विमुञ्चते नैवास्मै तावदुदकं हरन्ति नापचितिं कुर्वन्त्यनागतो हि स तावद्भवत्यथ यदैव विमुञ्चतेऽथास्मा उदकं हरन्त्यथापचितिं कुर्वन्ति तर्हि हि स आगतो भवति तस्माद्विमुच्यैव प्रपाद्य गृह्णीयात्

 

१३.५.१.[१२]

अथात आग्निमारुतम्  मूर्धानं दिवो अरतिं पृथिव्या इति वैश्वानरीयं शस्त्वैकाहिके

निविदं दधात्या रुद्रास इन्द्रवन्तः सजोषस इति मारुतं शस्त्वैकाहिके निविदं दधातीममूषु वो अतिथिमुषर्बुधमिति नवर्चं जातवेदसीयं शस्त्वैकाहिके निविदं दधाति तद्यदैकाहिकानि निविद्धानानि भवन्ति प्रतिष्ठा वै ज्योतिष्तोमः प्रतिष्ठाया अप्रच्युत्यै

३.२.३.[२०]

शिरो वै यज्ञस्यातिथ्यम् । बाहू प्रायणीयोदयनीयावभितो वै शिरो बाहू भवतस्तस्मादभित आतिथ्यमेते हविषी भवतः प्रायणीयश्चोदयनीयश्च

 

प्रेष्ठं वो अतिथिं स्तुषे मित्रम् इव प्रियम्।

      अग्ने रथं न वेद्यम्॥

इत्य् एवैनं प्रियतमम् अतिथिम् अकुरुत। अप्रीत इव ह वा एष एतर्हि भवति यज्ञम् ऊहिवान्। तम् एतद् अत्र प्रीणन्ति। स प्रीतो यद् अत्र यज्ञस्य परिशिष्टम् भवति तद् वहति। - जै.ब्रा.  3.332

 

युक्तोऽन्योऽनड्वान् भवति, विमुक्तोऽन्यो, ऽथातिथ्यं निर्वपति यज्ञस्य संतत्यै, पत्न्या हस्तान्निर्वपति, पत्नी वै पारेणह्यस्येशे, पत्न्यैव रातमनुमतं क्रियते, यद्वै पत्नी यज्ञे करोति तन्मिथुनं, मिथुनत्वाय वै पत्न्या हस्तान्निर्वपत्येष वै पत्न्या यज्ञस्यान्वारम्भो यद्यज्ञे करोत्य, नवारम्भाय वै पत्न्या हस्तान्निर्वपत्य, ग्नेस्तनूरसि, विष्णवे त्वेति, गायत्रीं तेन छन्दसा गृह्णाति, सोमस्य तनूरसि, विष्णवे त्वेति, त्रिष्टुभं तेना, ऽनुष्टुभं तेन, श्येनाय त्वा सोमभृते,  विष्णवे त्वेति, त्रिष्टुभं तेना, ऽतिथेरातिथ्यमसि, विष्णवे त्वेति, जगतीं तेना, ऽग्नये त्वा रायस्पोषदे, विष्णवे त्वेत्य, नुष्टुभं तेन, श्येनाय त्वा सोमभृते, विष्णवे त्वेति, गायत्री वै श्येनः सोमभृत्, ता वा एतत् पुनरालभतेऽयातयाम्नीं पाङ्क्तत्वाय, पाङ्क्तो यज्ञो, यावानेव यज्ञस्तमालब्धै, तद्वै छन्दास्यग्रहीत्, तैश्छन्दोभिर्गृहीतैर्यज्ञं गृह्णाति, यावन्तो वा अतिथिमन्वायन्त्यपि तेषां भागश्छन्दासि वा एतममुतोऽन्वायन्ति, तेभ्य एष भागः क्रीयते, वरुणो वै यज्ञः क्रीतो, विष्णुः प्रततः, प्रततो वा एतर्हि यज्ञ, स्तस्माद्वैष्णवो नवकपालो भवति, त्रिवृत वा एतद्यज्ञमुखे व्यायातयन्ति त्रिवृता प्रयन्ति, ते वै त्रयस्त्रिकपाला, स्त्रिकपालो वैष्णवो देवतया, विष्णु वै देवा अनयन्वामनं कृत्वा, यावदयं त्रिर्विक्रमते तदस्माकमिति, स वा इदमेवाग्रे व्यक्रमताऽथेदमथाद,स्तस्मात् त्रिकपालो वैष्णवः, सोमस्य वा एतदातिथ्य यदातिथ्य, मथवा अतदग्नेरातिथ्य यदग्ना अग्निं मन्थन्त्य, थो यज्ञाय वा एतत् क्रीताय देवतां जनयन्त्य, थो तेज एवास्मै जनयन्त्य, थो उपसत्सु वावास्मा एतद्वीरं जनयन्त्या, ऽऽहास्य वीरो जायते, ये वै देवाः साध्या यज्ञमत्यमन्यन्त तेषा वा एतद्यदतिरिक्त यज्ञे क्रियते, ऽतिरिक्त वा एतद्यज्ञे क्रियते यदग्ना अग्निं जुह्वति, यच्चषालादुपर्यूपस्य तदेवैना स्पृशति, सस्थाप्यान्न सस्थाप्या, मिति मीमासन्ते, यत्सस्थापयेद्यज्ञमखे यज्ञस्थापये, दातिथ्य वा उपसदां प्रयाजास्तानूनप्त्रमाशी, स्तस्मादिडान्तमेव कार्य, मातिथ्य वा उपसदां प्रयाजा, स्तस्मात्ता अप्रयाजा, उपसदो वा आतिथ्यस्यानुयाजा, स्तस्मात्तास्तिस्र, स्त्रयो ह्यनुयाजाः, शिरो वा आतिथ्यं, ग्रीवा उपसदो, ऽथैष इतरो यज्ञः सहितः, प्रजापतेर्वा एतानि पक्ष्माणि यदश्ववारा, अस्य भ्रुवा इक्षुकाण्डे, यज्ञमुखं प्रजापति, र्यज्ञमुखादेवाधि यज्ञमुखं प्रतनुते, ऽश्वो वै मेध्यो, यज्ञः प्रजापतिः, प्राजापत्योऽश्व, स्तस्मादाश्ववारः प्रस्तरः, कार्ष्मर्यमयाः परिधयो भवन्ति रक्षसामपहत्यै।।९।। - मै.सं. 3.7.9

