पुराण विषय अनुक्रमणिका(अ-अनन्त) Purana Subject Index

Agnihotra

 

 

 अग्निहोत्र

अग्निहोत्रः सर्वेषां यज्ञानां आधारः अस्ति। दर्शपूर्णमास, चातुर्मास, अग्निष्टोमादि यज्ञेषां संदर्भे अग्निहोत्रस्य किं वैशिष्ट्यं अस्ति। सर्वेषां यज्ञानां सृजनं संवत्सरोपरि आधृतः अस्ति। संवत्सर अर्थात् पृथिवी, सूर्य एवं चन्द्रमसः गतीनां परस्परयुग्मनम्(entanglement)।   वैदिकवाङ्मये पृथिवीतः वाचः सृज्यते, सूर्यतः प्राणः, चन्द्रमातः मनः। अग्निहोत्रस्य वैशिष्ट्यं  अस्ति यत् अत्र चन्द्रमसः अस्तित्वं नास्ति, केवलं पृथिव्याः  एवं सूर्यस्य अस्ति। चन्द्रमसः गत्याः यत्किंचित् युग्मनम् अस्ति, तत् पृथिवीसह एव अस्ति, न सूर्येण सह। अस्य कथनस्य किं प्रमाणमस्ति। जैमिनीयब्राह्मणानुसारेण, यदा अग्निहोत्रकर्मणि अरणिमन्थनं कृत्वा अग्निं सृजन्ति, तत्र यः धूमः भवति, तत् चन्द्रमसः रूपमस्ति। या अग्निहोत्री गौ भवति, तस्याः वत्सः मनसः प्रतीकमस्ति।

     जैमिनीय ब्राह्मणे १.७ कथनमस्ति यत् सायंकाले यदा सूर्यः अस्तमेति, तदा –

स वा एषो ऽस्तं यन् ब्राह्मणम् एव श्रद्धया प्रविशति पयसा पशूंस् तेजसाग्निम् ऊर्जौषधी रसेनापस् स्वधया वनस्पतीन्॥

प्रातःकाले अस्य सूर्यस्य उद्धारं करणीयं भवति। अत्र एवं कथितुं शक्यन्ते यत् वैदिकवाङ्मये सूर्यस्य उदयास्तकाले अग्निहोत्रस्य करणम् प्रतीकात्मकः एव अस्ति। प्रश्नं अस्ति, यदि केनापि प्रकारेण अस्मिन् देहे ये चक्षु, श्रोत्रादीनि सूर्यस्य प्रतीकानि इन्द्रियाणि सन्ति, तेषां यदि संवर्तनम् संभवं भवेत्, तर्हि अस्याः ऊर्जायाः अवशोषणं अथवा भण्डारणम् शरीरे केन रूपेण भविष्यति। कथनमस्ति यत् सूर्यः वनस्पतिषु स्वधा रूपेण प्रवेक्ष्यसि। स्वधा अर्थात् देहस्य ये आन्तरिकव्यापाराः सन्ति – श्वसनम्, व्याधितः रक्षणम् आदि, ते स्वधयोपरि आधृताः सन्ति। यदा वनस्पतीनां छेदनं कुर्वन्ति, तदा तासां पुनः अंकुरणं भवति। कारणं, तासु विशिष्टप्रकाराणां कोशिकानां(स्टेम सैल) बाहुल्यमस्ति येन कारणेन तेषां पुनः अंकुरणं भवति। ब्राह्मणस्य कथनानुसारेण सूर्यः वनस्पतिषु स्वधारूपेण प्रविशति एवं तस्य निर्गमनं समित् रूपे भवति। समित् अर्थात् समिति। यत्र सममित्याः न्यूनता नास्ति। ब्रह्माण्डादि पुराणेषु (१.१.५.६१) कथनमस्ति यत् ब्रह्मा अस्मिन् सृष्टौ कस्मिन् रूपेण प्रविशति – विपर्ययेण शक्त्या च बुद्ध्या सिद्ध्या तथैव च। स्थावरेषु विपर्यासस्तिर्यग्योनिषु शक्तितः। सिद्धात्मानो मनुष्यास्तु पुष्टिर्देवेषु कृत्स्नशः। जैमिनीयब्राह्मणस्य संक्षिप्तकथनं अतिप्राचीनं, अतिसंक्षिप्तमस्ति। इदानीं वयं परिचिताः स्मः यत् ब्रह्माण्डे एवं देहस्तरे अपि प्रक्रियाणां गतिः द्वेधा अस्ति – वैद्युतगतिः एवं  मन्द आयनीय गतिः। अतएव, ताण्ड्यब्राह्मणे कथनमस्ति यत् यज्ञायज्ञा वो अग्नये इति पदं अग्निहोत्रतः सम्बद्धमस्ति, तदा यज्ञायज्ञा शब्दतः अभिप्रायः आदित्यानां यागेन एवं अङ्गिरसां यागेन अस्ति। आदित्यानां यागः अद्यसुत्या अस्ति, अङ्गिरसां श्वसुत्या।

 

टिप्पणी : शुक्ल यजुर्वेद तृतीय काण्ड में अग्निहोत्र के मन्त्र हैं । शतपथ ब्राह्मण २.२.४, शांखायन ब्राह्मण २.१ व जैमिनीय ब्राह्मण १.१-१ १.६५ में अग्निहोत्र की व्याख्या है । इसके अतिरिक्त, लगभग प्रत्येक ब्राह्मण ग्रन्थ में अग्निहोत्र से सम्बन्धित उपयोगी वर्णन दिया गया है । अग्निहोत्र के संदर्भ में आहुति और इध्म की व्याख्या इन शब्दों की टिप्पणियों के अन्तर्गत की गई है जिनका पूर्व पठन अपेक्षित है ।

          लौकिक अग्निहोत्र कर्म में केवल एक ही अग्नि में आहुति दी जाती हुई देखी जाती है । लेकिन वैदिक अग्निहोत्र में गार्हपत्य अग्नि, दक्षिणाग्नि और आहवनीय अग्नि, इन तीन अग्नियों की स्थापना करनी होती है । इसके अतिरिक्त, आहवनीय के उत्तर व दक्षिण में आवसथ्य व सभ्य नामक अग्नियां होती हैं  । यदि किसी यजमान ने अपने गृह में आहिताग्नि की स्थापना कर ली है तो उसी से गार्हपत्य अग्नि को प्रज्वलित किया जाता है और गार्हपत्य अग्नि से आहवनीय अग्नि को । आहिताग्नि की अनुपस्थिति में अरणि और मन्थ उपकरणों द्वारा मन्थन करके अग्नि को प्रकट किया जाता है ।

          ब्राह्मण ग्रन्थों और कल्प सूत्रों में प्रायः प्रश्न उठाए गए हैं कि प्रातःकाल अग्निहोत्र कृत्य सूर्योदय से पूर्व किया जाना चाहिए या पश्चात् ? इसी प्रकार, सायंकाल अग्निहोत्र कृत्य सूर्यास्त के पूर्व किया जाना चाहिए या पश्चात् ? जैमिनीय ब्राह्मण ने इस प्रश्नावली को नया ही रूप दिया है । यहां कहा गया है कि अग्निहोत्र की दो आहुतियां एक ही स्थान पर, एक ही अग्नि में कभी न दे । आहुति देने से पूर्व गार्हपत्य अग्नि से आहवनीय अग्नि का उद्धार कर ले । यदि ऐसा न हो सके और प्रातःकाल आहुति देने से पूर्व सूर्योदय हो जाए तो दर्भ में रजत को बांध ले । रजत चन्द्रमा का रूप है । इस प्रकार परोक्ष रूप से रात्रि की कल्पना कर ली जाती है । इसी प्रकार सुवर्ण को बांध कर सूर्य की अथवा दिन की कल्पना कर ली जाती है । प्रश्न यह है कि ग्रन्थकार को ऐसा क्यों कहना पडा कि आहुति देने के लिए आहवनीय का गार्हपत्य से उद्धार करना आवश्यक है? इन दोनों के बीच में एक तीसरी अग्नि होती है जिसे दक्षिणाग्नि या अन्वाहार्यपचन अग्नि कहा जाता है । इसे व्यान कहा जाता है । यह अग्नि भोजन में रस उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी समझ जाती है । गार्हपत्य अग्नि की स्थिति में प्रकृति में द्यूत का प्राबल्य होता है जबकि अन्वाहार्यपचन अग्नि की स्थिति में द्वैध स्थिति होती है । द्यूत हो भी सकता है, नहीं भी । जहां प्राण और अपान की गतियां ऊर्ध्व और अधोमुखी दिशा में होती हैं, व्यान की गति तिर्यक् कही गई है । अतः जब जैमिनीय ब्राह्मणकार आहवनीय और गार्हपत्य अग्नियों के पृथक्करण की बात कहता है, तो उससे तात्पर्य अन्वाहार्यपचन अग्नि के जनन से हो सकता है । अथवा, सरल भाषा में ऐसा कहा जा सकता है कि वाक् द्वारा उच्च स्वर से जो आहुति दी जानी है, वह झूठी सूचनाएं (भी) देने वाली गार्हपत्य अग्नि में नहीं दी जा सकती । उसके लिए सत्य सूचनाएं देने वाली आहवनीय अग्नि की विद्यमानता आवश्यक है । आहवनीय अग्नि का गुण संवत्सर जैसा, विद्युत जैसा, द्युलोक जैसा कहा जाता है । जब तीर्थंकर महावीर प्रतीक्षा करते हैं कि उन्हें कोई विशिष्ट दृष्टि प्राप्त होगी, तभी वह भोजन करेंगे, इसे आहवनीय अग्नि का प्रकट होना कहा जा सकता है । यह कहा जा सकता है कि आहवनीय में वाक् द्वारा उच्च स्वर से आहुति देना और आहवनीय अग्नि का प्रकट होना, इन दोनों घटनाओं में कोई अन्तर नहीं है । आहवनीय अग्नि का चयन करके, उसकी एण्ट्रांपी में, अव्यवस्था में कमी करके उसे एक श्येन का रूप दिया जा सकता है जो स्वर्ग से सोम का हरण कर सकता है ।

