Atiraatra
अतिरात्र
टिप्पणी : देवा वा उक्थान्यभिजित्य रात्रिन्नाशक्नुवन् अभिजेतुं तेऽसुरान्रात्रिन्तमःप्रविष्टान्नानुव्यपश्य ँ स्तएतमनुष्टुप्शिरसं प्रगाथमपश्यन् विराजं ज्योतिस्तान् विराजा ज्योतिषानुपश्यन्तोऽनुष्टुभा वज्रेण रात्रेर्निराघ्नन्।१। यदेषोऽनुष्टुपशिराः प्रगाथो भवति विराडेव ज्योतिषानुपश्यन्ननुष्टुभा वज्रेण रात्रेर्भ्रातृव्यन्निर्हन्ति।२। तान् समन्तं पर्य्यायं प्राणुदन्त यत् पर्य्यायं प्राणुदन्त तत्पर्य्यायाणां पर्य्यायत्वं।३। प्रथमानि पदानि पुनरादीनि भवन्ति प्रथमस्य पर्य्यायस्य।४।प्रथमैर्हि पदैः पुनरादाय प्रथमरात्रात्प्राणुदन्त।५। पान्तमावो अन्धस इति प्रस्तौति।६।अहर्वै पान्तमन्धोरात्रिरह्नैव तद्रात्रिमारभन्ते।७। तासु वैतहव्यं।८। वीतहव्यः श्रायसो ज्योग्निरुद्ध एतत्सामापश्यत्सोऽवगच्छत्प्रत्यतिष्ठदवगच्छति प्रतितिष्ठत्येतेन तुष्टुवानः।९। तम इव वा एते प्रविशन्ति ये रात्रिमुपयन्ति यदोको निधन ँ रात्रेर्म्मुखे भवति प्रज्ञात्यै।१०। यदा वै पुरुषः स्वमोक आगच्छति सर्वन्तर्हि प्रजानाति सर्वमस्मै दिवा भवति।११। - ताण्ड्य ब्राह्मण ९.१.१
ताण्ड्य ब्राह्मण के उपरोक्त कथन का अभिप्राय यह है कि जब हम अज्ञान रूपी रात्रि से ग्रस्त होते हैं तो यह नहीं जान पाते कि हम अपने कर्तव्य में कहां-कहां त्रुटि कर रहे हैं। जैसे ही हमें ज्ञान रूपी दिन की कोई झलक मिलती है, हम तुरंत अपनी त्रुटियों को सुधारने की ओर अग्रसर होते हैं। कर्मकाण्ड में ज्ञान-अज्ञान या त्रुटि का मापन इस योग्यता से किया जाता है कि हम प्रकृति में जड पडे हुए सोम का अमृत सोम में विकास किस सीमा तक कर सकते हैं। ताण्ड्य ब्राह्मण ९.२.१९ में एक आख्यान आता है कि देवातिथि अरण्य में अपने पुत्र के साथ भूखा घूम रहा था। उसको उर्व्वारुक(ककडी) मिली। उसने अपने साम से उनकी उपासना की जिससे वह पृश्नि गौ में रूपान्तरित हो गई।
अतिरात्र की गणना सोम संस्था वाले ७ क्रतुओं के अन्तर्गत की जाती है। इनमें आरम्भ में अग्निष्टोम यज्ञ होता है। आश्वलायन श्रौत सूत्र ६.७.७ के भाष्य के अनुसार यदि अग्निष्टोम के तृतीय सवन में सोम का अतिरेक हो तो उक्थ्य क्रतु करे, यदि उक्थ्य क्रतु में सोम का अतिरेक हो तो षोडशी यज्ञ करे, यदि षोडशी में सोम का अतिरेक हो तो अतिरात्र करे, यदि अतिरात्र में सोम का अतिरेक हो तो अप्तोर्याम करे। यहां अतिरेक से तात्पर्य उस सोम से हो सकता है जिसका परिष्कार एक विधि-विशेष के अन्तर्गत संभव नहीं हो पाया है। उसके परिष्कार के लिए उच्चतर स्तर के परिष्करण की आवश्यकता है। अतिरात्र के सम्बन्ध में ब्राह्मण ग्रन्थों में अग्निष्टोम, उक्थ्य व षोडशी का उल्लेख प्रायः आता है, अतः इनको अच्छी प्रकार समझने की आवश्यकता है। जैमिनीय ब्राह्मण २.१२१ के अनुसार अग्निष्टोम यज्ञ आदित्यों की त्वरित गति वाली साधना है जबकि उक्थ्य यज्ञ अंगिरसों की क्रमिक, मन्दगति वाली साधना है। आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १४.१.१ के अनुसार पशु की कामना के लिए उक्थ्य, वीर्यकामना के लिए षोडशी, प्रजा या पशु की कामना के लिए अतिरात्र का तथा सब कामों की प्राप्ति के लिए अप्तोर्याम अतिरात्र का अनुष्ठान करे। मैत्रायण्युपनिषद ६.३६ के अनुसार अग्निहोत्र से स्वर्ग पर जय प्राप्त होती है, अग्निष्टोम से यमराज्य पर, उक्थ्य से सोमराज्य पर, षोडशी से सूर्य राज्य पर, अतिरात्र से स्वाराज्य पर तथा सहस्र संवत्सरान्त क्रतु से प्राजापत्य राज्य पर। तैत्तिरीय संहिता १.