Aditi
डा. फतहसिंह (१३-७-१९१३ से ६-२-२००८ई.)
अदिति
टिप्पणी : मनुष्य व्यक्तित्व की अखण्ड इकाई का नाम अदिति और खण्डित, आसुरी इकाई का नाम दिति है। - फतहसिंह
ऋग्वेद में ४.१८ व १०.७२ सूक्तों की ऋषिका अदिति है तथा सूक्तों ४.१८ व १०.१८५ की देवता है। अथर्ववेद में अदिति देवता के बहुत से सूक्त हैं। अथर्ववेद का एक प्रसिद्ध मन्त्र है – दितिः शूर्पम् अदिति शूर्पग्राही, अर्थात् दिति छाज है जिसे अदिति पकड कर अन्न को साफ करती है।
अदिति
- वैदिक दर्शन(डा. फतहसिंह) पृ.१०१
(क) अदिति और दिति - वाग्देवी का ही दूसरा नाम ‘अदिति' प्रतीत होता है; ललिता-सहस्रनाम में तो वह निश्चित रूप से देवी का ही एक नाम है । वैदिक साहित्य में यह सारी सृष्टि को भक्षण करने वाली, उसको जन्म देने वाली है, उसमें व्याप्त रहने वाली तथा उसको पालन पोषण करने वाली कही गई है । निघंटु में अदिति, पृथिवी, वाक् या गौ का नाम है । श, ब्रा. में अदिति वाक् हैं ८ । अदिति और पृथिवी का समीकरण भी अदिति को वाग्देवी या प्रकृति ही बतलाता है, क्योंकि पृथिवी न केवल स्थूल प्रकृति का प्रतिरूप होकर उक्त द्यावापृथिवी की कल्पना के अन्तर्गत आती है, अपितु अ. वे. १२,१ पृथिवी द्वारा सारे विश्व का सृजन तथा पालन भलीभांति दिखलाया गया है और उसके मूल रूप को महत् के समान ही सलिल भी कहा गया है :--
यार्णवेधि सलिलमग्र आसीद् यां मायाभिरन्वचरन् मनीषिणः । यस्याः हृदयं परमे व्योमन्सत्येनावृतममृतं पृथिव्याः । ।
अतः अदिति को वेदों में बार बार पृथिवी कहा गया है। इसी प्रकार अदिति तथा गौ का समीकरण भी अदिति के इसी पक्ष की ओर संकेत करता है। वाग्देवी अनेक स्थल पर गो रूप में कल्पित की जाती है, और उससे मिलने वाला भरण-पोषण दुग्ध रूप में । इस प्रकार का एक अत्यन्त रोचक वर्णन अ. ८,९;१० में मिलता है, जहां गो-रूप 'सलिल' वाक से सारी सृष्टि तथा उसके द्वारा विभिन्न लोकों को ‘पोषण' का वितरण भली प्रकार दिखलाया गया है ।
अदिति के भक्षक तथा पोषक दोनों रूप योरप में भी विद्यमान हैं। वैदिक साहित्य में अत्तीति अदितिः' तथा 'अद्यतेऽति अदितिः' ये दो निर्वाचन क्रमशः भक्षक तथा पोषक अदिति को ‘अद्' धातु से ही निकालते हैं। ३ संस्कृत 'अद्’, जिसकी तुलना प्रायः लै dre, ग्री० edsin, edo; आईस eta; अं० eat, ऐ० सै• etem; ज• essen;