           लौकिक रूप में अग्निहोत्र का कृत्य सम्पन्न करने में तो अग्निहोत्र में उपयोग किए जाने वाले प्रत्येक द्रव्य का संग्रह बाह्य रूप में कर लिया जाता है । लेकिन आध्यात्मिक अग्निहोत्र करते समय तो सभी द्रव्यों का संग्रह अपने अन्दर से ही करना होगा । अग्निहोत्र के लिए उपयोगी द्रव्यों में अग्निहोत्री धेनु, उसका वत्स, दोनों को बांधने की रस्सी, धेनु का दुग्ध आदि कहे जा सकते हैं । आहुति द्रव्य के संदर्भ में उल्लेख है कि पयः /दुग्ध की आहुति देनी चाहिए । यदि पयः न हो तो व्रीहि - यव की, यदि व्रीहि न हो तो आरण्यक धान्य की, आदि आदि ( जैमिनीय ब्राह्मण १.१९) । इस पयः की प्राप्ति किस गौ से होगी, कौन उसका वत्स बनेगा, कौन गौ का दोहन करेगा, पयः पकाने की विधि क्या होगी, यह वैदिक अग्निहोत्र के आधारभूत प्रश्न हैं । जैमिनीय ब्राह्मण १.१९ के अनुसार वाक् ही अग्निहोत्री/गौ है, मन उसका वत्स है । शतपथ ब्राह्मण ११.५.३.५ में उद्दालक ऋषि कहते हैं कि इडा ही उनकी मानवी अग्निहोत्री है, वायव्य वत्स है । पयः के बारे में ब्राह्मण ग्रन्थ केवल यह कह कर चुप हो जाते हैं कि यह अन्नाद्य, अन्नों में सर्वश्रेष्ठ है । लेकिन देवीभागवत पुराण में प्राणाग्निहोत्र के संदर्भ में उल्लेख है कि प्रणव ही पयः है । यही कारण है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में जहां भी अग्निहोत्र का वर्णन है, वहां पयः के श्रपण की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन भी विस्तार से किया गया है ( उदाहरण के लिए, ऐतरेय ब्राह्मण ५.२६) । पयः के प्रणव रूप का संकेत शतपथ ब्राह्मण १.५.२.२० आदि से मिलता है जहां वर्णन है कि ओ/ओम श्रावय से देवों ने विराज गौ का आह्वान किया, अस्तु श्रौषट् से वत्स के मुख में स्तनों को दिया, - - - - - वषट्कार से गौ को दुहा आदि । इसी स्थान पर यह भी वर्णन है कि योग में इस दुग्ध दोहन का क्या अर्थ है - पुरोवात उत्पन्न होती है, अभ्र/मेघ उत्पन्न होते हैं, विद्युत व स्तनयित्नु/गर्जन उत्पन्न होते हैं, वर्षा होती है ।

          जिस वाक् को धेनु कहा गया है, वह क्या है ? आहुति शब्द की टिप्पणी में स्पष्ट किया गया है कि अग्निहोत्र में पूर्व आहुति वाक् द्वारा, दुन्दुभी बनी वाक् द्वारा दी जाती है । उत्तर आहुति मन से दी जाती है । बृहदारण्यक उपनिषद १.५.३ में आत्मा के ३ भागों का उल्लेख है - वाक्, मन और प्राण । इन तीनों में अन्तर समझाने के लिए कहा गया है कि यह क्रमशः पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ, या भूत, वर्तमान और भविष्य, या ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद आदि हैं । वाक् का विकास अग्नि के रूप में, मन का चन्द्रमा के रूप में और प्राण का आदित्य के रूप में होता है । साधारण शब्दों में, हमारी प्रत्येक अभिव्यक्ति - चलना, बैठना, खाना, सोना, बोलना वाक् कहलाता है । जब हमारी सारी अभिव्यक्तियां ओंकार के रूप में समाहित हो जाएं तो यह वाक् ओंकार रूपी धेनु( नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद ), अथर्ववेद में वर्णित विराज धेनु बन जाती है । महाभारत में अग्निहोत्र से सावित्री, सरस्वती आदि के प्राकट्य से यही अभिप्राय हो सकता है । महाभारत में बक रूप धारी यक्ष से युधिष्ठिर के संवाद में बक को भी वाक् का रूप माना जा सकता है । इस बक/वाक् का यम या धर्म में रूपान्तरण अपेक्षित है । वाक् का यह सारा रूपान्तरण गार्हपत्य अग्नि प्रज्वलित करने से पहले ही किया जाना है, इसीलिए यक्ष अरणि व मन्थ का हरण कर लेता है । जैमिनीय ब्राह्मण १.२२ आदि में राजा जनक गौतम से पूछते हैं कि वह अग्निहोत्र की किस रूप में उपासना करता है । गौतम का उत्तर है कि यश के रूप में, लेकिन यश से पूर्व युधिष्ठिर बन कर यक्ष की एकाङ्गी साधना करनी पडेगी ।

          वाक् को एक अन्य ढंग से भी समझा जा सकता है । हमारे शरीर के कण - कण की, प्रत्येक अङ्ग की एक विशिष्ट वाक् है, आवाज है, आधुनिक विज्ञान की भाषा में एक आवृत्ति है या फ्रीक्वेंसी है जिस पर वह हमसे वार्तालाप का प्रयत्न कर रहा है । अन्नमय शरीर के स्तर पर यह सब आवृत्तियां बिखरी रहती हैं । लेकिन जब शरीर का विकास होता है तो शरीर में संवाद प्रेषण क्रिया त्वरित गति वाली विद्युत द्वारा होने लगती है और इस स्थिति में यह हो सकता है कि सारी आवृत्तियां एक इकाई  बन जाएं जिसे तैत्तिरीय संहिता ६.१.७.५ में दो मुख वाली अदिति गौ कहा गया है और जो आदित्य को जन्म देती है ।

          पुराणों और महाभारत में अग्निहोत्र फलं वेदा: इत्यादि श्लोक का सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है जिसके आगे के पदों में श्रुत का फल शीलवृत्त, जाया का फल रति व पुत्र तथा धन का फल दत्त और भुक्त होने का उल्लेख है (? ) । प्रथम दृष्टि में ऐसा प्रतीत होता है कि श्लोक के चार पद परस्पर असम्बद्ध हैं । लेकिन वास्तव में यह ब्राह्मण ग्रन्थों में वर्णित अग्निहोत्र के रहस्यों की ही व्याख्या है । युधिष्ठिर ने श्रुत पर ध्यान दिया, उसकी उपेक्षा नहीं की, इससे शील की प्राप्ति की । ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से अग्निहोत्र को मिथुन कहा गया है । मिथुन का स्वरूप यह है कि यजमान - पत्नी गार्हपत्य अग्नि के समीप बैठती है और यजमान आहवनीय अग्नि के समीप । आहवनीय अग्नि या संवत्सर गृहपति है, गार्हपत्य अग्नि या पृथिवी गृहपत्नी है ( शांखायन ब्राह्मण ३.९, जैमिनीय ब्राह्मण ३.४ ) । सायंकाल होने पर आदित्य आहवनीय अग्नि में प्रवेश कर जाता है और इस प्रकार यजमान ही रात्रि काल में आदित्य के रूप में स्थित होकर पृथिवी रूपी पत्नी से मिथुन करता है और प्रातःकाल आदित्य रूपी पुत्र को जन्म देता है । मिथुन के इसी तथ्य को पुराणों में दारा शब्द से व्यवहृत किया गया है । दारा अर्थात् जो हमारे सारे व्यक्तित्व का दारण कर दे, झिंझोड कर रख दे । मिथुन के संदर्भ में दूसरी संभावना यह है कि यह श्रुति और स्मृति का मिलन हो सकता है । यही महाभारत में अर्जुन व उलूपी के मिथुन द्वारा दर्शाया गया है । श्लोक के चतुर्थ पाद में जिस धन से भुक्त व दत्त की बात कही गई है, इस संदर्भ में पुराणों में अन्यत्र भी अग्निहोत्र से धन आदि की प्राप्ति के उल्लेख आए हैं जिनका वर्तमान अनुक्रमणिका में संकलन नहीं किया गया है । जैमिनीय ब्राह्मण १.२४ में अग्निहोत्र का यजन वित्त प्राप्ति के रूप में करने का वर्णन है । बृहदारण्यक उपनिषद १.५.१५ में उल्लेख आता है कि संवत्सर प्रजापति १६ कलाओं वाला है जिसमें से १५ कलाएं तो उसका वित्त हैं और आत्मा १६वी कला है । आत्मा नाभि है और वित्त परिधि ।

          ब्राह्मण ग्रन्थों में उल्लेख आता है कि अग्निहोत्र के माध्यम से देवों को सत्य आहुति देने का प्रयास किया जाता है । जो आहुति अग्नि में दी जाती है, देवों को केवल उसका सत्य भाग ही पहुंचता है । इस कथन को इस प्रकार समझा जा सकता है कि हमारे कान, आंख, नाक आदि सभी बाहर से विषयों का ग्रहण कर रहे हैं और अन्दर आहुति दे रहे हैं । यह अन्दर झूठी सूचनाएं भी देते हैं और सच्ची भी । आवश्यकता इस बात की है कि हमारी इन्द्रियां सत्य सूचनाएं एकत्र करके अन्दर भेजें । लेकिन जब तक हमारी देह अपवित्र रहेगी, वह काम, क्रोध आदि की सूचनाएं ही एकत्र करती रहेगी । अग्निहोत्र सत्य सूचनाओं को एकत्र करने का एक आरम्भ मात्र है । किस प्रकार ? अग्निहोत्र में सूर्य उदय का बहुत महत्त्व है । प्रातःकालीन अग्निहोत्र सूर्य उदय से पूर्व किया जाता है । प्रश्न उठता है कि एक साधक के लिए सूर्य क्या है ? सूर्य के बारे में कहा गया है कि यह एक घर्म की, गर्मी  की अवस्था है । यह घर्म क्या तृतीय नेत्र को जन्म देता है, यह अन्वेषणीय है । घर्म अवस्था जितनी प्रबल होगी, इन्द्रियों से प्राप्त सूचनाएं उतनी ही सत्य होती जाएंगी । कहा जा सकता है कि तीर्थंकर महावीर की साधना अग्निहोत्र की साधना है ।