६.९.१ के अनुसार अतिरात्र अमावास्या, चेतना के असीमित विस्तार(मा—मापन योग्य, अमा—अमापनीय) की भांति है। पौराणिक वर्णन के अनुसार अमावास्या को चन्द्रमा आकाश से ओझल हो जाता है। उसकी १५ कलाएं तो नष्ट हो जाती हैं। जो १६वीं अमृत कला है, वह पृथिवी पर आकर ओषधि-वनस्पतियों में प्रवेश कर जाती है। अमावास्या के पश्चात् चन्द्रमा की वृद्धि इसी १६वीं कला द्वारा होती है। आश्वलायन श्रौत सूत्र ६.११.१४ में अतिरात्र को अद्य कहा गया है। गोपथ ब्राह्मण २.१.१२ में अमावास्या को सरस्वती व पूर्णिमा को सरस्वान कहा गया है। ऋग्वेद ७.१०३.७ में अतिरात्र में सोम से पूर्ण सरोवर के निकट बोलने वाले ब्राह्मणों की तुलना मण्डूकों से की गई है। ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से अतिरात्र की देवता सरस्वती या वाक् को कहा गया है(उदाहरण के लिए, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १२.१८.१३, शतपथ ब्राह्मण ४.२.५.१४; तुलनीय : पद्म पुराण ३.२७.४२ में सरस्वती-अरुणा संगम में स्नान से अतिरात्र फल की प्राप्ति)। साथ ही अग्निष्टोम के देवता अग्नि, उक्थ्य के देवता इन्द्राग्नि तथा षोडशी के देवता इन्द्र का उल्लेख आता है। कात्यायन श्रौत सूत्र ९.३.१६ के अनुसार षोडशी ललाट जैसे है जबकि अतिरात्र छत की भांति। जैमिनीय ब्राह्मण २.२०४ में अतिरात्र को शिर पर केश की भांति कहा गया है। जैमिनीय ब्राह्मण २.१९० के अनुसार अग्निष्टोम ऐसे हैं जैसे महावृक्ष पर चढ कर अवरोहण करने का उपाय पता न हो। अतिरात्र इस महावृक्ष से अवरोहण का उपाय है।
जैसा कि उक्थ की टिप्पणी में कहा जा चुका है, उक्थ्य से तात्पर्य उन प्राणों से हो सकता है जो सोए हुए हैं और जिन्हें विशेष प्रयास द्वारा जगाने की आवश्यकता होती है । उक्थ्य से पूर्व यज्ञ के कृत्य जाग्रत प्राणों से सम्बन्ध रखते हैं । जब उक्थ्य स्तोत्रों द्वारा प्राण रूप पशु जाग जाते हैं तो उनको नियन्त्रित करने के लिए षोडशी स्तोत्र रूपी वज्र की आवश्यकता होती है ( जैमिनीय ब्राह्मण २.३६४) । कहा गया है कि षोडशी वज्र द्वारा पशुओं से अन्नाद्य प्राप्त किया जाता है । ताण्ड्य ब्राह्मण १९.६.१ आदि का कथन है कि पशु षोडशकलाओं से युक्त होते हैं । उक्थ षोडशिमान् होता है । षोडशी रूपी वज्र से पशुओं का परिग्रहण किया जाता है जिससे वह भाग न जाएं । इस संदर्भ से ऐसा भी प्रतीत होता है कि उक्थ्य व षोडशी से केवल ग्राम्य पशुओं का परिग्रहण संभव हो पाता है, आरण्यक पशुओं का नहीं । आरण्यक पशुओं के परिग्रहण के लिए षोडशी से अगले चरण अतिरात्र की आवश्यकता होती है । यह उल्लेखनीय है कि सोमयाग के तीन सवनों द्वारा भी पशुओं को प्राप्त किया जाता है । उदाहरण के लिए, प्रातः सवन द्वारा आग्नेय पशुओं पर आधिपत्य प्राप्त किया जाता है । उक्थ्यों द्वारा ऐन्द्राग्न प्रकृति के पशुओं पर आधिपत्य प्राप्त करने का उल्लेख है( तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.४.१) तथा षोडशी द्वारा ऐन्द्र प्रकृति के पशुओं पर ।