ना. oedia से की जाती है, ग्रीस के मृत्यु देवता अदीस ( Ades ) या हेदीस ( H des ) में भी है जो भक्षक अदिति का पूरा-पूरा प्रतिरूप है। अदिति का पोषक रूप यूरोपियन अदोनीस (Adonis) में देखा जा सकता है, जिसको फ्रेंजर ने अपने ‘गोल्डेन बांड (Golden Bough ) में बड़े विस्तार के साथ वर्णन करके ‘पृथिवी' की उर्वरा शक्ति तथा खाद्य-उत्पत्ति का देवता माना है और विश्वंभरा पृथिवी की अधिष्ठात्री देवी ‘इदून्’ का समकक्ष स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त नार्वे की इद (ida ) पृथिवी देवी तथा यद्दा (edda मातामही ) से भी अदिति का भाषा वैज्ञानिक सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है ।
इस प्रकार का द्विधाकरण हमने वरुण में भी देखा, जहां कि असुरत्व पक्ष का पृथक् वृत्र में समावेश हो गया। अदिति के विषय में भी योरप की भांति भारत में भी यही हुआ प्रतीत होता है। हिलेब्रां के अनुसार अदिति दिति ( जिसे वह ‘दा' बांधना से निकालता है) - का प्रतिलोम है । वैदिक साहित्य में दिति शब्द की उत्पत्ति दी
( प्रकाश करना, तु• क• दिव ) तथा दा ( देना ) से की जाती है, जिससे प्रतीत होता है कि उस समय अदिति की भांति दिति भी प्रकाशयित्री, दात्री तथा पोषयित्री समझी जाती थी । परन्तु, यास्क अदिति को 'दी' ( नष्ट करना या होना ) से निष्पन्न करके अदिति को ‘अदीना' कहकर वर्णन करता है, जिससे मालूम पड़ता है कि यास्क के समय तक अदिति से असुरत्व-पक्ष चला गया था । अतः कदाचित् इसी समय के आस-पास 'दिति' पर इस पक्ष का आरोप किया गया होगा, जिससे वह न केवल अदिति की प्रतिलोम बन गई, अपितु उसके पुत्र दैत्य भी असुर या राक्षस हो गये और अदिति के पुत्र आदित्यों या देवों के स्थायी शत्रु बन गये । परन्तु मौलिक कल्पना का इस प्रकार विभाजन हो जाने पर भी, यह बात नहीं भुलाई गई कि ये वास्तव में एक ही प्रकृति या माया के दो पक्ष हैं और वह प्रकृति या माया ब्रह्म की शक्ति का ही रूपान्तर मात्र है । अतः रामायण, महाभारत तथा पुराणों में अदिति तथा दिति एक ही 'कश्यप' की दो स्त्रियां हैं, जिनसे आदित्य और दैत्य उत्पन्न होते हैं ।
अतः अदिति को वाग्देवी, जगदम्बा या पराशक्ति मानने में कोई बाधा नहीं मालूम होती । परन्तु अदिति के जिस स्वरूप से सृष्टि उत्पन्न होती है, वह 'अपः' है। ऋ वे० १, ६३, २ में स्पष्ट लिखा है कि समस्त वन्दनीय या यज्ञीय देवता अदिति पृथिवी के 'अप' से उत्पन्न हुए । इसलिये जहां अदिति अपने एक रूप में ‘द्यावपृथिवी अवस्था की 'पृथिवी' या ‘अपः' होकर सध्रीची वाक् के समान होती है, वहां वह अपने अव्याकृत रूप में मित्रावरुण अवस्था के 'वरुण' सदृश आध्यात्मिक ‘परा' वाक् भी है। इसी अन्तिम रूप में उसका सम्बन्ध दक्ष प्रजापति से समझा जा सकता