          अग्निहोत्र को सभी यज्ञों का आधार कहा जाता है । इस कथन का सत्यापन इस प्रकार किया जा सकता है कि सभी यज्ञों की रचना का आधार संवत्सर है और संवत्सर की रचना का आधार पृथिवी, सूर्य और चन्द्रमा की आपेक्षिक गतियां हैं । संवत्सर के घटने के कारण दिन और रात प्रकट होते हैं जो अग्निहोत्र का आधार हैं । अहोरात्र के प्रकट होने का कारण पृथिवी का अपनी धुरी पर घूमना है जिसे आधुनिक विज्ञान की भाषा में स्पिन या भ्रमि कहते हैं । पृथिवी को अपनी धुरी पर घुमाने के लिए कौन सी शक्ति उत्तरदायी है, यह अभी ज्ञात नहीं है । वैदिक साहित्य में इस प्रकार के घूमने को सर्पण नाम दिया गया है जिसके लिए वृक अग्नि को उत्तरदायी कहा गया है । अहोरात्र के विषय में कहा गया है कि वह सर्पण करते हैं । यह कहा जा सकता है कि सर्प ही भ्रमि या स्पिन के लिए उत्तरदायी हैं ( पौराणिक साहित्य में पृथिवी को शेषनाग के फन पर टिका हुआ कहा गया है ) । सर्प की विपरीत अवस्था गरुड/सुपर्ण है जो सर्पों का भक्षण करता है । गरुड आधुनिक विज्ञान में कक्षीय गति, ओरबिटल मोशन के तुल्य हो सकता है । सूर्य को दिव्य सुपर्ण कहा गया है । अतः यह कहा जा सकता है कि जब भी हमारी इन्द्रियां असत्य सूचनाएं देती हैं तो वह सर्पों के विष के कारण है । सर्प विष को गरुड द्वारा दूर करना है । यही सूर्य रूपी गरुड का काम है ।

          पुराणों में अग्निहोत्र को सोमेश लिङ्ग से सम्बद्ध करके एक ऐसी दिशा की ओर संकेत किया गया है जिसका ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रत्यक्ष वर्णन नहीं है । यह विचारणीय विषय है ।

प्राणाग्निहोत्र : प्राणाग्निहोत्रोपनिषद तथा देवीभागवत पुराण में प्राणाग्निहोत्र विधि तथा उसका विवेचन उपलब्ध है । दोनों विवेचनों में कुछ समानताएं हैं तो कुछ असमानताएं । दोनों विवेचनों में मुख को आहवनीय अग्नि माना गया है । प्राणाग्निहोत्रोपनिषद में हृदय को गार्हपत्य अग्नि और नाभि को अन्वाहार्यपचन अग्नि माना गया है, जबकि देवीभागवत पुराण में हृदय को अन्वाहार्यपचन अग्नि और उदर को गार्हपत्य अग्नि कहा गया है । दोनों स्थानों पर प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान वायुओं की व्याख्या अपने - अपने ढंग से की गई है । प्राणाग्निहोत्रोपनिषद ने इन वायुओं की व्याख्या का प्रयास यज्ञ के ऋत्विजों के रूप में किया है । प्राण को ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विज, अपान को प्रतिप्रस्थाता, व्यान को प्रस्तोता, उदान को उद्गाता तथा समान को मैत्रावरुण ऋत्विज कहा गया है । दूसरी ओर, देवीभागवत पुराण में प्राण के लिए गायत्री छन्द नियत किया गया है, अपान के लिए उष्णिक्, व्यान के लिए अनुष्टुप्, उदान के लिए बृहती तथा समान के लिए पंक्ति । यहां यह उल्लेखनीय है कि इन पांच वायुओं की सम्यक् व्याख्या अभी तक अनुपलब्ध है और वैदिक उल्लेखों के आधार पर ही इनकी प्रकृति का अनुमान लगाया जाना है । इन पांच वायुओं के लिए अङ्गुष्ठ/आत्मा के साथ विभिन्न अङ्गुलियों को जोड कर आहुतियां दी जाती हैं । किस वायु के लिए अङ्गुष्ठ के साथ कौन सी अङ्गुलि जोडनी है, इस उल्लेख में भी दोनों संदर्भों में अन्तर है ।
Mantras of Agnihotra find place in third chapter of White Yajurveda and it’s explanation is available in Shatapatha Brahmana 2.2.4, Shaankhaayana Brahmana 2.1  and Jaiminiya Brahmana 1.1 – 1.65. Praanaagnihotropanisha presents procedure for performing Agnihotra in  Praana fire. The words Aahuti/offering and Idhma/firewood have been explained under the comments of these words. It will be desirable to read these beforehand.

   

In vedic Agnihotra, three fires are required to be established – Gaarhapatya, Dakshinaagni and Aahavaniya. In addition, two more fires are established near Aahavaniya – Aavasathya and Sabhya.  If a yajamaana has established Aahitaagni in his house, then he is supposed to kindle Gaarhapatya fire from this. And then Aahavaniya is kindled from Gaarhapatya. In the absence of Aahitaagni, Arani and Mantha are used to kindle fire by churning. Gaarhapatya is used for preparation of offering material and then this is offered in Aahavaniya. Then, offering is done at Gaarhapatya. Regarding offering material, it has been mentioned that milk should be offered. If milk is not available, then rice or barley, if no rice or barley is available, then some naturally growing cereal may be offered etc. etc. From which cow will this milk be obtained, who will become her calf, who will milch her, how the milk will be boiled, these are the basic questions of Agnihotra. According to one statement, Vaak/voice is the cow and mind is her calf. One rishi says that Ida is his  cow for Agnihotra and calf is of airy nature(It is possible that Shruti is the cow and Smriti is the calf). Devibhaagavata puraana says that Pranava is the milk. Other texts also indicate the Pranava nature of milk where the full procedure of milking from cow is given and milking has been equated with the sequence of formation of clouds, thunder, electricity and then at last the rain.

          What is the nature of Vaak/voice which has been called a cow? It has been clarified in the comments on Aahuti that the earlier offering is given by Vaak, a very loud vaak. The later offering is given by mind, silently. This vaak may develop further as fire, mind as moon and praana as sun. In ordinary sense, all our expressions – walking, sitting, sleeping etc. fall under vaak. When all our expressions are absorbed in Omkara, then this vaak becomes a cow of Pranava type. The appearance of Saavitri, Sarasvati etc. from Agnihotra in Mahaabhaarata may signify this only. The dialogue of Yudhishthira with a Yaksha having the form of a Baka may mean this only. It is desirable that this Baka/vaak is transformed into Yama or Dharma. All this transformation has to be completed before kindling of Gaarhapatya fire, hence the Yaksha steals the Arani and mantha. In one vedic text, Janaka asks Gautama in what way he observes Agnihotra. He answers – in the form of Yasha. But the dialogue of Mahaabhaarata indicates that before attainment of Yasha, one has to attain the status of Yaksha. Yasha is in the sense of widening oneself while Yaksha is to confine oneself. One is to become extrovert, the other is to become introvert.

          There is an other way of understanding vaak. Every cell of our body, every part is having a specific voice of it’s own at which it is trying to communicate with us. In terms of modern sciences, every cell is having a specific frequency. But at lower levels of our individuality, these voices, these frequencies are scattered. May be, unlike a laser beam, their phase is scattered. When one develops , when the communication in our body takes place through fast electricity instead of slow electrical ions, then may be all these voices get united and this may the cow of Agnihotra.

          In puraanic texts, there is mention of a universal mantra which states that the fruit of Agnihotra is veda, the fruit of Shruti is good behaviour/sheela, the fruit of wife is sex and begetting of son and the fruit of wealth is to donate and eat. It seems in the first instance that these four lines are dissociated from each other. But it is also possible that this is the explanation of mysteries of Agnihotra. When one mantra is repeated elsewhere, it signifies that it has a deeper meaning. Agnihotra has been universally termed as a duality, a sex. The form of this sex is this : Wife of yajamaana sits at Gaarhapatya while yajamaana sits at Aahavaniya. Aahavaniya fire, which also symbolizes Samvatsara or year,  is the lord of house while Gaarhapatya fire or earth is the house lady.  At dusk, sun enters the Aahavaniya fire and thus he copulates with Gaarhapatya fire or earth in the form of sun. And then at dawn, sun is again born. In one braahmanic text, Agnihotra worship is done for getting wealth. It has been said that prajaapati samvatsara/year is having 16 phases out of which 15 phase are his wealth and the 16th phase is the Aatman. Aatman is center while wealth is the circumference.

          It has been mentioned in braahmanic texts that gods are offered true offering through Agnihotra. Whatever offering is given in fire, only true part of it reaches to gods. This statement can be understood more clearly as follows : Our senses like ears, eyes, nose etc. are collecting information from outside and transmitting it somewhere inside. We think that whatever information these senses collect, it is right. But experience shows that this may be wrong also. Our senses collect information for sex, anger also which is not true. The science behind it is that Agnihotra is based on rising of sun. And this sun in the body is a specific state where the body energy takes a specific shape which can be called a sun. May be this is the development of third eye. The more this state of sun is developed, the lesser is the chance that senses will give wrong information. The feeling of sex from body parts disappears as soon as sun state is developed. Or it can be said that whatever energy was blocked, it was hindered to transform in sun state, that was giving wrong information. The penance of Jain Teerthankar Mahaavira can be said to be worship of this Agnihotra itself, because he was always trying to hear the true inner voice.

          It should be clearly understood that Agnihotra has been stated to be the mostelementary of all the yagas/sacrifices. Other yagas are said to be based onthis. This statement can be justified as follows : It seems that all yagas havebeen structured according to the relative movement of sun, earth and moon, whichforms an year. In a year, day and night are formed due to the rotation of earthon it’s own axis. Appearance of day and night is the basis of Agnihotra. Inouter world, it is so easy to visualize the movement of earth on it’s ownaxis. But in spirituality, it is not easy to find out the force which makesearth/our body rotate on it’s axis. This is something akin to spin in modernsciences.One can visualize thatcoming out and going to trance may be equivalent to day and night inspirituality. This may be the highest state of spin. What is happening at lowerlevels may be visualized by incorporating the concept of serpent for spinmovement( In mythology, the earth has been stated to be situated on the hood ofSheshanaaga, the supreme of all serpents). The opposite of it is the movement ofhawk which may be equivalent to orbital motion in modern sciences. Therefore,whenever our senses receive untrue input, this may be said to be work ofserpentine venom. This can be remedied only be killing the serpents by hawk. Andit has been stated in sacred texts that sun moves as a hawk.