अतिरात्र का अन्य मुख्य वर्णन ब्राह्मण ग्रन्थों में संवत्सर रूप वाले यज्ञों में मिलता है। षड्विंश ब्राह्मण ५.२.१ के अनुसार सहस्र संवत्सर सत्र का लघु रूप २४ दिनों वाले गवामयन सत्र(संवत्सर के २४ पक्षों का प्रतीक) में होता है, गवामयन का लघु रूप १२ दिनों वाला द्वादशाह यज्ञ(१२ मासों का प्रतीक) होता है, द्वादशाह का लघु रूप अतिरात्र, अतिरात्र का षोडशी, षोडशी का उक्थ्य, उक्थ्य का अग्निष्टोम, अग्निष्टोम का इष्टि पशुबन्ध तथा इष्टि-पशुबन्ध का अग्निहोत्र होता है। इन यज्ञों में से मुख्य रूप से गवामयन(?)तथा द्वादशाह के दिवसों में प्रथम और अन्तिम दिन अतिरात्र का होता है, इन २ दिनों के बीच अग्निष्टोम के २ दिन होते हैं तथा उनके बीच उक्थ्य आदि होते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में पुनः-पुनः यह कहा गया है(उदाहरण के लिए, जैमिनीय ब्राह्मण २.४५) कि द्वादशाह आदि क्रतुओं में प्रथम दिन का अतिरात्र प्रायणीय तथा अन्तिम दिन का उदयनीय होता है। प्रायणीय अतिरात्र मनुष्य के पादों जैसा है(शतपथ ब्राह्मण १२.१.४.१)। जैमिनीय ब्राह्मण ३.१७५ के अनुसार प्रायणीय अतिरात्र रथवत् है। इस प्रायणीय अतिरात्र में अग्नि ऊर्ध्व दिशा में प्रयाण या गमन करता है और ज्योति का रूप धारण करता है। यह संवत्सर के १३वें मास जैसा है(जैमिनीय ब्राह्मण ३.३८६)। दूसरी ओर, उदयनीय अतिरात्र मनुष्य के हस्त जैसा है। यह १३वें अतिरिक्त मास के पश्चात्(२४ पक्षों वाले?)संवत्सर के प्रकट होने जैसा है। प्रायणीय अवरोधन है जबकि उदयनीय उद्रोधन है(ऐतरेय ब्राह्मण ४.१४)। प्रायणीय अतिरात्र प्राण है, जबकि उदयनीय अपान अथवा उदान(ऐतरेय ब्राह्मण ४.१४, जैमिनीय ब्राह्मण ३.३१९, तैत्तिरीय संहिता ७.५.१.३ आदि)। एक सूर्य है तो दूसरा चन्द्रमा। तैत्तिरीय संहिता ७.५.१.३ के अनुसार जो पूर्व अतिरात्र है, वह मन जैसे है, जो उत्तर अतिरात्र है, वह वाक् जैसे है। यह वाक् किस प्रकार की है, यह मत्स्य पुराण में अश्वमेध के अन्तर्गत अतिरात्र में दर-दुन्दुभि राजा के उल्लेख से समझी जा सकती है। जैमिनीय ब्राह्मण ३.३१९ के अनुसार श्रोत्र से ऊपर का भाग उत्तर अतिरात्र है। ब्रह्माण्ड आदि पुराणों में अश्वमेध के अन्तर्गत अतिरात्र में हिरण्यकशिपु के जन्म की व्याख्या निम्नलिखित प्रकार से की जा सकती है। तैत्तिरीय संहिता ६.१.७.५ आदि का कथन है कि अदिति प्रायणीय है, अदिति उदयनीय है। यह दो शीर्षों वाली है। जब अदिति का रूप प्रायणीय होगा तो पृथिवी पर स्थित होकर जो कुछ उपलब्धि की जा सकती है, जैसे ५ दिशाओं पर विजय, ओषधि, वनस्पतियों पर विजय, चेतना को असीमित बनाना आदि, वह सब करने से अदिति/अखण्डित शक्ति का रूप प्राप्त होगा। जब अदिति का रूप उदयनीय होगा तो अदिति का कार्य आदित्य रूपी पुत्र को जन्म देना होगा। ब्रह्माण्ड पुराण आदि में अदिति के स्थान पर कश्यप व दिति/खण्डित शक्ति के यज्ञ का उल्लेख है। ऐसी स्थिति में हिरण्यकशिपु के जन्म की अपेक्षा की जा सकती है। पुराणों का यह सार्वत्रिक उल्लेख ब्राह्मण ग्रन्थों में अश्वमेध के वर्णन के अन्य किस पक्ष की व्याख्या प्रस्तुत करता है, यह अन्वेषणीय है। शतपथ ब्राह्मण १३.५.४.४ में अश्वमेध के अन्तर्गत अभिजित् अतिरात्र, विश्वजित अतिरात्र, महाव्रत अतिरात्र व अप्तोर्याम अतिरात्रों के नाम आए हैं जिनका अलग-अलग नाम वाले राजा सम्पादन करते हैं। अश्वमेध के संदर्भ में अतिरात्र को प्रायः सर्वस्तोम अतिरात्र कहा जाता है, अर्थात् अग्निष्टोम आदि से तो विशेष-विशेष फल की प्राप्तियां होती हैं, जबकि सर्वस्तोम अतिरात्र से इन सभी फलों की प्राप्ति हो जाती है। जैमिनीय ब्राह्मण २.२७५ में पंचदश अतिरात्र को क्षत्रिय से सम्बन्धित अतिरात्र कहा गया है। जैमिनीय ब्राह्मण २.२८० में सप्तदश अतिरात्र को प्रजापति का अश्वमेध तथा एकविंश अतिरात्र को आदित्य का अश्वमेध कहा गया है। प्रजापति पिता हैं, आदित्य पुत्र है।
