पुराण विषय अनुक्रमणिका(अ-अनन्त) Purana Subject Index

Akrur

There are certain characteristc features of the life of Akrura which are very important. Wherever Akrura lives, it will definitely rain. The story of Akrura bringing Krishna from Gokula to Mathura on a chariot on behest of Kamsa has been placed between the stories of demon Arishtaasura and demon Keshi. This is with a specific purpose. The word meaning of Akrura is one who is not cruel. Arishta means who can not be harmed from any quarter. This state of Arishta can be attained if one can feel the divine rain within oneself. This rain satisfies all the progeny inside, gives a chance for development to whatsoever is trying to get evolved. These become immortal. This is the end of cruelty. Then next starts the stage of Akrura/non-cruelty( In puraanic texts, Akrura has been stated to be son of Vrishabha , one who rains).  This explains what is the secret of raining with the presence of  Akrura.

          In  somayaga, one is supposed to sacrifice animals. There, the animal is killed by blocking his nostrils. It is instructed that one should not call killing a killing. This way it will become a cruelty. One is supposed to say that it’s senses are being cleaned, are being widened. The killing of enemy in a battle is also a cruel act. As a repentance for this, one is supposed to get himself stood between cows and then donate cows (in the story of  Akrura, his mother has been shown as donating cows).

          One who is ordained in yaga ritual, he is supposed to keep a fire  kindled  24 hours in his house. It has been stated that this fire has to be made non – cruel. Then this fire becomes a horse. This horse is cruel. One has to convert this horse into a non – cruel one( compare : the story of horse - form demon Keshi after the story of Akrura in puraanic texts). When it has become non – cruel, one has to prepare an extract of it. This becomes a chariot on which one can travel. This may be the chariot of divine life. This may be taken as the chariot on which Akrura gets Krishna seated.

          There is a story in puraanic texts that a businessman who did not donate the fruit of awakening at night, instead he donated the fruit of dancing, he became Akrura in next birth. This story may indicate that constant awakening falls under the category of creating an unharmed state, while dancing may fall under the category of soothing the horse and converting the horse into a chariot.

 

अक्रूर

टिप्पणी : गोपथ ब्राह्मण १.२.१८, १.२.२० तथा वराह पुराण में अक्रूर तीर्थ के प्रसंगों से ज्ञात होता है कि अक्रूर का प्रसंग रात्रिकाल में सतत् जागरण से सम्बन्धित है । पुराणों में अक्रूर की व्रज यात्रा का प्रसंग अरिष्टासुर व केशी असुर वध प्रसंगों के बीच में आता है । अरिष्टासुर को समझने के लिए अरिष्ट पर टिप्पणी पठनीय है । संक्षेप में, पर्जन्य वर्षण से अरिष्टताति प्राप्त होती है । दिव्य रस की वृष्टि पाकर हमारी इन्द्रियां, जो हमारी प्रजा हैं, मृत्यु को प्राप्त नहीं होती, अरिष्ट व अहिंसित रहती हैं, रस पाने की आशा में हमारे नियन्त्रण में रहती हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.७.२ तथा पैप्पलाद संहिता ६.९.८ में इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि वह यजमान को एक ऐसा अक्रूर वृषभ बना दे जैसा सर्पि/घृत होता है जिससे वह इन्द्र की सहायता से सब शत्रुओं को जीत सके ( तुलनीय : पुराणों में अक्रूर - पिता वृषभ का उल्लेख तथा अक्रूर की उपस्थिति में वृष्टि होने का उल्लेख ) ।

          ब्राह्मण ग्रन्थों में उल्लेख आता है कि यज्ञों में जब पशु का सांस रोककर उसे मारते हैं तो यज्ञ में यह न कहे कि उसे मार रहे हैं । यह तो क्रूर कर्म हो जाएगा । अतः   कहा जाता है कि उसका संज्ञपन किया जा रहा है । संग्राम में अपने शत्रुओं का वध करना भी क्रूर कर्म में आता है ( शतपथ ब्राह्मण १.२.५.१९) । शतपथ ब्राह्मण ५.४.३.१२ में कहा गया है कि क्रूर कर्म के प्रायश्चत्त के रूप में अथवा अक्रूरत्व के लिए यजमान पहले स्वयं को गायों के बीच स्थित करता है और फिर बहुत सी गाएं दान करता है ( तुलनीय : पुराणों में अक्रूर - माता गान्दिनी द्वारा गाएं दान करने का उल्लेख ) ।

          याज्ञिक कर्मकाण्ड में यजमान को अपने घर में जीवन पर्यन्त सदैव एक अग्नि को प्रज्वलित रखना होता है जिसे आहिताग्नि कहते हैं । सतत् जागरण के लिए यह आवश्यक है कि शरीर की अग्नि रात्रि में निरंतर प्रज्वलित रहे । गोपथ ब्राह्मण १.२.१८ तथा १.२.२० के अनुसार इस वैश्वानर या जातवेदा अग्नि का भरण करने पर इसे अघोर व अक्रूर बनाना होता है । तब यह अग्नि एक अश्व बन जाती है । यह अश्व क्रूर होता है । इस अश्व को अक्रूर बनाने के लिए इसकी आथर्वण शान्ति नामक उपाय करना होता है( तुलनीय : पुराणों में कृष्ण द्वारा अश्व रूप धारी केशी असुर का वध ) । उस अश्व को निचोड कर उसका रस निकाला । वह रस ही रथ कहलाता है । उपरोक्त वर्णन के आधार पर प्रतीत होता है कि अग्नि और सोम, दोनों द्वारा अक्रूरता प्राप्ति के तथ्य का उल्लेख अक्रूर द्वारा कृष्ण को रथ पर बैठाकर मथुरा लाने की कथा में कर दिया गया है । वराह पुराण में सुधन वैश्य द्वारा ब्रह्मराक्षस को जागरण का पुण्य दान न देकर नृत्य के पुण्य दान से उद्धार करने के प्रसंग से प्रतीत होता है कि जागरण का कृत्य अरिष्टताति में आता है जबकि नृत्य का कार्य अश्व शान्ति में, अश्व को रथ बनाने के अन्तर्गत आता है ।

 

 
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