 

2.4.1.1 उपहोमाः

जुष्टो दमूना अतिथिर्दुरोणे    इमं नो यज्ञमुपयाहि विद्वान्    विश्वा अग्नेऽभियुजो विहत्य    शत्रूयतामाभरा भोजनानि 

समिधाग्निं दुवस्यत ।

VERSE: 10 { 1.2.1.10}
घृतैर् बोधयत_अतिथिम् ।
आस्मिन् हव्या जुहोतन ।
VERSE: 1 { 2.4.1.1}
जुष्टो दमूना अतिथिर् दुरोणे ।
इमं नो यज्ञम् उपयाहि विद्वान् ।

,०५८.०६  दधुष्ट्वा भृगवो मानुषेष्वा रयिं न चारुं सुहवं जनेभ्यः ।

,०५८.०६ होतारमग्ने अतिथिं वरेण्यं मित्रं न शेवं दिव्याय जन्मने ॥

,१२७.०८ अतिथिं मानुषाणां पितुर्न यस्यासया ।

,१२७.०८  अमी च विश्वे अमृतास आ वयो हव्या देवेष्वा वयः ॥

,१३०.०७ अतिथिग्वाय शम्बरं गिरेरुग्रो अवाभरत् ।

,१३०.०७  महो धनानि दयमान ओजसा विश्वा धनान्योजसा ॥

,१८६.०३  प्रेष्ठं वो अतिथिं गृणीषेऽग्निं शस्तिभिस्तुर्वणिः सजोषाः ।

,१८६.०३ असद्यथा नो वरुणः सुकीर्तिरिषश्च पर्षदरिगूर्तः सूरिः ॥

,००४.१०  यस्त्वा स्वश्वः सुहिरण्यो अग्न उपयाति वसुमता रथेन ।

,००४.१० तस्य त्राता भवसि तस्य सखा यस्त आतिथ्यमानुषग्जुजोषत् ॥

,००३.०५  न त्वद्धोता पूर्वो अग्ने यजीयान्न काव्यैः परो अस्ति स्वधावः ।

,००३.०५ विशश्च यस्या अतिथिर्भवासि स यज्ञेन वनवद्देव मर्तान् ॥

,००४.०५  जुष्टो दमूना अतिथिर्दुरोण इमं नो यज्ञमुप याहि विद्वान् ।

,००४.०५ विश्वा अग्ने अभियुजो विहत्या शत्रूयतामा भरा भोजनानि ॥

,००८.०२  त्वामग्ने अतिथिं पूर्व्यं विशः शोचिष्केशं गृहपतिं नि षेदिरे ।

,००८.०२ बृहत्केतुं पुरुरूपं धनस्पृतं सुशर्माणं स्ववसं जरद्विषम् ॥

,०१५.०१  इममू षु वो अतिथिमुषर्बुधं विश्वासां विशां पतिमृञ्जसे गिरा ।

,०१५.०१ वेतीद्दिवो जनुषा कच्चिदा शुचिर्ज्योक्चिदत्ति गर्भो यदच्युतम् ॥

अतिथिं सततं गन्तारम्। यद्वा अतिथिवत्पूज्यं - सायण

,०१५.०४  द्युतानं वो अतिथिं स्वर्णरमग्निं होतारं मनुषः स्वध्वरम् ।

,०१५.०४ विप्रं न द्युक्षवचसं सुवृक्तिभिर्हव्यवाहमरतिं देवमृञ्जसे ॥

अतिथिं – अतिथिवत्पूज्यं - सायण

,०१५.०६  अग्निमग्निं वः समिधा दुवस्यत प्रियम्प्रियं वो अतिथिं गृणीषणि ।