ऐतरेय ब्राह्मण ४.२३ व जैमिनीय ब्राह्मण ३.९ में द्वादशाह की कल्पना एक ज्योतिष्पक्षा गायत्री पक्षिणी के रूप में की गई है जो उडकर स्वर्ग से सोम लाती है। द्वादशाह के दो अतिरात्र इसके २ पक्ष हैं, इन दो दिनों के अन्दर अग्निष्टोमों के २ दिन इसके २ चक्षु हैं, जो आठ मध्य दिन हैं, वह उक्थ्य या आत्मा है, वह गायत्री है। तैत्तिरीय संहिता ७.२.९.३ में अतिरात्र-द्वय को यज्ञ के चक्षु-द्वय तथा अग्निष्टोम-द्वय को चक्षुओं के अन्दर कनीनिका-द्वय कहा गया है।
पद्म पुराण में पारिप्लव आदि तीर्थों में गमन मात्र से अतिरात्र यज्ञ के फल की प्राप्ति के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १२.२.१.१ तथा जैमिनीय ब्राह्मण २.३१५ आदि में अतिरात्र की कल्पना एक तीर्थ के रूप में की गई है जिसके द्वारा समुद्र को पार करते हैं/समुद्र में स्नान करते हैं।
जैमिनीय ब्राह्मण २.३६३ में ६ पापों और उनके नाश के लिए ६ अतिरात्रों की कल्पना की गई है। ६ पापों के अन्तर्गत स्वप्न, तन्द्रा, मन्यु, अशना, अक्षकाम्या और स्त्रीकाम्या की गणना की गई है।
प्रथम लेखन – १९९३ई., संशोधन २६-३-२०१२ई.(चैत्र शुक्ल चतुर्थी, विक्रम संवत् २०६९)
संदर्भ
*ब्रा॒ह्म॒णासो॑ अतिरा॒त्रे न सोमे॒ सरो॒ न पू॒र्णम॒भितो॒ वद॑न्तः। सं॒व॒त्स॒रस्य॒ तदहः॒ परि॑ ष्ठ॒ यन्म॑ण्डूका प्रावृ॒षीणं॑ ब॒भूव॑॥ - ऋ. ७.१०३.७
*दे॒वाः पि॒तरो॑ मनुष्या गन्धर्वाप्स॒रस॑श्च॒ ये। ते त्वा॒ सर्वे॑ गोप्स्यन्ति॒ साति॑रा॒त्रमति॑ द्रव॥ - अथर्ववेद १०.९.९
*स य ए॒वं वि॒द्वान्त्स॒र्पिरु॑प॒सिच्यो॑प॒हर॑ति। याव॑दतिरा॒त्रेणे॒ष्ट्वा सुस॑मृद्धेनावरु॒न्धे ताव॑देने॒नाव॑ रुन्द्धे। स य ए॒वं वि॒द्वान् मधू॑प॒सिच्यो॑प॒हर॑ति। - - - - अथर्ववेद ९.९.५
*याव॑ती पौर्णमा॒सी तावा॑नु॒क्थ्यो॑ याव॑त्यमावा॒स्या॑ तावा॑नतिरा॒त्रो – तै.सं. १.६.९.१
*अश्वमेधगतमन्त्रकथनम्-- आ माऽग्निष्टोमो विशतूक्थ्यश्चातिरात्रो माऽऽविशत्वापिशर्वरः (अपिशर्वरः--पठितव्यानि स्तोत्राणि यस्या -- सायणाचार्य)। - तै.सं. ७.३.१३.१
*रराट्यालम्भनं वा षोडशिनि, छदिरतिरात्रे – कात्यायन श्रौत सूत्र ९.३.१६
*अद्येत्यतिरात्रे – आश्व.श्रौ.सू. ६.११.१४
*अतिरात्रं कुर्वाणेषु द्विरात्रं। द्विरात्रं कुर्वाणेषु त्रिरात्रं। - शांखायन श्रौत सूत्र १३.५.१९
*ऐन्द्राग्नमुक्थे। ऐन्द्रं षोडशिनि। सारस्वतमतिरात्रे। - आप. श्रौ.सू. १२.१८.१३
*उक्थ्यः षोडशी अतिरात्रो ऽप्तोर्यामश्चाग्निष्टोमस्य गुणविकाराः। उक्थ्येन पशुकामो यजेत, षोडशिना वीर्यकामः, अतिरात्रेण प्रजाकामः पशुकामो वा। अप्तोर्यामेण अतिरात्रेण सर्वान् कामानवाप्नोति। तेषाँ अग्निष्टोमवत्कल्पः। - आप. श्रौ.सू. १४.१.१
*अतिरात्रे पशुकामस्य। अतिरात्रे ब्रह्मवर्चसकामस्य। - आप.श्रौ.सू. १४.२.९
*अग्निष्टोमेन वै देवा इमं लोकमभ्यजयन्नन्तरिक्षमुख्थेनातिरात्रेणामुन्त इमं लोकं पुनरभ्यकामयन्त त इहेत्यस्मिन् लोके प्रत्यतिष्ठन् यदेत्साम भवति प्रतिष्ठित्यै। - तां.ब्रा. ९.२.९
*यदीतरोऽग्निष्टोमः स्यादुक्थः कार्य्यो यद्युक्थोऽतिरात्रो यो वै भूयान्यज्ञक्रतुः स इन्द्रस्य प्रियो भूयसैवैषां यज्ञक्रतुनेन्द्रं वृङ्क्ते। - तां.ब्रा. ९.७.१५