है। दक्ष ब्रह्म है; ब्रह्म से परावाक् उत्पन्न होती है और परावाक् ही निष्कल, एक तथा अद्वैत ब्रह्म को ‘कारण ब्रह्म' के रूप में उत्पन्न भी करती है । ऋ. वे १०, ७२, ४ में लिखा है कि अदिति से दक्ष उत्पन्न हुआ और दक्ष-पुत्री अदिति ने दक्ष को पैदा किया। अतः अपने ‘आपः' रूप में वह जीवों को बन्धन में डालती हुई समझी जा सकती है और शुद्ध तथा सर्वोच्च रूप में वह 'आगः' या 'बन्धन' तथा 'अशौच से मुक्त भी कर सकती है ( ऋ० वे० १, २४, १२; ८, ६७, १४; ७, ५१, १), जिसके लिये उससे प्रायः प्रार्थना की जाती है। इसीलिये सृष्टि के विभिन्न तत्त्वों को गिनाते हुए प्रजापति के पश्चात् अदिति का ही नाम आता है।।
अदिति
१. अथ यत् प्रायणीयेन यजन्ते । अदितिमेव देवतां यजन्ते । माश १२,१,३, २ ।
३. अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम । तैसं ४,२,१,४; मै १,२,१८: ४,१४,१७; काठ ३,८ ।
*आसन्द्याम् उख्याग्निस्थापनम् - उद् उत्तमं वरुण पाशम् अस्मद् अवाधमम् वि मध्यमम्̇ श्रथाय । अथा वयम् आदित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम ॥ - तैसं ४,२,१,४
३. अदिता एहि । मै ४,२,५; तैआ ४,८,१; ५,७,१।।
४ अदितिं यजति, तस्मादियमुपरिष्टात्प्रजाभ्यो वर्षति । काठ २३, ८।
५, अदितिँ शीर्ष्णा (प्रीणामि ) । तैसं ५, ७, १३, १; मै ३, १५, २; काठ ५३,३।।
६ अदितिः पाशान् (°शम् । तैसं.) प्रमुमोक्त्वेतान् (तम् । तैसं..) । तैसं ३,१,४,४; मै १,२,१५; काठ ३०,८ ।।
७. अदितिः पुत्रकामा साध्येभ्यो देवेभ्यो ब्रह्मौदनमपचत् । तस्या उच्छेषणमददुः । तत्प्राश्नात् सा रेतोऽधत्त । तस्यै धाता चार्यमा चाजायताम् । ••••••मित्रश्च वरुणश्चाजायेताम् । ••••••अंशश्च भगश्चाजायेताम् । ••••••इन्द्रश्च विस्वांश्चाजायेताम् । तै १, १, ९, १-३ ।
८. अदितिरच्छिन्नपत्रा । काठ १, ११; क १, ११ ।
९. अरुणया सोमक्रयप्रकाराभिधानम् – अदितिरस्युभयतः शीर्ष्णी ( वाक् ) इत्याह, यदेवाऽऽदित्यः प्रायणीयो यज्ञानामादित्य उदयनीयस्तस्मादेवमाह । तैसं ६, १,७,५।
१०. सोमक्रयणीहोमादि -- अदितिरस्युभयतःशीर्ष्णी ( °र्ष्णि [मै.) सा नः (सा मा ( काठ, क.) सुप्राची सुप्रतीची भव ( संभव [ तैसं.]; एधि [माश.J) । तैसं १,२,४,२; मै १,२,४; काठ २, ५; क १, १७, माश ३, २, ४, १६-१७ ।।
११. यज्ञतन्वाख्या इष्टकाः -- अदितिरासादितः ( सोमः )। तैसं ४, ४, ९, १ ।
१२. अदितिरिव त्वा सुपुत्रोपनिषदेयम् ! काठ १, १० ।
१३. अदितिर्न उरुष्यत्वदितिः शर्म यच्छतु । अदिति: पात्वँहसः । तैसं १, ५, ११,५ । १४. अदितिर्वेद्या ( सहागच्छतु ) । तैआ ३, ८, १ ।।