,०१५.०६ उप वो गीर्भिरमृतं विवासत देवो देवेषु वनते हि वार्यं देवो देवेषु वनते हि नो दुवः ॥

,००३.०५  तमिद्दोषा तमुषसि यविष्ठमग्निमत्यं न मर्जयन्त नरः ।

,००३.०५ निशिशाना अतिथिमस्य योनौ दीदाय शोचिराहुतस्य वृष्णः ॥

,०१९.०८  प्रशंसमानो अतिथिर्न मित्रियोऽग्नी रथो न वेद्यः ।

,०१९.०८ त्वे क्षेमासो अपि सन्ति साधवस्त्वं राजा रयीणाम् ॥

,०२३.२५  अतिथिं मानुषाणां सूनुं वनस्पतीनाम् ।

,०२३.२५ विप्रा अग्निमवसे प्रत्नमीळते ॥

,०७४.०१  विशोविशो वो अतिथिं वाजयन्तः पुरुप्रियम् ।

,०७४.०१ अग्निं वो दुर्यं वच स्तुषे शूषस्य मन्मभिः ॥

अतिथिं – पूज्यं - सायण

,०८४.०१  प्रेष्ठं वो अतिथिं स्तुषे मित्रमिव प्रियम् ।

,०८४.०१ अग्निं रथं न वेद्यम् ॥

अतिथिं। अत सातत्य गमने। सततं देवानां हविः प्रदातुं गच्छन्तम् - सायण

१०,०४८.०८  अहं गुङ्गुभ्यो अतिथिग्वमिष्करमिषं न वृत्रतुरं विक्षु धारयम् ।

१०,०४८.०८ यत्पर्णयघ्न उत वा करञ्जहे प्राहं महे वृत्रहत्ये अशुश्रवि ॥

१०,०६८.०३  साध्वर्या अतिथिनीरिषिरा स्पार्हाः सुवर्णा अनवद्यरूपाः ।

१०,०६८.०३ बृहस्पतिः पर्वतेभ्यो वितूर्या निर्गा ऊपे यवमिव स्थिविभ्यः ॥

अतिथिनीः – सततं गच्छन्तीः -सायण

१०,१२४.०३  पश्यन्नन्यस्या अतिथिं वयाया ऋतस्य धाम वि मिमे पुरूणि ।

१०,१२४.०३ शंसामि पित्रे असुराय शेवमयज्ञियाद्यज्ञियं भागमेमि ॥

अतिथिं – सततगामिनं सूर्यं - सायण

1.2.10 अनुवाक 10 तानूनप्त्रम्

VERSE: 1 अग्नेर् आतिथ्यम् असि विष्णवे त्वा सोमस्याऽऽतिथ्यम् असि विष्णवे त्वाऽतिथेर् आतिथ्यम् असि विष्णवे त्वाऽग्नये त्वा रायस्पोषदाव्ने विष्णवे त्वा श्येनाय त्वा सोमभृते विष्णवे त्वा या ते धामानि हविषा यजन्ति ता ते विश्वा परिभूर् अस्तु यज्ञम् । गयस्फानः प्रतरणः सुवीरो ऽवीरहा प्र चरा सोम दुर्यान् ॥ अदित्याः सदो ऽस्य् अदित्याः सद आ

1.2.14.4

यस् त्वा स्वश्वः सुहिरण्यो अग्न उपयाति वसुमता रथेन । तस्य त्राता भवसि तस्य सखा यस् त आतिथ्यम् आनुषग् जुजोषत् ॥ महो रुजामि