*उक्थानि वा एष निकामयमानोऽभ्यतिरिच्यते योऽग्निष्टोमादतिरिच्यते यद्युक्थेभ्योऽतिरिच्येतातिरात्रः कार्य्यो रात्रिं वा एष निकामयमानोऽभ्यतिरिच्यते य उक्थेभ्योऽतिरिच्यते यदि रात्रेरतिरिच्येत विष्णोः शिपिविष्टवतीषु बृहता स्तुयुरेष तु वा अतिरिच्यत इत्याहुर्यो रात्रेरतिरिच्यत इति।११। अमुं वा एष लोकं निकामयमानोऽभ्यतिरिच्यते यो रात्रेरतिरिच्यते बृहता स्तुवन्ति बृहदमुं लोकमाप्तमर्हति तमेवाप्नोति।१२। - तां.ब्रा. ९.७.११
अतिरात्र (यज्ञः)
१. अतिरात्रात् साकमेधान् यज्ञक्रतुं निर्मायेन्द्रो वृत्रमहन् । मै १, १०, ५; काठ ३५, २०; क ४८, १८ ।
२. अतिरात्रेणामुम् (द्युलोकमभ्यजयन् देवाः) । तां ९.२.९ ।
३. एष ह वा उभयतो ज्योतिर्यज्ञक्रतुर्यदतिरात्रः । जै १.२३ २ ।
४. चक्षुषी अतिरात्रौ । तां १०.४.२ ।
५. तस्य (संवत्सररूपिणः समुद्रस्य) एतत् पारं यदतिरात्रौ । तैसं ७,५,१,३ ।
६. प्रतिष्ठा वाऽअतिरात्रः । माश ५.५.३.५ ।
७. प्राणो वै पूर्वोऽतिरात्रोऽपान उत्तर इयं (पृथिवी) वै पूर्वोऽतिरात्रोऽसा (द्यौः) उत्तरः । काठ ३४.८ ।
८. भूतं वै पूर्वोऽतिरात्रो भव्यमुत्तरः । काठ ३४.८ ।
९. भूतं पूर्व्वोऽतिरात्रो भविष्यदुत्तरः पृथिवी पूर्व्वोऽतिरात्रो द्यौरुत्तरोऽग्निः पूर्वोऽतिरात्र आदित्य उत्तरः प्राणः पूर्वोऽतिरात्र उदान उत्तरः । तां १०.४.१ ।
१०. ये देवयाना पन्थानस्तेष्वतिरात्रेण (प्रतितिष्ठति) । काठ १४.९ ।
११. वाचमतिरात्रेण (स्पृणोति) । काठ १४,९ ।
१२. संवत्सरस्य वा एतौ दंष्ट्रौ यदतिरात्रौ तयोर्न स्वप्तव्यं संवत्सरस्य दंष्ट्रयोरात्मानन्नेदपिदधा- नीति । तां १०.४.३ ।
१३. स कृत्स्नो विश्वजिद्योऽतिरात्रः । कौ २५,१४ ।
१४. सारस्वती मेष्यतिरात्र आलभ्या । मै ३.९.५ ।
१५. सोऽतिरात्रेणाऽऽदित्यानयाजयत् (प्रजापतिः) तेऽमुं(द्यु-)लोकमजयन् । तैसं ७, १,५, ३ ।
१६. स्वर्( स्वाराज्यम् (मै.). अतिरात्रेण (अभिजयति) । मै. १.८.६., तै ३,१२.५.७ ।
१७. चक्षुषी वा एते यज्ञस्य यदतिरात्रौ, कनीनिके अग्निष्टोमः इति। तै.ंसं. ७.२.९.१, काठ.सं. ३७.८ ।
रात्रि त्री-
१ अथास्या (शचिष्ठायाः) एतत् पृश्निशबलं ( सत्यानृतमयमुभयविधमिश्रितम्) पदं यद्रात्रिः । जै २,२५९ ।
रे. अनुवाऽसि रात्रियै त्वा रात्रिं जिन्व । तैसं ४,४, १, १ ।
३ अनुवेति रात्रिम् (असृजत) । तैसं ५,३, ६.१ ।
४. अहर्वै पूर्वाह्णो रात्रिरपराह्णः । जै. २,९८ ।
५. अहर्वै स्तोत्रियो रात्रिरनुरूपः । जै ३,२१ ।
६ आनुष्टुभी ( वै [काठ., ऐ.) रात्रिः ( ०त्री [काठ.।) । मै ३, ९.५. काठ ६, ८; ऐ ४.६ । ७. आनुष्टुभेन च्छन्दसा रात्रीमुपदधे । काठ ३८,१२ ।
८. इय चं रात्रिः सर्वेषां भूतानां प्राणैरप प्रसर्पति चोत्सर्पति च । तैआ १, १४, ४ ।
९ ऋतं रात्रिः । सत्यं तदहः । जै ३, ३७३ ।
१०. एष रात्रिया ( वर्णः) यत् कृष्णम् । तैसं ६, १, ३,२ ।
११. एषा वा अग्निष्टोमस्य सम्मा यद् रात्रिः. .. एषा वा उक्थस्य सम्मा यद् रात्रिः । .. एषा वा अग्निष्टोमस्य च संवत्सरस्य सम्मा यद् रात्रिः.. एषा वै ब्रह्मस्य विष्टपं यद् रात्रिः । जै १ .२०६ ।
१२. क्षेमो रात्रिः । माश १३, १, ४,३ ।
१३. चतुर्विशति रात्र्या (रात्रिपर्यायस्य) उक्थामदानि । जै. १, २१२ ।
१४ छन्नेवाह्वो रात्रिः । छन्ना वै रात्रिः । जै १, ३४० ।
१५. तम इव हि रात्रिर्मृत्युरिव । ऐ ४,५ ।
१६. तमः पाप्मा रात्रिः । कौ १७,६, १७.९, गो २,५, ३ ।
१७. तमो रात्रिः । तैसं १,५,९,५ ।
१८. द्वादशस्तोत्राणि रात्रिः । तां ९,१.२३-२४ ।