१५. अदितिवें प्रजाकामौदनमपचत्तत उच्छिष्टमाश्नात् सा गर्भमधत्त तत आदित्या अजायन्त । गो १,२,१५।
१६. अदितिर्हि गौः । माश २, ३, ४, ३४; १४, २, १, ७।।
*इड एह्यदित एहि सरस्वत्येहीतीडा हि गौरदितिर्हि गौः सरस्वती हि गौ – माश. १४, २, १, ७
१७. अदितिः षोडशाक्षरया (°क्षरेण | तैसं.) षोडशं मासम् (स्तोमम् । तैसं]) उदजयत् । तैसं १,७,११,२?; मै १,११,१० (तु. काठ १४,४) ।
१८. अदितिस्ते बिलं गृह्णातु पाङ्क्तेन छन्दसा . . . । तैसं ४, १, ५, ४ ।
१९. अदित्याः सदा आसीदेति , आदित्यो वै यज्ञो ,अदितिः सोमस्य योनिः । मै ३,७,८, ३.९,१ ।।
२०. अदित्या अहं देवयज्यया प्रतिष्ठां गमेयम् । काठ ५, १ ।।
२१. अवशिष्टा अक्ष्णयास्तोमीया इष्टकाः -- अदित्या (°त्यै [तैसं.) भागोऽसि, पूष्ण आधिपत्यमिति पश्चात् (°पत्यमोजः स्पृतं, त्रिणव स्तोमः । तैसं., मै.)। तैसं ४,३,९,१; मै २,८, ५; काठ २१,१ ।
* अवशिष्टा अक्ष्णयास्तोमीया इष्टकाः --अदित्यै भागो ऽसि पूष्ण आधिपत्यम् ओज स्पृतं त्रिणव स्तोमः - तैसं ४,३,९,१
* अदित्या भागोऽसि, पूष्ण आधिपत्यं, ओजः स्पृतं , त्रिणवः स्तोमो - मै २,८, ५
२२. बर्हिराहरणम् -- अदित्यै रास्नासीन्द्राण्यै संनहनम् पूषा ते ग्रन्थिं ग्रथ्नातु स ते मास्थात् ।। तैसं १, १, २, २; काठ १, २; क १, २ ।
२३. अदित्यास्त्वगसीतीयम् (पृथिवी) अदितिरस्या एवैनत् त्वचं करोति । काठ ३१, ४।।
२४. अदित्यास्त्वा (बर्हिं) पृष्ठे सादयामीतीयँ (पृथिवी) वा अदितिः । मै ४,१,२ ।
२५. अदित्यै त्रयो रोहितैताः । काठ ४९, ८ ।
२६. अदित्यै द्वादशी (अस्तु) । तैसं ५, ७, २२, १ ।
२७. अदित्यै पाजस्यम् (पुनर्वसू । तै.) । काठ ५३,६; तै १,५,१,१, तैसं. ५.७.१६.१ ।
२८. अदित्यै मह्यै स्वाहादित्यै सुमृडकायै स्वाहा । काठ ४३, ५ ।।
२९. अदित्यै विष्णुपत्न्यै चरुः । काठ ४५, १० ।
३०. प्रायणीया विधानम् -- पथ्याम्̇ स्वस्तिम् अयजन् प्राचीम् एव तया दिशम् प्राजानन्न्, अग्निना दक्षिणा, सोमेन प्रतीचीम्, सवित्रोदीचीम् , अदित्योर्ध्वाम् (दिशं प्राजानन् )। तैसं ६, १, ५,२ ।।
३१. अनागसं तमदितिः कृणोतु । काठ ७, १६ ।
३२. अनागास्त्वे अदितित्वे तुरास इमँ यज्ञं दधतु श्रोषमाणाः । तैसं २,१,११,६; मै ४,१४,१४ ।
३३. अविज्ञाता अदित्यै (अस्तु) । मै ३, १३,६; १० ।
३४. अष्टयोनीमष्टपुत्राम् । अष्टपत्नीमिमां महीम् । अहं वेद न मे मृत्युः••••••। अष्टौ पुत्रासो अदितेः (. मित्रः, वरुणः, धाता, अर्यमा, अंशः, भगः, इन्द्रः, विवस्वान् इत्यष्टौ पुत्राः) । तैआ १,१३,१-२ ।।
३५. अभिषेकजलसंस्कारमन्त्राः -- आविन्ना देव्यदितिर्विश्वरूपी । तैसं १,८,१२,२ ।