2.5.5.5

VERSE: 5 अथो देवता एवान्वारभ्य सुवर्गं लोकम् एति वीरहा वा एष देवानां यो ऽग्निम् उद्वासयते न वा एतस्य ब्राह्मणा ऋतायवः पुरान्नम् अक्षन् । आग्नेयम् अष्टाकपालं निर् वपेत् । वैश्वानरं द्वादशकपालम् अग्निम् उद्वासयिष्यन् यद् अष्टाकपालो भवत्य् अष्टाक्षरा गायत्री गायत्रो ऽग्निर् यावान् एवाग्निस् तस्मा आतिथ्यं करोति । अथो यथा जनं यते ऽवसं करोति तादृक्

5.2.2 अनुवाक 2 उख्याग्निनयनम्

रक्षाम्̇सि वा एतद् यज्ञम्̇ सचन्ते यद् अन उत्सर्जति । अक्रन्दद् इत्य् अन्व् आह रक्षसाम् अपहत्यै । अनसा वहन्ति । अपचितिम् एवास्मिन् दधाति तस्माद् अनस्वी च रथी चातिथीनाम् अपचिततमौ ।

VERSE: 4 अपचितिमान् भवति य एवं वेद समिधाग्निं दुवस्यतेति घृतानुषिक्ताम् अवसिते समिधम् आ दधाति यथातिथय आगताय सर्पिष्वद् आतिथ्यं क्रियते तादृग् एव तत् । गायत्रिया ब्राह्मणस्य गायत्रो हि ब्राह्मणः त्रिष्टुभा राजन्यस्य त्रैष्टुभो हि राजन्यः । अप्सु भस्म प्र वेशयति । अप्सुयोनिर् वा अग्निः स्वाम् एवैनं योनिं गमयति तिसृभिः प्र वेशयति त्रिवृद् वै

आतिथ्येष्ट्यभिधानम्  -- यद् उभौ विमुच्यातिथ्यं गृह्णीयाद् यज्ञं वि छिन्द्यात् । यद् उभाव् अविमुच्य यथानागतायातिथ्यं क्रियते तादृग् एव तत् । विमुक्तो ऽन्यो ऽनड्वान् भवत्य् अविमुक्तो ऽन्यो ऽथाऽऽतिथ्यं गृह्णाति यज्ञस्य संतत्यै पत्न्य् अन्वारभते पत्नी हि पारीणह्यस्येशे पत्नियैवानुमतं निर् वपति यद् वै पत्नी यज्ञस्य करोति मिथुनं तत् । अथो पत्निया एव ॥1॥ एष यज्ञस्यान्वारम्भो ऽनवछित्त्यै यावद्भिर् वै राजानुचरैर् आगच्छति सर्वेभ्यो वै तेभ्य आतिथ्यं क्रियते छन्दाम्̇सि खलु वै सोमस्य राज्ञो ऽनुचराणि । अग्नेर् आतिथ्यम् असि विष्णवे त्वेत्याह गायत्रिया एवैतेन करोति सोमस्यातिथ्यम् असि विष्णवे त्वेत्य् आह त्रिष्टुभ एवैतेन करोति । अतिथेर् आतिथ्यम् असि विष्णवे त्वेत्य् आह जगत्यै ॥2॥ एवैतेन करोति । अग्नये त्वा रायस्पोषदाव्ने विष्णवे त्वेत्य् आहानुष्टुभ एवैतेन करोति श्येनाय त्वा सोमभृते विष्णवे त्वेत्य् आह गायत्रिया एवैतेन करोति पञ्च कृत्वो गृह्णाति पञ्चाक्षरा पङ्क्तिः पाङ्क्तो यज्ञो यज्ञम् एवाव रुन्द्धे ब्रह्मवादिनो वदन्ति कस्मात् सत्याद् गायत्रिया उभयत आतिथ्यस्य क्रियत इति यद् एवादः सोमम् आ ॥3॥ अहरत् तस्माद् गायत्रिया उभयत आतिथ्यस्य क्रियते पुरस्ताच् चोपरिष्टाच् च शिरो वा एतद् यज्ञस्य यद् आतिथ्यं नवकपालः पुरोडाशो भवति तस्मान् नवधा शिरो विष्यूतम् । नवकपालः पुरोडाशो भवति ते त्रयस् त्रिकपालास् त्रिवृता स्तोमेन सम्मितास् तेजस् त्रिवृत् तेज एव यज्ञस्य शीर्षन् दधाति नवकपालः पुरोडाशो भवति ते त्रयस् त्रिकपालास् त्रिवृता प्राणेन सम्मितास् त्रिवृद् वै ॥ 4।। प्राणस् त्रिवृतम् एव प्राणम् अभिपूर्वं यज्ञस्य शीर्षन् दधाति प्रजापतेर् वा एतानि पक्ष्माणि यद् अश्ववाला ऐक्षवी तिरश्ची यद् आश्ववालः प्रस्तरो भवत्य् ऐक्षवी तिरश्ची प्रजापतेर् एव तच् चक्षुः सम् भरति देवा वै या आहुतीर् अजुहवुस् ता असुरा निष्कावम् आदन् ते देवाः कार्ष्मर्यम् अपश्यन् कर्मण्यो वै कर्मैनेन कुर्वीतेति ते कार्ष्मर्यमयान् परिधीन् ।।5।। अकुर्वत तैर् वै ते रक्षाम्̇स्य् अपाघ्नत यत् कार्ष्मर्यमयाः परिधयो भवन्ति रक्षसाम् अपहत्यै सम्̇ स्पर्शयति रक्षसाम् अनन्ववचाराय न पुरस्तात् परि दधात्य् आदित्यो ह्य् एवोद्यन् पुरस्ताद् रक्षाम्̇स्य् अपहन्ति । ऊर्ध्वे समिधाव् आ दधात्य् उपरिष्टाद् एव रक्षाम्̇स्य् अपहन्ति यजुषान्यां तूष्णीम् अन्याम् मिथुनत्वाय द्वे आ दधाति द्विपाद् यजमानः प्रतिष्ठित्यै ब्रह्मवादिनो वदन्ति 6।। अग्निश् च वा एतौ सोमश् च कथा सोमायातिथ्यं क्रियते नाग्नय इति यद् अग्नाव् अग्निम् मथित्वा प्रहरति तेनैवाग्नय आतिथ्यं क्रियते । अथो खल्व् आहुर् अग्निः सर्वा देवता इति यद् धविर् आसाद्याग्निम् मन्थति हव्यायैवाऽऽसन्नाय सर्वा देवता जनयति ॥ तै.सं. 6.2.1