१९. नास्य नक्तं रक्षांसीशते य एवं वेद । काठ ७,१० ।
२०. मृत्योस्तम इव हि रात्रिः । गो २,५,१ ।
२१ यजमानदेवत्यं वा अहः । भ्रातृव्यदेवत्या रात्रिः । तै २, २,६, ४ ।
२२. यदरात्समिति ता रात्रयः । जै. ३,३८० ।
२३. या (अपः) नक्तं गृह्णाति या आद्याः प्रजास्तासामेता (आपः) योनिः । मै ४,५.१ । २४. रातं वा अस्मा अभूदिति सो एव रात्रिरभवत् । जै ३,३५७ ।
२५ रात्रिरिव प्रियो भूयासम् । ऐआ ५,१, १ ।
२६. रात्रिरेव श्रीः श्रियां हैतद्रात्र्यां सर्वाणि भूतानि संवसन्ति । माश १० २.६. १६ । २७. रात्रिर्वरुणः । ऐ ४,१०; जै १,३१२; तां २५, १०,१० ।
२८. रात्रिर्वात्सप्रम् (सूक्तम्) । माश ६,७,४.१२ ।
२९. रात्रिर्वै व्युष्टिः । माश १३, २, १, ६ ।
३०. रात्रिर्वै संयच्छन्दः । माश ८.५..२.५ ।
३१ रात्रिः सावित्री । गो १, १, ३३ ।
३२ रात्रीं पीवसा (प्रीणामि) । काठ ५३, १० ।
३३. रात्र्या (पर्यायेण) त्वाव सर्वमवरुन्द्धे । जै १, २०७ ।
३४ वारुणी रात्रिः । तैसं २, १, ७, ३; मै १, ८,८; तै १, ७,१०.१ ।
३५. शर्वरी वै नाम रात्रिः । जै १,२०९ ।
३६. सगरा रात्रिः । माश १.१७.२.२६ ।
३७. स दर्भेण रजतं हिरण्यं प्रबध्य पुरस्ताद्धरेत् । तच्चन्द्रमसो रूपं क्रियते । रात्रेर्वा एतद्रूपम् । जै १, ६३ (तु. माश १२.४.४, ७) ।
३८. सोमो रात्रिः । माश ३.४.४, १५ ।।
२. अहरेव दर्शोऽहरु हीदं ददृश इव, रात्रिरेव पूर्णमा, रात्र्या हीदं सर्वं पूर्णम् । काश ३.२.९, १ ।
८. अहर्मे पिता रात्रिर्माता । जै १,५० ।
९. अहर्वै ऋतं रात्रिः सत्यम् । मै ३,१,६ ।
१३ अहर्वै वत्सो ( श्वेतः) रात्रिर्माता ( कृष्णा धेनुः) । मे ३,३,९ ।
१५. अहर्वै शबलो रात्रिः श्यामः । कौ २,९, जै १,६ । १६. अहर्वै सुवर्णं रात्री रजतम् । जै २,९८ ।
२१ अह्नो वै रूपं धाना रात्र्यास्तण्डुलाः । काठ ११, २ ।
२५ एतद्वा अह्नो रूपं यच्छुक्लम् (यद्रात्रिः (तै.सं,) । तैसं ३३.४, १; मै. २,५,७ ।
२८. क्षेपीयसी ह खलु रात्रिरह्नः । जे १, १८९ ।
३४ ब्रह्मणो वै रूपमहः क्षत्रस्य रात्रिः । तै ३, ९, १४. ३ ।
४२ व्यञ्जनैरेव रात्रीराप्नुवन्ति स्वरैरहानि । ऐआ २,२,४ ।
४५. सामभिर्वा अहान्यभिष्टुतान्यृग्भी रात्रयः । जै २,३७ ।
४६. अग्निर्वै रात्रिरसा आदित्योऽहः। - मै. १.५.९
४७. अग्नी रात्र्यसा आदित्योऽहः – काठ. ७.६
४८ अन्धो रात्रिः (अच्छेतः सोमः(काठ.) काठ. .३४.१०, तां ९.१.७
४९. चन्द्रमसेऽपराह्णे तस्मिञ्छतमानं हिरण्यं ददाति रजतम् . .. .रात्रिरपराह्णः – जै. २.९८
५०. अहरेव प्राणो रात्रिरपानः – ऐ.आ. २.१.५
५१. अहर्वै देवानामासीद्रात्र्यसुराणाम् – काठ ७.६, क ५.५( तु. तै.सं. १.५.९.२)
५२. रात्र्या असुरान् (असृजत) ते कृष्णा अभवन्। काठ. ९.११
५३. असुर्या (०र्यो (मै. .3.६.६) वै रात्रिः (वर्णेन शुक्रियमहः(काठ.) – मै. १.८.६, ३.६.६, काठ. ८.३
५३. आग्नेयी (वै(तै.)) रात्रिः (ऐन्द्रमहः(काठ., क.) तै.सं. १.५.९.३, काठ. ८.३, क. ६.८, तै.१.१.४.२, १.५.३.४, २.१.२.७ (तु. जै.१.१८८, तै. १.१.४.३)
५४. रात्रेर्वत्सः श्वेत आदित्यः – तै.आ. १.१०.५
५५. त्रीणि षष्टिशतान्यूष्मणां यानूष्मणो ऽवोचाम, रात्रयस्ता- - ऐ.आ. ३.२.२
ऋत- २२ कृष्णा- ९, १ ७; २१; केश- २; क्षपा- चित्रावसु- २; छन्दस्- ८०; दिव्- ८५; पशु- २८९; पान्त- २; पिपासा-; पिशङ्गिला- २ , पुंस्- ६; पूर्वपक्ष- २; प्राजापत्य- १२; प्रायणीय- १; भ्रातृव्य- भाजिन्-; रजत- १; रथन्तर- ४; ३४; राथन्तरी- द्र. ।