          First published : 1994 ; modified : 27-11-2009(Maargasheersha shukla dashami, Vikrama samvat 2066)

 

 अग्निहोत्र का ब्रह्माण्ड के सृजन सिद्धान्त से सम्बन्ध :

अग्निहोत्र के कर्मकाण्ड की व्याख्या वर्तमान समय के भौतिक विज्ञान में बिग बैंग(आरम्भिक महान विस्फोट द्वारा इस ब्रह्माण्ड का सृजन)  द्वारा भी की जा सकती है । इस सिद्धान्त के अनुसार आरम्भ में केवल ऊर्जा थी जिसमें कोई भयंकर विस्फोट हुआ और उससे सारी ऊर्जा द्रव्य के रूप में घनीभूत हो गई । विस्फोट क्यों हुआ, यह किसी को पता नहीं है । न्यूटन के काल से ही यह माना जाता रहा है कि यह ब्रह्माण्ड अचर/अप्रगामी/स्तब्ध है क्योंकि आकाश में तारे प्रतिदिन ज्यों के त्यों दिखाई देते हैं । आइन्स्टीन ने गणित के माध्यम से इस तथ्य को सिद्ध करने का प्रयास किया । लेकिन सन् १९३६ के आसपास गेमोव तथा अन्य ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि यह ब्रह्माण्ड अचर नहीं है, अपितु लगातार प्रसार कर रहा है और वर्तमान काल में इसकी पुष्टि हो रही है कि यही वास्तविक तथ्य है । हाल के वर्षों में श्री जे.ए.गोवान ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि आरम्भ में प्रकाश की गति से प्रसरण कर रहे ब्रह्माण्ड को द्रव्य के रूप में संकुचित होने की आवश्यकता क्यों पडी । श्री गोवान का कहना है कि ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि इसके द्वारा ऊर्जा अपने को अधिक काल तक सुरक्षित रख सकती है । श्री गोवान ने ऊर्जा के इस रूपान्तरण के जो परिणाम निकाले हैं, वह इस प्रकार से हैं :

          श्री गोवान ने अपनी मान्यता को पुष्ट करने के लिए जिन नियमों को आधार बनाया है, उनमें से एक नोएथर नियम है जिसका प्रतिपादन ई सन् १९१८ के लगभग श्रीमती नोएथर ने किया था । इस सिद्धान्त के अनुसार किसी तन्त्र की सममिति एक स्थिरांक है, उसे नष्ट नहीं किया जा सकता । यदि उस तन्त्र को विभिन्न अवयवों में तोड दिया जाए तो कुल मिलाकर उन अवयवों की सममिति अपरिवर्तनीय रहेगी । बिग बैंग से पहले केवल ऊर्जा विद्यमान थी, द्रव्य नहीं । और प्रकाश ऊर्जा का यह गुण है कि यह प्रकाश की गति से चारों ओर प्रसरण करती है । अतः इस ऊर्जा को सममित कहा जाता है, क्योंकि यह किसी दिशा विशेष से रहित है । जब बिग बैंग के पश्चात् द्रव्य का निर्माण हुआ तो उसमें भी यह सममिति स्थिर रहनी चाहिए । लेकिन यह सर्वविदित है कि द्रव्य सममित नहीं है । प्रकाश की भांति द्रव्य की गति चारों दिशाओं में एक साथ नहीं हो सकती, केवल एक दिशा में ही हो सकती है । सममिति को स्थिर रखने के लिए प्रतिद्रव्य की कल्पना करनी पडी है कि इस ब्रह्माण्ड के अतिरिक्त एक प्रति - ब्रह्माण्ड भी है जिसकी सममिति इस ब्रह्माण्ड की सममिति से उलटी है । लेकिन श्री गोवान के अनुसार द्रव्य में भी सममिति की झलक गुरुत्वाकर्षण के रूप में विद्यमान रहती है । इसके अतिरिक्त, द्रव्य में जो उसके इलेक्ट्रान, प्रोटान आदि अवयवों के रूप में आवेश विद्यमान होता है, वह भी उसी आरम्भिक सममिति का अवशिष्ट हैं ।

          श्री गोवान ने गुरुत्वाकर्षण के एक और तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है और वह यह कि गुरुत्वाकर्षण का गुण आकर्षण का है । वास्तव में यह उस आकाश को ग्रस रहा है जिसका सृजन प्रकाश ऊर्जा अपने प्रसरण द्वारा कर रही है । आभासी रूप में हमें इसका आभास इस प्रकार होता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का आकर्षण करता है । यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रकाशीय ऊर्जा के प्रसरण के वेग c को श्री गोवान ने एण्ट्रापी/अव्यवस्था की एक प्रमाप के रूप में ग्रहण किया है ( श्री गोवान के शब्दों में एण्ट्रांपी ड्राइव) । गुरुत्वाकर्षण इस अव्यवस्था में ह्रास लाता है ।

          श्री गोवान ने अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए दूसरा आधार ऊर्जा के परिमाण की स्थिरता को बनाया है । प्रकाश की ऊर्जा उसकी आवृत्ति पर निर्भर करती है( E = hv) जहां v प्रकाश की तरंग की आवृत्ति है । दूसरी ओर, द्रव्य का ऊर्जा परिमाण उसकी मात्रा तथा वेग पर निर्भर करता है । द्रव्य की ऊर्जा के संदर्भ में आइन्स्टीन ने जो समीकरण दी है, वह E = mc२ है जहां m द्रव्य की मात्रा है तथा c वह अधिकतम वेग है जो द्रव्य अर्जित कर सकता है । इसकी अधिकतम सीमा प्रकाश का वेग है ।

          ऊर्जा के द्रव्य में परिणत होने का एक परिणाम काल के प्राकट्य के रूप में होता है । ऊर्जा में काल केवल अप्रत्यक्ष रूप में उसकी आवृत्ति में विद्यमान है । लेकिन द्रव्य में यह प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होता है क्योंकि द्रव्य का ऊर्जा परिमाण वेग( दूरी/काल) पर निर्भर करता है । एण्ट्रांपी नियम की यह मांग है कि प्रकाश की भांति काल प्रभावी रूप से अनंत वेग से चारण करे । काल से कार्य - कारण का जन्म होता है जिसके अनुसार किसी कार्य के पीछे एक कारण विद्यमान होता है । काल का चारण केवल भविष्य की दिशा में ही है, भूत की दिशा में नहीं । कारण कार्य को प्रभावित कर सकता है, कार्य कारण को नहीं ( इस विषय में इण्टरनेट पर विस्तृत विवाद उपलब्ध हैं ) ।

          द्रव्य के प्राकट्य से सूचना के तन्त्र का सृजन हुआ है जिसे आज हम कम्प्यूर युग के रूप में देख रहे हैं । केवल द्रव्य में ही सूचना को एकत्र किया जा सकता है, शुद्ध ऊर्जा में नहीं (?)

          श्री गोवान का कहना है कि इस पृथिवी पर रहकर हम केवल ऊर्जा के द्रव्य में परिणत होने की कल्पना करते हैं । लेकिन जब द्रव्य का घनत्व बहुत अधिक हो जाता है तो द्रव्य फिर ऊर्जा में परिणत होने लगता है, जैसा कि सूर्य पर होता है । पृथिवी का घनत्व चूंकि कम है, अतः दूसरी घटना यहां नहीं घट पाती ।

          इस भूमिका के पश्चात् अब हम वास्तविक लक्ष्य अग्निहोत्र पर आते हैं । अग्निहोत्र का कर्मकाण्ड प्रतिदिन दिन और रात्रि के घटित होने पर आधारित है । अध्यात्म में यह दिन और रात्रि किस प्रकार घटित हो सकते हैं, यह अन्वेषणीय है। दिन सूर्य है और रात्रि पृथिवी । सूर्य प्राणों का बृहत् रूप है जबकि पृथिवी हमारी देह का । हमारे शीर्ष प्राण सूर्य के निकटतम हैं । अतः यह देखना होगा कि अग्निहोत्र के शास्त्रीय कर्मकाण्ड का हमारे शीर्ष प्राणों के उदय - अस्त होने से कितना तादात्म्य है । जैमिनीय ब्राह्मण १.७ का कथन है कि सायंकाल अस्त होने पर सूर्य ६ प्रकार से अपने को छिपाता है । ब्राह्मण में यह श्रद्धा के रूप में प्रवेश करता है, पशुओं में पयः के रूप में, अग्नि में तेज के रूप में, ओषधियों में ऊर्क् के रूप में, आपः में रस रूप में और वनस्पतियों में स्वधा के रूप में । यह कहा जा सकता है कि श्रद्धा, पयः आदि का अध्यात्म में वही स्थान है जो द्रव्य में विद्यमान सममित आवेश का, जो श्री गोवान के अनुसार नष्ट हुई सममित ऊर्जा की सममिति का अवशिष्ट है । ऐसा अनुमान है कि उपरोक्त ६ द्रव्यों के अभाव को ही जैमिनीय ब्राह्मण २.३६३ में पाप कहा गया है । यह ६ पाप हैं - स्वप्न, तन्द्री, मन्यु, अशना, अक्षकाम्या और स्त्रीकाम्या । श्रद्धा( शृतं दधाति इति, जो पके हुए को धारण करता है ) के अभाव के परिणामस्वरूप अचेतन मन से  स्वप्न उत्पन्न होते हैं । पयः के अभाव का परिणाम तन्द्री कहा गया है । तन्द्री का अर्थ है - आलस्य, काम करने में शिथिलता । जैसा कि पयः शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, पयः का प्रादुर्भाव तब होता है जब कोई तनाव विद्यमान न हो । वनस्पतियों का पयः गुरुत्वाकर्षण आदि तनावों के कारण काष्ठ में परिणत हो जाता है । पयः को सुरक्षित रखने के लिए बीज अपने ऊपर मोटा आवरण बनाते हैं, तब पयः को सुरक्षित रख पाते हैं । केवल पशुओं में पयः की विद्यमानता कही गई है । वही स्तनधारी होते हैं । तन्द्री शब्द को तन्त्री शब्द का अपभ्रंश माना जा सकता है । जहां तन्त्र शिथिल हो गया हो, वह तन्द्री है । तेज के अभाव का परिणाम मन्यु( मज्जा में उत्पन्न होने वाला क्रोध) है । यदि मन्यु की ऊर्जा का सम्यक् उपयोग किया गया होता तो वह तेज रूप में परिणत हो सकता था । ओषधियों में ऊर्क् के अभाव का परिणाम अशना, भोजन की इच्छा है । आपः में रस के अभाव का परिणाम अक्षकाम्या अर्थात् अक्षों, इन्द्रियों द्वारा रसों को ग्रहण करना है । वनस्पतियों में स्वधा के अभाव का परिणाम स्त्रीकाम्या कहा गया है । वनस्पतियों की विशेषता यह होती है कि उनकी किसी शाखा को भंग कर देने पर वह पुनः अंकुरित हो जाती हैं । इसका कारण यह है कि वनस्पतियों में स्टेम कोशिकाएं होती हैं जो तुरन्त नवनिर्माण कर सकती हैं । पशुओं या मनुष्यों के अंगों में स्टेम कोशिकाएं सीमित मात्रा में ही रह जाती हैं, जैसे नासिका आदि में । इस कारण एक बार अंग भंग हो जाए तो वह पुनः उत्पन्न नहीं हो पाता । वैदिक साहित्य के अनुसार यह अपेक्षित है कि प्रत्येक अंग में स्टेम कोशिकाओं का निर्माण होना संभव बनाया जाए । वनस्पतियों के स्वधा गुण की प्राप्ति समित् चयन द्वारा की जाती है । कहा गया है कि ब्रह्मचारी अपने गुरु के लिए वन से समित् का आहरण करता है जिससे गुरु समित् द्वारा यज्ञ कर सके । यह समित् सममित स्थिति हो सकती है जो स्टेम कोशिकाओं का निर्माण करती होगी ।