7.5.15 अनुवाक 15 अश्वमेधाङ्गमन्त्रकथनम् -- यो वा अग्नाव् अग्निः प्रह्रियते यश् च सोमो राजा तयोर् एष आतिथ्यं यद् अग्नीषोमीयः । अथैष रुद्रो यश् चीयते यत् संचिते ऽग्नाव् एतानि हवीम्̇षि न निर्वपेत् । एष एव रुद्रो ऽशान्त उपोत्थाय प्रजाम् पशून् यजमानस्याभि मन्येत यत् संचिते ऽग्नाव् एतानि हवीम्̇षि निर्वपति भागधेयेनैवैनम्̇ शमयति नास्य रुद्रो ऽशान्तः।।1।। उपोत्थाय प्रजाम् पशून् अभि मन्यते दश हवीम्̇षि भवन्ति नव वै पुरुषे प्राणा नाभिर् दशमी प्राणान् एव यजमाने दधाति । अथो दशाक्षरा विराड् अन्नं विराड् विराज्य् एवान्नाद्ये प्रति तिष्ठति । ऋतुभिर् वा एष छन्दोभिः स्तोमैः पृष्ठैश् चेतव्य इत्य् आहुः । यद् एतानि हवीम्̇षि निर्वपत्य् ऋतुभिर् एवैनं छन्दोभिः स्तोमैः पृष्ठैश् चिनुते दिशः सुषुवाणेन।।2।। अभिजित्या इत्य् आहुः । यद् एतानि हवीम्̇षि निर्वपति दिशाम् अभिजित्यै ।।3।।

हविरातिथ्यं निरुप्यते सोमे राजन्यागते सोमो वै राजा यजमानस्य गृहानागच्छति तस्मा एतद्धविरातिथ्यं निरुप्यते तदातिथ्यस्यातिथ्यत्वं नवकपालो भवति नव वै प्राणाः प्राणानां क्लृप्त्यै प्राणानाम्प्रतिप्रज्ञात्यै वैष्णवो भवति विष्णुर्वै यज्ञः स्वयैवैनं तद्देवतया स्वेन छन्दसा समर्धयति सर्वाणि वाव छन्दांसि च पृष्ठानि च सोमं राजानं क्रीतमन्वायन्ति यावन्तः खलु वै राजानमनुयन्ति तेभ्यः सर्वेभ्य आतिथ्यं क्रियतेऽग्निम्मन्थन्ति सोमे राजन्यागते तद्यथैवादो मनुष्यराज आगतेऽन्यस्मिन्वार्हत्युक्षाणं वा वेहतं वा क्षदन्त एवमेवास्मा एतत्क्षदन्ते यदग्निं मन्थन्त्यग्निर्हि देवानां पशुः॥ऐ.ब्रा. 1.15॥