येतपक ग्राम(निकट भद्राचलम्, हैदराबाद, आन्ध्रप्रदेश) में २१-४-२०१२ई. से २-५-२०१२ई. तक सम्पन्न होने जा रहे अतिरात्र यज्ञ का कार्यक्रम(यह आयोजन जैमिनीय परम्परा के अनुसार है) :
प्रथम दिवस २१-४-२०१२, शनिवार, वैशाख अमावास्या, विक्रम संवत् २०६९)
दण्डनिर्णय
उखा सम्भरण ८-१० प्रातः
वायव्य पशु इष्टि १०प्रातः—४.०सायं
अतिरात्र का संकल्प
रक्षा पुरुष वरणम्
ऋत्विक् वरणम् ४.०सायं – ५.३०सायं
शाला प्रवेशम्
अग्निमन्थनम् ५.३०सायं
अग्निविहरणम्
कूष्माण्ड होमम् ६.०सायं—६.४५सायं
भक्षणम् – अप्सु दीक्षा ७.३०सायं-८.०सायं
उखा में अग्नि निर्माण १०सायं—११.१५सायं
यजमान दीक्षा
प्रैषार्थम् २५ मिनट लगेंगे
व्रतपानम् १५ मिनट लगेंगे
द्वितीय दिवस: २२-४-२०१२, वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, विक्रम संवत् २०६९
व्रतदोहम्
वात्सप्र उपस्थानम्(उखाग्नि की पूजा) ७.०प्रातः से १५मिनट
सनि ग्रहम्(यज्ञ हेतु धन याचना)- प्रवर्ग्य संभारम् ७.३०-९.०प्रातः
(प्रवर्ग्य उपकरणों का निर्माण)
व्रतपानम् ६.०-६.१५सायं
तृतीय दिवस : २३-४-२०१२, वैशाख शुक्ल द्वितीया, विक्रम संवत् २०६९
व्रतदोहम् ६.३०प्रातः
विष्णुक्रमणम् व वात्सप्र उपस्थानम् ६.४५—७.१५ प्रातः
यूप सम्पादनम् ७.१५-८.००प्रातः
देवयजनाध्यवसानम् १०मिनट
आकृतिफल संकल्पम् १० मिनट
आह. वेदीकरणम् –चितिस्थानकरणम् ४५ मिनट
व्रतपानम्
व्रतदोहम् तथा व्रतपानम् सायं १५ मिनट
चतुर्थ दिवस : २४-४-२०१२, मंगलवार, वैशाख शुक्ल तृतीया, विक्रम संवत् २०६९
प्रैष ३.०प्रातः पर
गार्हपत्य चितिकरणम् ५.३०प्रातः-
प्रायणीय इष्टि ७.०-७.३०प्रातः
पदम्—सोमक्रयम्
आतिथ्येष्टि ७.३०-९.०प्रातः
तानूनप्त्रम्—सोमाप्यायनम्—अवान्तर दीक्षा
प्रातः प्रवर्ग्यम् १०.०प्रातः से
उपसद १.०सायं तक
सुब्रह्मण्याह्वानम् – वेदीकरणम् १.०सायं से २.०सायं तक
अग्निक्षेत्रोपधानम् – प्रथम चिति २.०सायं से ४.०सायं
सायं प्रवर्ग्यम् ५.०सायं से २ घंटे
उपसद १ घंटा
सुब्रह्मण्याह्वानम्
पंचम दिवस : बुधवार, २५-४-२०१२, वैशाख शुक्ल चतुर्थी, विक्रम संवत् २०६९
प्रैषम् ६.३०प्रातः
प्रातः प्रवर्ग्यम्
उपसद-सुब्रह्मण्याह्वानम् १०प्रातः
द्वितीय चिति १०.०प्रातः से ढाई घण्टे तक
सायं प्रवर्ग्य ३.०सायं
उपसद-सुब्रह्मण्याह्वानम्
षष्ठम् दिवस : गुरुवार, २६-४-२०१२, वैशाख शुक्ल पंचमी, विक्रम संवत् २०६९
प्रातः प्रवर्ग्यम्
उपसद—सुब्रह्मण्याह्वानम्
तृतीय चिति १०.०प्रातः से ढाई घण्टे तक
सायं प्रवर्ग्यम् ३.०सायं
उपसद-सुब्रह्मण्याह्वानम्
व्रतपानम्
सप्तम दिवस : शुक्रवार, २७-४-२०१२, वैशाख शुक्ल षष्ठी, विक्रम संवत् २०६९
प्रातः प्रवर्ग्यम्
उपसद – सुब्रह्मण्याह्वानम्
चतुर्थ चिति १०.० प्रातः से ढाई घण्टे तक
सायं प्रवर्ग्य ३.० सायं
उपसद
अष्टम दिवस : शनिवार, २८-४-२०१२, वैशाख शुक्ल सप्तमी, विक्रम संवत् २०६९
प्रातः प्रवर्ग्यम् ५.४५ प्रातः
उपसद-सुब्रह्मण्याह्वानम्
पंचम चिति करणम् ९.० प्रातः से
साहस्रप्रोक्षणम् – इष्टका धेनुकरणम्
श्रीरुद्रम् धारा(क्षीर धारा) २.०सायं
मण्डूक मार्जनम् – सर्पाहुति-सामोपस्थानम् ३.०सायं तक
सायं प्रवर्ग्यम् ४.०सायं
उपसद-सुब्रह्मण्याह्वानम्
नवम दिवस : रविवार, २९-४-२०१२, वैशाख शुक्ल अष्टमी, विक्रम संवत् २०६९
अग्नीषोमीय अह
प्रातः प्रवर्ग्यम् ५.०प्रातः से
उपसद-सुब्रह्मण्याह्वानम् ८.१५ प्रातः तक
गन्धर्व आहुति ३० मिनट
चिति प्रोक्षणम्
आपाकछादनम्?