          जैमिनीय ब्राह्मण में जहां अस्त होता सूर्य अपने आपको ६ प्रकार से अग्नि में छिपाता है, वहीं ब्रह्माण्ड पुराण में ब्रह्मा द्वारा चार प्रकार से इस जगत में छिपने का उल्लेख है । स्थावरों में वह विपर्यास रूप में, तिर्यकों में शक्ति रूप में, मनुष्यों में बुद्धि और सिद्धि रूप में तथा देवों में वह पुष्टि रूप में छिपता है । पुराणों के इस कथन से जैमिनीय ब्राह्मण के इस कथन पर प्रकाश पड सकता है कि अस्त होता हुआ सूर्य ब्राह्मणों में श्रद्धा रूप में छिपता है । पुष्टि तब हो सकती है जब श्रद्धा में सत्य का प्रवेश हो । केवल मात्र श्रद्धा असत्य आधार पर भी टिकी हो सकती है । मनुष्यों में बुद्धि और सिद्धि की तुलना जैमिनीय ब्राह्मण में पशुओं में पयः के प्रवेश से की जा सकती है । जैमिनीय ब्राह्मण में अग्निहोत्र के संदर्भ में ही पयः के श्रपण की विभिन्न अवस्थाओं का भी उल्लेख है, जैसे पहली अवस्था में पयः गौ के स्तनों में होता है । दूसरी अवस्था में वह दुग्ध स्थिति में, तीसरी अवस्था में अग्नि पर श्रपण के कारण उष्ण स्थिति में, चौथी अवस्था में शर (दुग्ध के ऊपर मलाई) के रूप में इत्यादि । इसकी चरम परिणति वाजपेय के रूप में कही गई है । डा. फतहसिंह के अनुसार वाज वह अन्न या प्राण होता है जिसके द्वारा भूत और भविष्य, दोनों ओर की सूचनाएं प्राप्त हो सकती हैं । अतः जैमिनीय ब्राह्मण के पयः को पुराणों की बुद्धि और सिद्धि के तुल्य माना जा सकता है । इसके पश्चात् जैमिनीय ब्राह्मण में सूर्य के अग्नि में तेज रूप में छिपने का उल्लेख है । कहा गया है कि जो क्रोध है, वह लोहितकुल्या, लोहित की नदी है,जबकि तेज घृतकुल्या है । क्रोध आने पर रक्त में उष्णता आ जाती है, जबकि तेज से प्रतीत होता है कि मज्जा या इसके समकक्ष किसी धातु में उष्णता आती होगी । इससे अगली अवस्था सूर्य के ओषधियों में ऊर्क् के रूप में छिपने की है जिसकी व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है । पांचवी अवस्था में सूर्य के आपः में रस रूप में छिपने का उल्लेख है । इस को उच्च व्यवस्था की स्थिति अथवा न्यून एण्ट्रांपी की स्थिति कहा जा सकता है । ब्राह्मण ग्रन्थों का कथन है कि जिसे शास्त्रीय भाषा में रथन्तर कहा जाता है, वह वास्तव में रसन्तमम् स्थिति है । इसका अर्थ यह लगाया जा सकता है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में रस का तादात्म्य रथ से है । जैमिनीय ब्राह्मण में (विकसित होते हुए प्राणों की? ) रथ के कईं प्रकारों की कल्पना की गई है । सबसे पहली स्थिति में अग्नि के रिहन्/लिहन् अवगुण को पार करना पडता है । अग्नि का एक गुण है भस्म करना और दूसरा विपरीत गुण है अर्चि, चमकना । रथ की दूसरी अवस्था धूम की है जिसमें वायु के अजिर( अ - जीव, ऐसे प्राण जो जीवन प्रदान न कर सकें) अवगुण को पार करना पडता है । रथ की तीसरी अवस्था रेष्मा कही गई है जिसमें आदित्य के म्रोचन अर्थात् न चमकने? के अवगुण को पार करना पडता है । रथ की चौथी अवस्था रश्मि कही गई है जिसमें यम के अवत्स्यन् ? अवगुण को पार करना पडता है । पांचवी अवस्था में प्रजापति के प्रभूमान् अवगुण को पार करने का उल्लेख है । अन्तिम स्थिति - स्थावरों में विपर्यास/प्रति - सममिति की तुलना वनस्पतियों की स्वधा/समित् से की जा सकती है । पुराणों में तो कथाएं आती हैं कि अमुक असुर के भय से यज्ञ में विद्यमान देव अलग - अलग वृक्षों में छिप गए । वह वृक्ष उन - उन देवों के प्रिय बन गए ।

          जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, अध्यात्म में अग्निहोत्र के घटित होने की प्रक्रिया को शीर्ष प्राणों के उदय - अस्त द्वारा समझा जा सकता है । प्रतिदिन सोते समय शीर्ष प्राणों का अस्त हो जाता है । यह प्रेक्षण का विषय है कि क्या हमारे शीर्ष प्राण अस्त होने पर वही प्रभाव उत्पन्न करते हैं जिनका उल्लेख जैमिनीय ब्राह्मण में किया गया है ? सबसे पहला घटक श्रद्धा/पुष्टि है जिसका विपरीत घटक स्वप्न है । यह दोनों ही हमारे अन्दर घटित हो रहे हो सकते हैं । शीर्ष प्राण अस्त होने पर हमारी देह के अन्य प्राणों की पुष्टि करते होंगे । दूसरा घटक पयः है जिसका विपरीत घटक तन्द्री/शिथिलता/तनाव है । यह घटक भी अपने दोनों रूपों में विद्यमान होता होगा । तीसरा घटक तेज है जिसका विपरीत घटक मन्यु कहा गया है । चौथा घटक ऊर्क् है जिसका विपरीत घटक अशना है । पांचवां घटक आपः में रस है जिसका विपरीत घटक अक्षकाम्या है । छठां घटक स्वधा/समित्/सममिति है जिसका विपरीत घटक स्त्रीकाम्या है ।

          उपरोक्त विवेचन केवल अस्त होते हुए सूर्य के लिए है । जैमिनीय ब्राह्मण में उदित होते हुए सूर्य का जो वर्णन है, वह भविष्य में अन्वेषणीय है । जैमिनीय ब्राह्मण के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ प्राण तो ऐसे रहेंगे जिनका पूर्ण विकास नहीं हो पाएगा । उन प्राणों पर अग्नि का आधिपत्य होगा । कुछ प्राण पूर्ण विकसित होकर सूर्य का, अथवा कहा जाए कि हमारे सिर के प्राणों का रूप ले सकेंगे । प्राणों के विकास की क्रमिक अवस्थाओं का उल्लेख ऊपर धूम, रेष्मा, रश्मि आदि के रूप में किया जा चुका है ।

          जैमिनीय ब्राह्मण में अग्निहोत्र के विद्वान् समझे जाने वाले कुछ ऋषियों का जनक/याज्ञवल्क्य से संवाद दिखाया गया है । सबसे पहले गौतम का उल्लेख है जो यश के रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । पृथिवी भी यश, आदित्य भी यश । दूसरे स्थान पर आरुणि वाजसनेय का उल्लेख है जो सत्य के रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । पृथिवी भी सत्य, आदित्य भी सत्य । सत्य और श्रद्धा के सम्बन्ध का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है । यह उल्लेखनीय है कि केवल अरुण अवस्था में, सूर्य के उदय काल की अवस्था में सत्यानृत का विवेक करना कठिन होता होगा । और सारा अग्निहोत्र या तो सूर्य के उदय के काल से सम्बन्धित है, या अस्त काल से । सूर्य की बीच की अवस्थाओं का अग्निहोत्र से सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता । तीसरे स्थान पर प्रिय जानश्रुतेय(ज्ञानश्रुतेय?) का उल्लेख है जो तेज रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध का, तेज का उपयोग प्राणों को प्रिय रूप में रूपान्तरित करने में होना चाहिए, ऐसे प्राण जिनके बिना हम जीवित ही न रह सकें । चौथे स्थान पर बर्कुर /वृक वार्ष्णेय का उल्लेख है जो भूयः रूप में, वित्त रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । कहा जाता है कि १५ कलाएं वित्त हैं, जबकि १६वी कला स्वयं आत्मा है । १५ कलाएं उसकी परिधियां हैं । यहां यह उल्लेखनीय है कि अग्निहोत्र में सूर्य की १३वी कला, चन्द्रमा की १६वी कलाओं आदि के महत्त्व को भी स्थान मिला है । पांचवें स्थान पर बुडिल आश्वतराश्वि वैयाघ्रपद्य का उल्लेख है जो अर्क - अश्वमेध के रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । पृथिवी अर्क है, सूर्य अश्वमेध है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, अर्क अवस्था अग्नि की  चमकने वाली अवस्था है जो लिहन् अवस्था के विपरीत है । बुडिल नाम का तात्पर्य बुड्ढ धातु के आधार पर बूढेपन को नियन्त्रित करने वाले के रूप में लिया जा सकता है । इन पांच के उल्लेखों के पश्चात् जनक एक छठी स्थिति का उपदेश करते हैं जिसे इति और गति कहा गया है । पृथिवी इति है, सूर्य गति है । डा. फतहसिंह के अनुसार वैदिक साहित्य में गति ज्ञान के अर्थ में भी आता है ( गम् - ज्ञाने ) । वर्तमान में इति शब्द की किसी व्याख्या के अभाव में इति को इतिहास रूप में समझ सकते हैं । इतिहास अर्थात् जहां कार्य - कारण व्यवस्था विद्यमान हो । पृथिवी अपना अन्नाद्य भाग चन्द्रमा में कृष्ण रूप में स्थापित करती है । सूर्य अपना अन्नाद्य भाग पृथिवी में ऊषर रूप में स्थापित करता है । हो सकता है कि श्री गोवान ने पृथिवी द्वारा अपने गुरुत्वाकर्षण के माध्यम से ब्रह्माण्ड के विस्तार के ग्रसन का जो उल्लेख किया है, वह शास्त्रीय भाषा में इति के रूप में प्रकट हुआ हो ।