सोममेव राजानं क्रीयमाणमनु यानि कानिच भेषजानि तानि सर्वाण्यग्निष्टोममपियन्त्यग्निमातिथ्ये मन्थन्त्यग्निं चातुर्मास्येष्वातिथ्यमेवानु चातुर्मास्यान्यग्निष्टोममपियन्ति – 3.40

आतिथ्यमतन्वत तमातिथ्येन नेदीयोऽन्वागच्छंस्ते कर्मभिः समत्वरन्त तदिळान्तमकुर्वंस्तस्माद्धाप्येतर्ह्यातिथ्यमिळान्तमेव भवति तमनु न्यायमन्ववायंस्त – 3.45

 

 

*अथ खल्वयमार्षः प्रदेशो भवति ।। १ ।। ऋषीणां नामधेयगोत्रोपधारणम् ।। २ ।। स्वर्ग्यं यशस्यं धन्यं पुण्यं पुत्र्यं पशव्यं ब्रह्मवर्चस्यं स्मार्तमायुष्यम् ।। ३ ।। प्राक्प्रातराशिकमित्याचक्षते ।। ४ ।। तदप्येवमाहुर्य इदमुपधारयत एकैकस्य ऋषेः दिव्य वर्षसहस्रमतिथिर्भवति । अभिनन्दितः प्रतिनन्दितो मानितः पूजितस्ततः स्वाध्यायफलमुपजीवतीति ।। ५ ।। - आर्षेय ब्राह्मणम् 1.1

*भृत्यातिथिशेषभोजी काले दारानुपेयाद् । यथाशक्ति चातिथिभ्यो दद्यादप्युदकमन्ततः । एवंव्रतो 'यदिन्द्राहं यथा त्वम्' (साम १.१२२) इत्येते सदा प्रयुञ्जीत । सुवर्महाः सुवर्मया इत्येते च पर्वणि । तथा हास्याग्निहोत्रमविलुप्तं सदा हुतं सदर्शपूर्णमासं भवति ।। ५ ।। सामविधान ब्राह्मणम् १..

 (भृत्यशब्देनात्र भरणीया देवादय उच्यन्ते  अतिथयोऽनित्यं दूरादागताः)

 

 

*आतिथ्येष्टि  सोमयज्ञेषु क्रीतं सोमं शकटेऽवस्थाप्य प्राचीनवंशं मण्डपं प्रति आनयने या इष्टिर्निरूप्यते सा आतिथ्या इष्टिरुच्यते । द्र० ऐ० ब्रा० सा० १ । २६ मी० को० पृ० ८८३ चाननुयाजा । ततः प्रयाजानेवात्र यजन्ति नानुयाजान् इडोपह्वानान्ता च भवतीति विशेषोऽवगन्तव्यः । द्र० इडोपह्वान-

*आतिथ्येष्टिदेवता= सोमयज्ञेषु प्रकृतिभूतज्योतिष्टोमातिरात्रप्रकरणे सोमप्रथमसंस्थायामग्निष्टोमे तद्विकृतिषु चैकाहाहीनसत्रेषु आतिथ्यायाः इष्टेर्विष्णुः प्रधानदेवता भवतीति ।

*आतिथ्येष्टिदेश (आध्व०) सोमयज्ञेषु प्रकृतिभूत ज्योतिष्टोमातिरात्रप्रकरणे सोमप्रथमसंस्थायामग्निष्टोमे तद्विकृतिषु चैकाहीनसत्रेषु प्राग्वंशः (प्राग्वंशशाला) आतिथ्यायाः इष्टेरनुष्ठानदेशः अनुष्ठानस्थानं भवतीत्यर्थः । द्र० प्राग्वंश-

*आतिथ्येष्टिपदार्थ-  सोमयज्ञेषु आतिथ्यायामिष्टौ आज्यभागौ । वैष्णवो नवसु कपालेषु संस्कृतो नव कपाल पुरोडाशः प्राकृताः पञ्च प्रयाजाः । अनुयाजानामभावः । प्रधानमुपांशु । आश्ववालः प्रस्तरः । ऐक्षव्यौ विधृती । पञ्चविधं बर्हिः यदातिथ्यां बर्हिः तदुपसदां तदग्नीषोमीयपशोः इति विशेषः कार्ष्मर्यमयाः परिधयः । सप्तदश सामिधेन्यः । योक्त्रेध्मप्रव्रश्चनान्वाहार्यस्थालीवर्जं प्रकृतिवत् पात्राण्यासादयति । त एत आतिथ्येष्टिपदार्थाः भवन्ति । द्र० श्रौ० प० नि० पृ० २०९ ।