सायं प्रवर्ग्य ९.०प्रातः से
उपसद-सुब्रह्मण्याह्वानम्
घर्मोद्वासनम्(प्रवर्ग्य उपकरणों का निर्वासन) १२.०दोपहर से २.०सायं तक
अग्नि प्रणयनम् २.३० सायं से
पूर्णाहुति
वसोर्धारा
वाजप्रसवीयम्-राष्ट्रभृत ४.०सायं तक
हविर्धान करणम् ४.०सायं से
सदस
धिष्ण्य करणम्
अग्नीषोम प्रणयनम् ६.०सायं से
अग्नीषोमीय इष्टि
दीक्षाविसर्गम्
वपा होमम् ७.०सायं पर
वसतीवरी परिग्रहणम्
पशुपुरोडाशनिर्वपनम् – नानबीजम्?
पशुपुरोडाश होमम्
पशुहविस्(अवयवम्)
दशम दिवस : सोमवार, ३०-४-२०१२ई., वैशाख शुक्ल नवमी, विक्रम संवत् २०६९
प्रातः २.० बजे से आरम्भ, दिन-रात
प्रातरनुवाक तथा अन्य कृत्य
सोमाभिषवम्
प्रथम सोमाहुति(उपांशु होमम्)
प्रातस्सवनम्
सोमरस निष्पीडनम्
बहिष्पवमान स्तुति
ग्रह ग्रहणम्
सवनीय यागम्
स्तुति
शस्त्राः
सोमाहुतयः
प्रथम आज्य शस्त्रम्
प्रथम आज्य स्तुति
प्र उग शस्त्रम्
द्वितीय आज्य शस्त्रम्
द्वितीय आज्य स्तुति
तृतीय आज्य शस्त्रम्
तृतीय आज्य स्तुति
चतुर्थ आज्य शस्त्रम्
चतुर्थ आज्य स्तुति
माध्यन्दिन सवनम्
सोम निष्पीडनम्
माध्यन्दिन पवमान स्तुति
सवनीय पशुपुरोडाश होमम्
सवनीय पुरोडाश होमम्
दक्षिणा
मरुत्वतीय शस्त्रम्
यजमानस्य अभिषेकम्
बृहत् साम स्तुति
निष्केवल्य शस्त्रम्
वामदेव्य स्तुति
द्वितीय नैष्केवल्य शस्त्रम्
नौधस स्तुति
तृतीय निष्केवल्य शस्त्रम्
कालेय स्तुति
चतुर्थ निष्केवल्य शस्त्रम्
एकादश दिवस : मंगलवार, १-५-२०१२ई., वैशाख शुक्ल दशमी, विक्रम संवत् २०६९
दिन-रात
तृतीय सवनम्
सोम निष्पीडनम्
आर्भव पवमान स्तुति
हविर् होमम्
महावैश्वदेव शस्त्रम्
अग्नीषोम स्तुति
अग्निमारुत शस्त्रम्
उक्थ्य स्तुतयः
उक्थ्य शस्त्राः
षोडशी स्तुति(सूर्य के अर्ध अस्त के समय)
षोडशी शस्त्रम्
रात्रि पर्याय स्तुतयः
रात्रि पर्याय शस्त्राः
आश्विन् स्तुति
आश्विन् शस्त्रम्
द्वादश दिवस : बुधवार, २-५-२०१२ई. वैशाख शुक्ल एकादशी, विक्रम संवत् २०६९
आश्विन् शस्त्रावसानम्
अनुयाजम्
हारियोजनम्
अन्य कृत्य
अवभृथम्
उदयनीयेष्टि
मैत्रावरुणी
सक्तु रोमम्?
मैत्रावरुणी पशु इष्टि
शालादहनम्
उदवसानीय इष्टि
यज्ञ सम्पूर्ण
अतिरात्र यज्ञ के उपरोक्त कार्यक्रम में सुत्या दिवस में पहले अग्निष्टोम के तीन सवनों का सम्पादन किया जाता है, फिर अतिरात्र के तीन पर्यायों का। कहा गया है कि जैसे अग्निष्टोम के तीन सवन – प्रातःसवन, माध्यन्दिन सवन व तृतीयसवन होते हैं, ऐसे ही अतिरात्र के तीन सवनों का नाम प्रथम पर्याय, द्वितीय पर्याय व तृतीय पर्याय है। पर्याय से अर्थ पुनरावृत्ति से है।
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