          जिस प्रकार भौतिक जगत में ऊर्जा का द्रव्य में और द्रव्य का ऊर्जा में रूपान्तरण चलता रहता है, वैसे ही अग्निहोत्र में भी प्रातः और सायंकालीन अग्निहोत्र में होता है । प्रातःकालीन अग्निहोत्र कर्मकाण्ड में मुख्य रूप से जो मन्त्र बोला जाता है, वह इस प्रकार है : सूर्यो ज्योति: ज्योति: सूर्य: स्वाहा( वाक् द्वारा उच्च स्वर में ) और अग्निर्ज्योति: ज्योतिरग्निः स्वाहा ( मन द्वारा तूष्णीम् ) । यह उल्लेखनीय है कि अग्निहोत्र के कर्मकाण्ड की ब्राह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध व्याख्या में मुख्य रूप से वाक् और मन को स्थान मिला है जबकि प्राण, मन और वाक् के त्रिक में प्राण को प्रायः पृष्ठभूमि में ही रख दिया गया है । भौतिक आधार तो यह है कि अहोरात्र केवल सूर्य/प्राण और पृथिवी/देह/आत्मा की सापेक्ष गति के कारण घटित होते हैं । चन्द्रमा की गति तो केवल दर्श - पूर्णमास को प्रभावित करती है । लेकिन अग्निहोत्र में यह आधार क्यों नहीं लिया गया है, इसका कारण है । प्राण दो प्रकार के हैं - जाग्रत और सुप्त । यदि जाग्रत प्राणों का सम्यक् उपयोग नहीं किया जाता तो यह प्राण क्रन्दन करने लगते हैं, रोने लगते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण में इस तथ्य को इस रूप में कहा गया है कि जो पशुओं को मारकर खाता है, दूसरे लोक में पशु रूपी पुरुष उस क्रन्दन करते हुए पुरुष को मारकर खाते हैं । इसी प्रकार यदि व्रीहि, यव आदि अन्न जिनमें प्राण सुप्त अवस्था में हैं, जो बोल नहीं सकते, यदि उनका भक्षण अयज्ञीय रूप से किया जाता है तो दूसरे लोक में वह व्रीहि - यव आदि  पुरुष उसका तूष्णीं रूप में हनन करके भक्षण करते हैं । यदि ऐसे पाप घटित हो चुके हैं, तो उनका क्या प्रायश्चित्त है ? कहा गया है कि अग्निहोत्र में जो वाक् द्वारा उच्च स्वर से यजु बोला जाता है, वह क्रन्दन करने वाले प्राणों का प्रायश्चित्त है । इसका अर्थ यह हुआ कि यदि जाग्रत प्राणों का उपयोग किसी प्रकार से वाक् को विकसित करने में, अपनी आत्मा की आवाज को विकसित करने में कर लिया जाए तो प्रायश्चित्त हो जाएगा । इसी प्रकार जो प्राण सुप्त थे और उनका दुरुपयोग किया गया है तो उसका प्रायश्चित्त मन द्वारा तूष्णीं रूप में मन्त्र का उच्चारण करने में है । इसका अर्थ यह हुआ कि जो सुप्त प्राण हैं, उनमें मन का, अचेतन मन का विकास कर लिया जाए तो प्रायश्चित्त हो जाएगा । कहा गया है कि मन के अनुदिश प्राण हैं, वाक् के अनुदिश आत्मा है । अतः यह कहा जा सकता है कि जब श्री गोवान द्रव्य को घनीभूत करके द्रव्य को पुनः प्रकाशीय ऊर्जा में रूपान्तरित करने की बात करते हैं तो अध्यात्म में इस द्रव्य को वाक् लिया जा सकता है । इस वाक् या पृथिवी को घनीभूत कैसे किया जा सकता है कि नाभिकीय विखण्डन की प्रक्रिया घटित हो जाए, यह एक विचारणीय प्रश्न है । पौराणिक साहित्य में कहा जाता है कि यह पृथिवी द्वेष आदि के कारण कटी - फटी है, इसे समतल बनाना है, पृथु बनाना है । महाभारत में बक रूप धारी यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न पूछता है । यहां बक शुद्ध वाक् का विकृत रूप है जो संवाद के अन्त में अपना वास्तविक रूप यम या धर्म के रूप में प्रकट करता है । यह भी जानना महत्त्वपूर्ण है कि बक रूपी वाक् का संवाद क्या मन रूपी युधिष्ठिर से होता है?

           सायंकालीन अग्निहोत्र में जिस मन्त्र का उच्चारण किया जाता है, वह है - अग्निर्ज्योति: ज्योतिरग्निः स्वाहा( वाक् द्वारा उच्च स्वर से ) और सूर्यो ज्योति: ज्योति: सूर्य: स्वाहा ( मन द्वारा तूष्णीं रूप में ) । इस प्रकार अग्निहोत्र ऊर्जा के दो - तरफा रूपान्तरण का मार्ग प्रस्तुत करता है । इस रूपान्तरण का लाभ यह बताया गया है कि इससे कार्य - कारण सिद्धान्त निरर्थक हो जाता है । यह महत्त्वपूर्ण है कि अग्निहोत्र की व्याख्याओं में काल को प्रत्यक्ष रूप में कहीं स्थान नहीं मिल पाया है ।
While describing the ritual of Agnihotra, there is a statement in one sacred text that in the evening, sun hides itself in fire in six ways. In pious man, he sets in the form of belief. In animals, in the form of milk. In fire, in the form of luster. In medicinal plants, in the form of energy. In waters, in the form of tastes. In trees, in the form of symmetry. There is a similar statement in one sacred text that lord Brahmaa hides himself in the form of anti - symmetry in inanimate objects, in the form of power in those objects which move horizontally. In the form of intellect and super powers in humans and in the form of nourishment in gods. The significance of the above 6 types becomes clear from the mention of opposites of these six - dream, sleepiness, anger, hunger, desire for sensual pleasures, desire for woman pleasures.

    One has to simulate the ritual of Agnihotra within himself. While sacred texts talk of setting and rising of sun, one can simulate the process in the form of setting of most developed life forces in the head when one goes to sleep. This setting should have similarity with sun. The rising part of the sun has yet to be explained.              

                   Why sacred texts talk of setting of sun in matter, can be explained on the basisof hypothesis propounded in recent times by John A. Gowan.  J.A.Gowan has tried to explain why there was a need for the universe for getting contracted from energy into matter.     This happened because energy can conserve itself more safely in the form of matter than in the form of light. In other words, the entropy of energy gets decreased( According to Gowan, the entropy drive for light energy is it’s velocity c with which it is expanding in space). The consequences of this conversion, as thought by  Gowan, are stated below.

                   Gowan has based his thinking on certain well established principles. One of these is the Noether’s theorem according to which the symmetry of a system remains conserved. This means that if a system is divided into several systems, then the total symmetry of the system will remain conserved. Before big bang, there was energy in the form of light, and no matter. The property of light is to travel symmetrically with speed of light. When this light energy is converted into matter, then this symmetry should remain conserved in matter also. But it is well known that properties of matter are not symmetric. Motion of matter  can be only in one direction. Therefore, there is no conservation of symmetry in this way. Gowan says that this lack of symmetry has been compensated with the prediction of an antimatter whose symmetry is opposite to that of matter in this visible universe. Moreover, the matter also bears the initial signs of symmetry in the form of charge carriers like electron, proton etc. The remnants of symmetry are also present in the form of gravitational property of matter. This gravitation also performs another function – annihilation of space created by expansion of  universe of light  energy. This property gets visible in the form of attraction between two pieces of matter. This annihilation contributes to decrease in entropy.

                   Another fact which has been used by Gowan is the law of conservation of energy. The energy of light depends on it’s frequency, while the energy of matter is expressed by it’s velocity which can attain a maximum speed of light.

                   According to Gowan, in this universe, the light is being converted into matter and matter into light. This process seems to be taking place only one way on the earth. But in the sun, it is taking place both ways. If the density of matter increases beyond a limit, the second process can start, as in nuclear energy.

                   Gowan states that a consequence of conversion of light into matter is that it is possible to store information into matter. No information can be stored in light(?). Matter follows the cause and effect principle.

                                      The mantra which is recited at the time of morning ritual of Agnihotra means that sun is light and light is sun. This is spoken loudly (by Vaak, the so called speech organ). After that, the chanting is that light is fire and fire is light. This is spoken silently with mind. At this place, one has to keep in mind that the context may of those life forces/praanas which are in partly awakened state and those life forces which are in complete dormant state, such as the life forces in vegetable kingdom. If one makes misuse of half - awakened life forces, then it's repentance /remedy will be that these life forces should be able to exert their influence on the inner voice so that it is able to speak loudly. The remedy for misuse of dormant life forces will be that these exert their influence on unconscious? mind which may become a part of integral consciousness. 

    According to Gowan, sun can be created from matter only when the density of matter increases beyond a limit. Here the gross matter can be considered as Vaak. It is an open question how one can increase the density of Vaak. One example can be given of the dialogue of Yaksha in the form of a Baka with Yudhishthirra. When Baka gets satisfied with answers, only then he appears in his real form – the Yama or Dharma. This may be one method of increasing the density of Vaak. Here it may be mentioned that the sacred books giving explanations for Agnihotra hardly mention the role of praana, the life force explicitly in the ritual . Actually, it is the trio of praana, mana and vaak, or in broader sense, sun, moon and earth. In order to understand the explanations given in sacred books, one has to always keep this fact in mind.  The real purpose of Agnihotra has been stated to somehow prevent the universal law of cause and effect taking place. Thus, time hardly finds any explicit mention in the explanations of Agnihotra.