*आतिथ्येष्टिप्रयोग- सोमयज्ञेषु सम्भारमन्त्रव्याख्यानान्तरमुत्करे कृष्णाजिनमास्तीर्य  अग्नेर्जनित्रमसि ' इत्यादिमन्त्रैः पशुवन्मन्थनं कृत्वा निर्मन्थ्येन प्रचर्याभिहुत्य ' अग्नये समिध्यमानायानुब्रूहि ' इत्यादि प्रकृतिवत् करोति । न समिधं परिशिनष्टि अनुयाजाभावात् । चतुर्थे प्रयाजे सर्वमौपभृतमाज्यं जुह्वामानीय प्रयाजशेषेण धुवामभिघारयति । उपभृतं नाभिघारयति । आज्यभागानन्तरमुपांशुप्रधानेन प्रचरति । ' विष्णोरहं देवयज्ययाऽन्नादो भूयासम् (अन्नाद इत्यस्य स्थाने शिपिविष्टपदं वा) इति यजमानस्य प्रधानयागानुमन्त्रणम् । ततः स्विष्टकृदिडे प्रचर्य प्राशित्रं परिहृत्य प्रणीता निनीय तूष्णीं धुवामाप्याययति । सन्तिष्ठते आतिथ्येष्टिः ।द्र० श्रौ० प० नि० पृ० २११ ।

*आतिथ्येष्टिसंस्था -- सोमयज्ञेषु आतिथ्याख्यं चोर(द)कप्राप्तं यज्ञकर्मेडोपह्वानान्तं भवति अर्थात् अनुयाजेभ्यः पूर्वं यदिडोपह्वानं तदन्तमेवातिथ्येष्टि कर्म भवति । इडाया उत्तरकालीनान्यङ्गानि नानुतिष्ठन्तीतीडायामेवातिथ्यायाः समाप्तिरित्यातिथ्येष्टिसंस्थोच्यते (तु ० ऐ. ब्रा० सा० ३ ।४५)

*आतिथ्येष्टिसंकल्प (याज०) सोमयज्ञेषु यजमानः शालायां प्रविष्टः स्वस्थाने उपविश्य आतिथ्येष्ट्या यक्ष्ये इत्यातिथ्येष्टिं संकल्पयति । सोऽयमातिथ्येष्टिसंकल्प उच्यते । तत्र संकल्पात् पूर्वं 'वरुणस्य स्कम्भ सर्जनमसि' इति दक्षिणस्यानडुहः शम्यामुत्कर्षति । उन्मुक्ते  'वरुणस्य पाशः' इति योक्त्रं मुञ्चति । ततः 'एहि यजमान इति यजमानमाहूय पूर्वया द्वारा शालां प्रवेशय- तीति विशेषोऽवधेयः । ' द्र० श्रौ०प०नि० पृ० २०९

*आतिथ्येष्टिस्विष्टकृद्याज्यानुवाक्या (सयाज्या-, हौ०) । सोमयज्ञेषु आतिथ्येष्टौ 'होतारं चित्ररथम्' (ऋ० १० ।१ ।५ पुरोनुवाक्या) 'प्र प्रायमग्निर्भर- तस्य' (ऋ० ७ ।८ ।४) याज्या । इति द्वे स्विष्टकृतो द्वे संयाज्ये भवतः (याज्यानुवाक्ये)

*आतिथ्येष्ट्यग्निमन्थन- द्र० १-२ अग्निमन्थन-

*आतिथ्येष्ट्याज्यभागयोः पुरोऽनुवाक्या (हौ०) सोमयज्ञेषु तिथ्येष्टेराज्यभागयोः 'समिधा' (ऋ० ८ ।३४ । १) प्रथमस्याग्नेयस्य 'आप्यायस्य' (ऋ० १ ।९१ । १६) द्वितीयस्य सोम्य इति द्वे ऋचौ पुरोऽनुवाक्ये भवतः ।

*आतिथ्येष्ट्याज्यभागयोर्याज्या सोमयज्ञेषु तिथ्येष्टेराज्यभागयोः पूर्वस्याग्नेयस्य अग्निर्वृत्राणिजङ्घनद- (ऋ० ६ ।१६ । ३५) जुषाणोऽग्निराज्यस्य वेतु । इति याज्या उत्तरस्य सौम्यस्य 'त्वं सोमाऽसि सत्पतिः' (ऋ० १ ।९ १ ।५) जुषाणः सोम आज्यस्य हविषो वेतु । इति याज्या । तयोर्जुषाणेनैव यजति' इति याज्या न्तरप्रसृक्तिं वारयितुमयं विधिः (तु०- ऐ०ब्रा०सा० १ । १७) । - श्रौतयज्ञप्रक्रिया पदार्थानुक्रमकोषः पण्डित पीताम्बरदत्त शास्त्री (राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, 2005)