३६. इड एह्यदित एहि सरस्वत्येहि (+ इत्याह । एतानि वा अस्यै देवनामानि [तैआ ५,७,१])। - तैआ ४,८,१।।
३७ सहस्रतम्यभिधानम्-- इडे रन्तेऽदिते सरस्वति प्रिये प्रेयसि महि विश्रुत्येतानि ते अघ्निये नामानि । तैसं ७,१,६,८ ।
३८. इडे रन्ते हव्ये काम्ये चन्द्रे ज्योते ऽदिति सरस्वति महि विश्रुति । एता ते अघ्न्ये ( देवत्रा) नामानि । माश ४,५,८,१०।।
३९. इमँ समुद्रँ (साहस्रं [काठ.J) शतधारमुत्सं व्यच्यमानं भुवनस्य (सरिरस्य [काठJ.) मध्ये। घृतं दुहानामदितिं जनायाग्ने मा हिँसीः परमे व्योमन् । तैसं ४,२,१०,२-३; काठ १६,१७ ।
४०. इयं (पृथिवी) वा अदितिः (+इयँ हीदँ सर्वं ददते [माश.) । तैसं २, २, ६,१; २.३,१,२; ५,१,७,१; मै १,१०,२०; १.११,६, २,३,५ २.५,२; ३,२,६; ४,१,२; ५; ४.३,८; ४.८, १०; कौ ७,६; गो १,१,२५; ते १,१,६,५; माश ७,४,२,७।
४१. इयँ (पृथिवी) वा अदितिर्, ऊर्ध्वा वा अस्या दिक् । मै ३,७,१ ।
४२. इयँ (पृथिवी) वा अदितिर्देवी विश्वदेव्यवती । मै ३,१,८ ।
४३. इयं (पृथिवी) वाऽअदितिर्मही । माश ६,५,१,१०।।
४४. इयं (पृथिवी) वै देव्यदितिः (+ विश्वरूपी [तै १,७,६,७]) । जै १,५८; तै १,४,३,१ ।।
४५. इयं वै पृथिव्यदितिः सेयं देवानां पत्नी - माश ५,३,१,४ । माश १,१,४,५; २, २, १, १९: ३,३,१,४ ।।
*अदित्यास्त्वा मूर्धन्नाजिघर्मीतीयं वै पृथिव्यदितिः – माश ३,३,१,४
*(अथ कृष्णाजिनमादत्ते) - अदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्त्वितीयं वै पृथिव्यदितिः – माश १.१.४.५
*(अथादित्यै चरुं निर्वपति) - इयं वै पृथिव्यदितिः – माश २.२.१.१९
४६. इयं (पृथिवी) ह्यदितिः (°ह्येवादितिः [माश.J) । ऐ १,८; माश ३,२,३,६ ।
* प्रायणीयम् - आदित्य एव प्रायणीयो भवत्यादित्य उदयनीय इयं ह्येवादितिः - माश ३,२,३,६
४७. इयम् (+वा [मै.) (पृथिवी) अदितिः (+ अस्या वा एनेमेतद् गर्भं करोति |मै.J)। मै ४,४,९; काठ ८,१०; ११,८; २३, ८; ४७,१।।
४८. प्रायणीयम् - ऊर्द्वामेव दिशं अदित्या प्राजानन्नियं (पृथिवी) वाऽअदितिस्तस्मादस्यामूर्द्ध्वा ओषधयो जायन्तऽऊर्द्ध्वा वनस्पतयः । माश ३,२,३,१९ ।
४९. एवा न देव्यदितिरनर्वा। विश्वस्य भर्त्री जगतः प्रतिष्ठा । पुनर्वसू हविषा वर्धयन्ती । प्रियं देवानामप्येतु पाथः । तै ३,१, १,४।।
५०. पशुशीर्षकोपधानम् -- गां मा हिँसीरदितिं विराजम् । तैसं ४, २, १०, २।।
५१. गृध्रश्शितिकक्षी वार्ध्रीणस्तेऽदित्याः । काठ ४७,१० ।
५२. रत्नयागाः - तस्यै (अदित्यै) धेनुर्दक्षिणा धेनुरिव वा इयं (अदितिः = पृथिवी) मनुष्येभ्यः सर्वान् कामान् दुहे । माश ५,३,१,४।