  First published : Nov. 2006 ; Modified : 23-11-2009 AD( Maargasheersha shukla shashthi, Vikrama samvat 2066)

 

 

 अग्निहोत्र

संदर्भ

*यो वा अग्निहोत्रं वैश्वदेवं षोडशकलं पशुषु प्रतिष्ठितं वेद ऐ.ब्रा. ५.२६

*तस्मादपत्नीकोऽप्यग्निहोत्रमाहरेत्। - ऐ.ब्रा. ७.९

*याव॑दग्निहो॒त्रमासीत्तावा॑नग्निष्टो॒मो - - - तै.सं. १.६.९.१

* अग्निहोत्रम् एताभिर् व्याहृतीभिर् उप सादयेद् यज्ञमुखं वा अग्निहोत्रम् ब्रह्मैता व्याहृतयो यज्ञमुख एव ब्रह्म कुरुते। - तै.सं. १.६.१०.२

*घर्मो वा एषोऽशान्तः । अहरहः प्रवृज्यते । यदग्निहोत्रम् ।  प्रतिषिञ्चेत्पशुकामस्य । शान्तमिव हि पशव्यम् । न प्रतिषिञ्चेद्ब्रह्मवर्चसकामस्य । - तै.ब्रा. २.१.३.२, काठक सं. ६.३

*एष वा अग्निहोत्रस्य स्थाणुर्यत् पूर्वाहुतिः। - तै.ब्रा. २.१.४.३

*किं देवत्यमग्निहोत्रमिति वैश्वदेवमिति ब्रूयात् तै.ब्रा. २.१.४.६

*असस्थितो वा एष यज्ञो यदग्निहोत्रम्। - तै.ब्रा. २.१.४.९

*अ॒ग्नि॒हो॒त्रप्रा॑यणा य॒ज्ञाः। किं प्रा॑यणमग्निहो॒त्रमिति॑। व॒त्सो वा अ॑ग्निहो॒त्रस्य॒ प्राय॑णम्। अ॒ग्नि॒हो॒त्रं य॒ज्ञानाम्। - तै.ब्रा. २.१.५.१

*अग्नेर्हुतादजनीति। तदग्निहोत्रस्याग्निहोत्रत्वम्। - तै.ब्रा. २.१.६.३

*गौर्वा अग्निहोत्रम्। - तै.ब्रा. २.१.६.३

*वायव्यं वा एतदुपसृष्टम् । आश्विनं दुह्यमानम् । मैत्रं दुग्धम् । अर्यम्ण उद्वास्यमानम् । त्वाष्ट्रमुन्नीयमानम् । बृहस्पतेरुन्नीतम् । सवितुः प्रक्रान्तम् । द्यावापृथिव्य ह्रियमाणम् ऐन्द्राग्नमुपसादितम् । सर्व्वाभ्यो वा एष देवताभ्यो जुहोति योऽग्निहोत्रं जुहोति। - तै.ब्रा. २.१.८.३

*अग्निहोत्रं वै दशहोतुर्निदानम्। - तै.ब्रा. २.२.११.६

*रेतो वा एतद् वाजिनमाहिताग्नेः यदग्निहोत्रम्। - तै.ब्रा. ३.७.३.६

*सूर्यो ह वा अग्निहोत्रम्। तद्यदेतस्या अग्र आहुतेरुदैत्तस्मात्सूर्योऽग्निहोत्रम् - मा.श. २.३.१.१

*नौर्ह वाऽएषा स्वर्ग्या यदग्निहोत्रं तस्याऽएतस्यै नावः स्वर्ग्याया आहवनीयश्चैव गार्हपत्यश्च नौमण्डे ऽअथैष एव नावाजो यत्क्षीरहोता। - मा.श. २.३.३.१५

*स यो हैवं विद्वानग्निहोत्रं च जुहोति दर्शपूर्णमासाभ्यां च यजते मासि मासि  हैवास्याश्वमेधेनेष्टं भवति। - मा.श. ११.२.५.५

*किमिति (अग्निहोत्रम्) पय एवेति। यत्पयो न स्यात् केन जुहुया इति व्रीहियवाभ्यामिति यदु व्रीहियवौ न स्यातां केन जुहुया इति या अन्या ओषधय इति यदन्या ओषधयो न स्युः केन जुहुया इति या आरण्या ओषधय इति यदारण्या ओषधयो न स्युः केन जुहुया इति वानस्पत्येनेति यद्वानस्पत्यं न स्यात्केन जुहुया इत्यद्भिरित यदापो न स्युः केन जुहुया इति। स होवाच। न वाऽइह तर्हि किं चनासीदथैतदहूयतैव सत्यँँ श्रद्धायामिति। - मा.श. ११.३.१.२

*प्राण एव अग्निहोत्रम्। - मा.श. ११.३.१.८

*षण्मिथुनब्राह्मणम्यो ह वा अग्निहोत्र षण्मिथुनानि वेद। मिथुनेन मिथुनेन ह प्रजायते सर्वाभिः प्रजातिभिः। यजमानश्च पत्नी च तदेकं मिथुनम्। तस्मादस्य पत्नीवदग्निहोत्रं स्यात्। एतन्मिथुनमुपाप्नवानीति। वत्सश्चाग्निहोत्री च तदेकं मिथुनम्। तस्मादस्य पुंवत्साऽग्निहोत्री स्यात्। एतन्मिथुनमुपाप्नवानीति। स्थाली चांगाराश्च तदेकं मिथुनम्। स्रुक् च स्रुवश्च तदेकं मिथुनम्। आहवनीयश्च समिच्च तदेकं मिथुनम्। आहुतिश्च स्वाहाकारश्च तदेकं मिथुनम्। - मा.श. ११.३.२.१

यह अन्वेषणीय है कि अग्निहोत्र में मिथुन को इतना महत्त्व क्यों दिया गया है। हो सकता है कि मिथुन से तात्पर्य कार्य-कारण से हो। जहां कार्य-कारण की भी प्रतीति नहीं होती, सब घटनाएं केवल द्यूत प्रतीत होती हैं, वह स्थिति अग्निहोत्र से भी नीचे है। कार्य-कारण की स्थिति को सत्य स्थिति कहा जा सकता है(कलियुग में धर्मरूप वृषभ का केवल सत्य पाद शेष रह जाता है)।

*एतद्वै जरामर्य सत्त्रं यदग्निहोत्रं जरया वा ह्येवास्मान्मुच्यन्ते मृत्युना वा मा.श. १२.४.१.१

*स्वर्ग्यं वा एतद्यदग्निहोत्रम्। - मा.श. १२.४.२.७

*मुखं वाऽएतद्यज्ञानां यदग्निहोत्रम्। - मा.श. १४.३.१.२९

 न वै पुराहोरात्रे आस्तां ते एतयाहुत्योभे सहसृज्येतां यत् सायं जुहोति तेन भ्रातृव्याय पराचीं विवासयति यत् प्रातस्तेनात्मने प्रतीचीम्- काठक सं. ६.१

*अग्नेर्वै गुप्त्या ऽग्निहोत्रँँ हूयते, यत्सायं जुहोति तेनैनं रात्र्यै रमयति, यत्प्रातस्तेनाह्ने। - काठक सं. ६.१

*ब्रह्माजुहोत् सत्यमजुहोदमुमेव तदादित्यमजुहोदेष ह्येवाग्निहोत्रम्। - काठ.सं. ६.१

*यदि पयो न विन्देदाज्येन (अग्निहोत्रं) जुहुयात् तद्ध्यप्रतिषेक्यम् अपशव्यमीश्वरम् अस्याशान्तँँ शुचा पशून्निर्दहः। - काठ.सं. ६.३

*यदि पयो न विन्देद्यवाग्वा(अग्निहोत्रं) जुहुयात् तद्धि प्रतिषेक्यँ शान्तं मिथुनं पशव्यमापश्च तण्डुलाश्च। - काठ.सं. ६.३, कपिष्ठल कठ सं. ४.२

*हविर्वा एतद् यद् अग्निहोत्रम्। - काठ.सं. ६.४

*यद्यवाग्वाग्निहोत्रं जुहोत्यमुमेव तदादित्यं जुहोत्येष(आदित्यः) ह्येवाग्निहोत्रम्। - काठ.सं. ६.३

*अग्नौ ज्योतिर्ज्योतिरग्ना इति सायमग्निहोत्रं जुहुयाद्गर्भिण्या वाचा गर्भं दधाति मिथुनया वाचा गर्भं दधाति सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिस्सूर्य इति प्रातस्तं गर्भिण्या वाचा मिथुनया प्रजनयति यन्निरुक्तं चानिरुक्तं च तन्मिथुनं यद्यजुषा च मनसा च तन्मिथुनं काठ.सं. ६.५

*यज्जुहोति तद्देवानां यदुद्दिशति तेन रुद्रँ शमयति यन्निमार्ष्टि तत् पितॄणां यत् प्राश्नाति तन्मनुष्याणां तस्मात् अग्निहोत्रं वैश्वदेवमुच्यते। - काठक सं. ६.५

*इध्मो वा एषोऽग्निहोत्रस्य यत् समित् काठ.सं. ६.५

*अम्नः सूर्ये निम्रुक्ते सायमग्निहोत्रं जुहुयात्। उपोदयँ सूर्यस्य प्रातः। - काठक सं. ६.५

*अग्नये चैव सायं(जुहोमि), प्रजापतये चेत्यब्रवीत्, सूर्याय च प्रातः प्रजापतये चेति। - काठक सं. ६.६

*न राजन्यस्याग्निहोत्रमस्त्यव्रत्यो हि स हन्ति व्रतम्। - काठ.सं. ६.६

*उद्भूतिर्वा एतत् प्रभूतिर्यदग्निहोत्रम्। - काठ.सं. ६.७

*प्रजननं वा एतद् यदग्निहोत्रम्, अग्निः प्रजनयिता। - काठ.सं. ६.७

*भूर्भुवः स्वरग्नौ ज्योतिर्ज्योतिरग्ना इत्यग्निहोत्रं जुहुयात्। - काठ.सं. ६.७

*यर्ह्ययं (रुद्रः) देवाः प्रजा अभिमन्येत सजूर्जातवेदो दिवा पृथिव्या हविषो वीही स्वाहेति द्वादश रात्रीरग्निहोत्रं जुहुयात्। - काठ.सं. ६.७, कपि.कठ सं. ४.६

*रेतो वा एतद् यदग्निहोत्रम्। - काठ.सं. ६.७

*सृष्टिर् वा एतद्यदग्निहोत्रम्। - काठ.सं. ६.७

*सायमहुतेऽग्निहोत्रेऽग्निहोत्रिणा नाशितव्यं - - - प्रातरहुते नाशितव्यं। - मै.सं. १.५.७

*सददि वा एष ददाति योऽग्निहोत्रं जुहोति। - मै.सं. १.५.१२

*अग्नये वा एतद् (अग्निहोत्रं) धृत्यै गुप्त्यै हूयते, यत् सायं जुहोति रात्र्यै तेन दाधार, यत्प्रातरह्ने तेन। - मै.सं. १.८.१