 

आचार्योऽरणिराद्यः स्यादन्तेवास्युत्तरारणिः 

तत्सन्धानं प्रवचनं विद्यासन्धिः सुखावहः  ॥ भागवत 11.10.012

 

 

 

 

 

 

 

अतिथि पद्म ७.२५( अतिथि सेवा का माहात्म्य : लोमश द्वारा अनपत्य पति व पवित्र नामक ब्राह्मणों को ज्ञानभद्र योगी की अतिथि सेवा के दृष्टान्त का कथन, पवित्र द्वारा मूषक की हत्या ), ब्रह्माण्ड १.२.३६.६९( षष्ठम चाक्षुष मन्वन्तर में आद्य नामक देवगण के अन्तर्गत एक देव ), २.३.१५.८( श्राद्ध में अतिथि सेवा की महिमा ), भविष्य १.११८(?)( अतिथि का माहात्म्य ), १.१८४.८( वैश्वदेव कर्म के संदर्भ में अतिथि की परिभाषा ), भागवत ६.७.३०( अतिथि धर्म की व अभ्यागत अग्नि की मूर्ति होने का उल्लेख ), ९.१२.१( कुश - पुत्र, निषध - पिता ), ९.२१( रन्तिदेव के आतिथ्य की पराकाष्ठा ), लिङ्ग १.२९( अतिथि सेवा का महत्त्व, सुदर्शन विप्र द्वारा अतिथि को भार्या का समर्पण ), वायु ७९.१३( अतिथि की महिमा ), विष्णु ३.११.५८( अतिथि की महिमा ), विष्णुधर्मोत्तर ३.२८९( हंस - प्रोक्त अतिथि पूजा की महिमा ), शिव ५.१२.१९( वृक्षों द्वारा अपनी छाया से अतिथि पूजा करने का उल्लेख ), ५.३९.१९( कुश - पुत्र, राम - पौत्र, निषध - पिता ), स्कन्द २.४.३२.५४( अयोध्या में अतिथि नामक नृप द्वारा भीष्मपञ्चक व्रत का पालन ), ४.१.३८.३२( अतिथि आगमन काल व अतिथि की महिमा ), ५.३.२११.१५( अतिथि की कुरूपता पर ध्यान न देने का निर्देश ), ६.१८४( बौद्ध - पुत्र अतिथि का ब्रह्मा के यज्ञ में आगमन, पिङ्गला आदि गुरुओं से शिक्षा का कथन ; तुलनीय : भागवत में अवधूत व यदु का संवाद ), ६.१८५( ब्रह्मा के यज्ञ में आए अतिथि द्वारा स्थापित अतिथि तीर्थ की उत्पत्ति व माहात्म्य ), ६.१८६( अतिथि का माहात्म्य, अतिथि के तीन प्रकार - श्राद्धीयो वैश्वदेवीयः सूर्योढश्च तृतीयकः ), महाभारत वन ३१३.६५( अग्नि के सब भूतों में अतिथि होने का उल्लेख : यक्ष - युधिष्ठिर संवाद ), शान्ति २२१.१४( अतिथि को भोजन देने का माहात्म्य ), २९२.६( अतिथि सेवा का माहात्म्य ), २५३+ ( अतिथि द्वारा ब्राह्मण को स्वर्ग के विभिन्न मार्गों का कथन, अतिथि द्वारा नागराज पद्मनाभ के सदाचार व सद्गुणों का वर्णन और ब्राह्मण को उसके पास जाने की प्रेरणा देना ), अनुशासन २.४२( अग्नि - पुत्र सुदर्शन द्वारा अतिथि सत्कार रूपी धर्म के पालन से मृत्यु पर विजय पाने का वृत्तान्त, सुदर्शन-पत्नी ओघवती व मृत्यु का आख्यान), आश्वमेधिक ९२ दाक्षिणात्य पृष्ठ ६३२९( अतिथि सेवा का माहात्म्य ), लक्ष्मीनारायण १.४४२.२९( सुयज्ञ राजा द्वारा अतिथि सुतपा ऋषि का अनादर, शाप प्राप्ति, अतिथि की महिमा का कथन ), १.५१०.४२( कृष्ण नारायण रूपी अतिथि द्वारा कुररी आदि से शिक्षा ग्रहण की कथा ; तुलनीय : भागवत में अवधूत - यदु संवाद ), २.२४६.२९( अतिथि : इन्द्रलोक का स्वामी ), ३.४१.९०( अतिथि : आग्नेय पितरों का रूप ) atithi

 

 
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