५३. आरोहतं वरुण मित्र गर्तं ततश्चक्षाथामदितिं दितिं चेति ततः पश्यतँ स्वं चारणञ्चेत्येवैतदाह । माश ५,४,१,१५ (तु. तैसं १,८,१२,३) ।।
५४. तदभ्यनूक्ता । अष्टौ पुत्रासो अदितेर्ये जातास्तन्वं परिदेवाँ उपप्रैत् सप्तभिः परा मार्तण्डमास्यदिति । तां २४,१२,५-६ ।
५५. तस्या (अदित्याः = पृथिव्याः) इयमूर्द्ध्वा दिक् । काठ २३,८ ।।
५६. ते देवा अदितिम्(= पृथिवीम् )अब्रुवँस्त्वया मुखेनेमा दिशः प्रजानामेति । मै ३,७,१।।
५७. धेनुर्दक्षिणैतद्ध्यदित्या रूपम् । मै ४,३,८ ।
५८. सृष्टीष्टकाः -- नवभिरस्तुवत पितरोऽसृज्यन्तादितिरधिपत्न्यासीत् (°धिपतिरासीत् ।मै..) । तैसं ४,३,१०, १; मै २,८,६; काठ १७,५ ।।
५९. पुनर्वसुर्नक्षत्रमदितिर्देवता । मै २,१३,२०।।
६०. वसोर्धारा-- पृथिवी च मे अदितिश्च मे (यज्ञेन कल्पताम् ) । तैसं ४,७,९,१ ।
६१. पृथिव्यदितिः । काठ २४,४; २४.६; क ३७,५; ७ ।।
६२. अक्ष्णयास्तोमीयादीनामभिधानम् -- अदित्यै भागः असीति पश्चात् प्रतिष्ठा वा अदितिः प्रतिष्ठा पूषा, प्रतिष्ठा त्रिणवः । तैसं ५, ३, ४,४; काठ २१, १ ।
६३. मा गामनागामदितिं वधिष्ट । मै २,८,१५; तैआ ६,१२,१।।
६४. आयुष्कामेष्टिमन्त्राः -- मातेवास्मा अदिते शर्म यच्छ, (+ इयमदितिरस्यामेवैनं प्रतिष्ठापयति [काठ ११,८]) विश्वे देवा जरदष्टिर्यथाऽसत् । तैसं २,३,१०,३; मै २,३,४; काठ ३६,१५ ।
६५. यचिद्धि ते पुरुषत्रा यविष्ठाचित्तिभिश्चकृमा कच्चिदागः कृधी ष्वस्माँ अदितेरनागान् व्येनाँसि शिश्रथो विष्वगग्ने । काठ २,१५ ।
६६. यत् तदादत्त तददितिः । काठ ८,२ ।
६७. यत्स्विदादित्यः प्रायणीय आदित्य उदयनीयस्तदस्या (अदित्याः = वाचः) उभयतः शीर्षत्वम् । मै ३,७,५।
६८. उखा सम्भरणम् - अदितिष्टे बिलं गृभ्णात्विति वाग्वाऽअदितिः । माश ६,५, २,२० ।।
६९. विष्टम्भो दिवो, धरुणः पृथिव्या अस्येशानी जगतो विष्णुपत्नी । विश्वव्यचा इषयन्ती सुभूतिः शिवा नो अस्त्वदितिरुपस्थे । तैसं ४,४,१२,५ ।
७०, सर्वं वाऽअत्तीति तददितेरदितित्वम् । सर्वस्यात्ता भवति सर्वमस्यान्नं भवति - माश १०,६,५,५।
७१. सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसँ सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम् । दैवीं नावँ स्वरित्रामनागसमस्रवन्तीमारुहेम स्वस्तये । काठ २,३ ।
७२. सैक्षतोञ्शिष्टे (ओदनमदितिः) मेऽश्नत्या द्वौ द्वौ (पुत्रौ) जायेते । मै १,६,१२।
७३. सोर्ध्वा दिशं (अदितिः) प्राजानात् । कौ ७,६ ।
७४. वसूनां रातौ स्याम । रुद्राणामुर्व्यायां स्वादित्या अदितये स्यामानेहसः । माश १, ५,१,१७ ।