*स्वा ह्येनं वागभ्यवदत् , तत् अग्निहोत्रे स्वाहाकारः। - मै.सं. १.८.१

*होत्रा वै देवेभ्योऽपाक्रामन्नग्निहोत्रे भागधेयमिछमाना यदग्निहोत्रमित्याह तेन होत्रा आभजति तेनैना भागिनीः करोत्येषा वा अग्रेऽग्ना आहुतिराहूयत तदग्निहोत्रस्याग्निहोत्रत्वम्। - मै.सं. १.८.१

*अग्निहोत्रे वै सर्वे यज्ञक्रतवः। - मै.सं. १.८.६

*योऽग्निहोत्रं जुहोति स हविष्मान्। - मै.सं. १.८.६

*ब्राह्मणस्यैव(अग्निहोत्रम्) होतव्यम् - - - अथो य ऋतमिव सत्यमिव चरेत् तस्य होतव्यमनुसन्तत्यै। - मै.सं. १.८.७

*अग्निहोत्रं वै दशहोता। - मै.सं. १.९.५

*आयुषे कमग्निहोत्र हूयते सर्वमायुरेति य एवं वेद मै.सं. १.९.५

*द्विर्ह्यग्निहोत्र हूयते मै.सं. ३.६.१०

*यदग्निहोत्रमासीत्तद् व्रतमुपायस्तस्माद्विव्रतेन भवितव्यम्। - मै.सं. ३.६.१०

*अग्निहोत्रेण वै देवाः स्वर्गं लोकमायन्। - काठक संकलन ५६

*अग्निहोत्रेऽश्वमेधस्याप्तिः। - काण्व श.ब्रा. ३.१.८.२

*सोऽमृतत्वं गच्छति य एवं विद्वानग्निहोत्रं जुहोति। - जै.ब्रा. १.२

*तद्व वा अपराजितं यदग्निहोत्रम्। न ह वै पराजयते य एवं वेद। - जै.ब्रा. १.४

*तदेतदपर्यन्तं यद् अग्निहोत्रम्। - जै.ब्रा. १.४

अग्निर् ज्योतिर् ज्योतिर् अग्निस् स्वाहा इत्य् अष्टाक्षरेण जुहोति। अष्टाक्षरा गायत्री। तद् एव प्रातःसवनम्। मनसा निष्केवल्येनोत्तराम् आहुतिं जुहोति। तद् एव माध्यंदिनं सवनम्। उपमृष्टे प्राश्नाति। तद् एव तृतीयसवनम्। लेलिहितम् इव हि तत् तृतीय सवनम्॥ उपरिष्टाद् अप उपस्पृशति। अवभृथ एवास्य सः॥ जै.ब्रा. १.४

*ब्रह्म वा अग्निहोत्रम्। - जै.ब्रा. १.५

*अन्नं वा अग्निहोत्रम्। - जै.ब्रा. १.६

*तदेतत् प्राजापत्यं(वैश्वदेवम्) यदग्निहोत्रम्। - जै.ब्रा. १.६

*सर्वस्मात्पाप्मनो निर्मुच्यते स य एवं विद्वानग्निहोत्रं जुहोति। - जै.ब्रा. १.९

*तस्मादाहुः प्राणोऽग्निहोत्रमिति। - जै.ब्रा. १.२०

*रौद्रं गवि (पयः) वायव्यमुपसृष्टम् आश्विनं दुह्यमानम् अग्नीषोमीयं दुग्धं पौष्णाः प्रेन्दवो मैत्रश्शरो वारुणमधिश्रितं वैष्णवं प्रतिष्ठाप्यमानं वैश्वदेवमुन्नीतं सवितुः प्रक्रान्तं द्यावापृथिव्योरुपसन्नम् इन्द्राग्न्योः पूर्वाहुतिः प्रजापतेरुत्तरा। तदेतत्सप्तदशमग्निहोत्रम्। - जै.ब्रा. १.२१

*त्रयोऽग्निहोत्रे स्थाणव इति ह स्माह शाण्डिल्यः। यदप्रदीप्तायां समिधि जुहोति स स्थाणुः। यदेनामपराध्नोति स स्थाणुः यदेने संसृजति स स्थाणुः। - जै.ब्रा. १.२१

*तद्वै तदग्निहोत्रं त्र्यहमेव पयसा जुहुयात्। तद्वा अग्निष्टोमस्य रूपम्। - जै.ब्रा. १.३८

*..... ममैवैते लोका अभूवन्न् इति। ते केनाभिजय्या इति एतेनैव पञ्चगृहीतेन पञ्चोन्नीतेनेति। न वै किलान्यत्राग्निहोत्राल्लोकजित्या अवकाशोऽस्ति। - जै.ब्रा. १.४४

*दीर्घसत्त्रं ह वा एत उपयन्ति येऽग्निहोत्रं जुह्वति। एतद्ध वै सत्त्रं जरामूरीयम्। जरया वा ह्येवास्मान्मुच्यते मृत्युना वा। - जै.ब्रा. १.५१

*तद्वै तदग्निहोत्रं त्र्यहमेव दध्ना जुहुयात्. तद्वै वाजपेयस्य रूपम्। - जै.ब्रा. १.३८

*प्राजापत्यम् अग्निहोत्रम्। - जै.ब्रा. १.६०

*अथ ह ततः पुराऽहोरात्रे संश्लिष्टे एवासतुरव्याकृते, ते उ अग्निहोत्रेण एव व्याकृते। - जै.ब्रा. १.२१२

*तद्यद्दीक्षोपसत्सु स्वाहेति व्रतयति तेनास्य दीक्षोपसत्स्वनन्तरितमग्निहोत्रं भवति। यदुपांश्वन्तर्यामावुदितेऽन्यं जुह्वत्यनुदितेऽन्यं, तेन सुत्यायाम्। - जै.ब्रा. २.३८

*तदेतद्वैराजं दशविधमग्निहोत्रं भवति, तस्य प्राण एवाहवनीयोऽपानो गार्हपत्यो व्यानोऽन्वाहार्यपचनो मनो धूमो मन्युरर्चिर्दन्ता अङ्गाराश्श्रद्धा पयो वाक् समित् सत्यमाहुतिः प्रज्ञात्मा स रसः। - शां.आ. १०.८

*दुग्धेन सायं प्रातरग्निहोत्रं जुहुयात्। - कौ.ब्रा. ४.१४

* आग्रयणेष्टिः -- अपि वा यवाग् वा एव सायम् प्रातर् अग्निहोत्रम् जुहुयान् नवानाम् उभयस्य आप्त्यै ।- कौ.ब्रा. ४.१४

*यत्पयसाग्निहोत्रं जुहोत्यममुमेव तदादित्यं जुहोति। - कपिष्ठल कठ सं. ४.२

*यज्जुहोति तद्देवानाम्। यन्निमार्ष्टि तत्पितॄणाम्। यत् प्राश्नाति तन्मनुष्याणाम्। तस्मादग्निहोत्रं वैश्वदेवमुच्यते। - कपिष्ठल कठ सं. ४.४

*अधिवृक्षसूर्य आविःसूर्ये वा धृष्टिरसि ब्रह्म यच्छेत्युपवेषमादाय गार्हपत्यमभिमन्त्रयते सुगार्हपत्य इति। अथैनं बोधयत्युद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृह्येनमिष्टापूर्ते संसृजेथामयं च। अस्मिन्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन्विश्वे देवा यजमानश्च सीदतेति। उद्धरेत्येव सायमाह यजमानः। उद्धरेति प्रातः। - आप.श्रौ.सू. ६.१.२

*स्वयं यजमान इध्मानाहरति विश्वदानीमाभरन्तो नातुरेण मनसा। अग्ने मा ते प्रतिवेशा रिषामेत्येतया। यदग्ने यानि कानि चेत्येताभिः पञ्चभिः प्रतिमन्त्रमग्निषु महत इध्मानादधाति। आहवनीये वर्षिष्ठम्। - आप.श्रौ.सू. ६.२.२

*वाचा त्वा होत्रा प्राणेनोद्गात्रा चक्षुषाध्वर्युणा मनसा ब्रह्मणा श्रोत्रेणाग्नीधैतैस्त्वा पञ्चभिर्दैव्यैर्ऋत्विग्भिरुद्धरामीति गार्हपत्यादाहवनीयं ज्वलन्तमुद्धरति। - आप.श्रौ.सू. ६.१.६

*अ॒ग्नि॒हो॒त्रप्रा॑यणा य॒ज्ञाः। किं प्रा॑यणमग्निहो॒त्रमिति॑। व॒त्सो वा अ॑ग्निहो॒त्रस्य॒ प्राय॑णम्। अ॒ग्नि॒हो॒त्रं य॒ज्ञानाम्। - तै.ब्रा. २.१.५.१

तस्य पृथिवी सदः । अन्तरिक्षमाग्नीध्रम् । द्यौर्हविर्धानम् । दिव्या आपः प्रोक्षणयः । ओषधयो बर्हिः वनस्पतय इध्मः । दिशः परिधयः । आदित्यो यूपः । यजमानः पशुः । समुद्रो ऽवभृथः । संवत्सरः स्वगाकारः । तस्मादाहिताग्नेः सर्वमेव बर्हिष्यं दत्तं भवति । तै.ब्रा. २.१.५.१

*षण्मिथुनब्राह्मणम्यो ह वा अग्निहोत्रे षण्मिथुनानि वेद। मिथुनेन मिथुनेन ह प्रजायते सर्वाभिः प्रजातिभिः। यजमानश्च पत्नी च तदेकं मिथुनम्। तस्मादस्य पत्नीवदग्निहोत्रं स्यात्। एतन्मिथुनमुपाप्नवानीति। वत्सश्चाग्निहोत्री च तदेकं मिथुनम्। तस्मादस्य पुंवत्साऽग्निहोत्री स्यात्। एतन्मिथुनमुपाप्नवानीति। स्थाली चांगाराश्च तदेकं मिथुनम्। स्रुक् च स्रुवश्च तदेकं मिथुनम्। आहवनीयश्च समिच्च तदेकं मिथुनम्। आहुतिश्च स्वाहाकारश्च तदेकं मिथुनम्। - मा.श. ११.३.२.१

यह अन्वेषणीय है कि अग्निहोत्र में मिथुन को इतना महत्त्व क्यों दिया गया है। हो सकता है कि मिथुन से तात्पर्य कार्य-कारण से हो। जहां कार्य-कारण की भी प्रतीति नहीं होती, सब घटनाएं केवल द्यूत प्रतीत होती हैं, वह स्थिति अग्निहोत्र से भी नीचे है। कार्य-कारण की स्थिति को सत्य स्थिति कहा जा सकता है(कलियुग में धर्मरूप वृषभ का केवल सत्य पाद शेष रह जाता है)। 

 

 

 

  

  

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