Ajameedha - Ajaa - Ajina अजमीढ - अजा - अजिन
अजमीढ
टिप्पणी : ऋग्वेद ४.४३ व ४.४४ तथा अथर्ववेद २०.१४३ सूक्तों के ऋषि सुहोत्र के पुत्र पुरुमीढ व अजमीढ हैं जहां वे अश्विनौ की स्तुति करते हैं। पौराणिक वर्णन और वैदिक स्तुति में तादात्म्य अन्वेषणीय है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अजा
टिप्पणी : सत्, रज और तम से युक्त प्रकृति अजा है। जीवात्मा रूपी एक अज इस अजा का भोग करता है। परमात्मा रूपी एक दूसरा अज निष्काम भाव से अजा को देखता रहता है। - फतहसिंह
अजा के विषय में ब्राह्मण ग्रन्थों को मुख्यतः दो धाराओं में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम धारा ऋग्वेद १०.९०.१० पुरुष सूक्त में प्रजापति से अश्व, गौ, अज व अवि पशुओं की उत्पत्ति से आरम्भ होती है। ऐतरेय ब्राह्मण २.८ इसकी व्याख्या का एक रूप है जहां पुरुष पशु का आलभन करने से उसका मेध क्रमशः चारों पशुओं में प्रवेश करता है। अन्य कईं स्थानों जैसे शतपथ ब्राह्मण ६.२.२.१५ तथा काठक संहिता १३.१ में स्वयं अजा के विभिन्न अङ्गों को चारों पशुओं के रूप में चित्रित किया गया है। दूसरी धारा तैत्तिरीय आरण्यक १०.१०.१ तथा श्वेताश्वर उपनिषद आदि में प्रकट होने वाले मन्त्र अजामेकं कृष्णां इति मन्त्र की व्याख्या के रूप में है। जो इन्द्रियों या बुद्धि रूपी कपाल का रस है(शतपथ ब्राह्मण ६.१.१.११), वह अजा का रूप धारण कर सकता है। अजा सभी उपलब्ध रसों का आस्वादन कर सकती है(शतपथ ब्राह्मण ६.५.४.१६)।तप से इस रस को अन्तर्मुखी बना सकते हैं(जैमिनीय ब्राह्मण १.२९४, शतपथ ब्राह्मण ३.३.३.८)। अथर्ववेद ९.५ अज ओदन देवता का सूक्त है जो अजा शक्ति को ऊर्ध्वमुखी उदान प्राण बनाने से सम्बन्धित है।
अश्व, गौ, अज व अवि पशुओं में अन्तर विचारणीय है। अज का श्रेष्ठ रूप एक पाद रूप में है जबकि अवि का द्विपाद रूप में। अश्विनौ देवगण के लिए अजा देने का विधान है(शतपथ ब्राह्मण १२.७.२.७) जबकि सरस्वती के लिए अवि दी जाती है। शुक्ल यजुर्वेद ३०.११ के अनुसार अज तेज से और अवि वीर्य से सम्बन्धित है। ऋग्वेद ६.५६.६ तथा १०.२६.८ में अजासः को पूषा देवता के रथ का वाहक कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद २.१८.१ में अजा, अवि आदि को भक्ति योग के हिंकार, प्रस्ताव आदि कहा गया है। हिंकार सूर्य की अनुदित अवस्था तथा प्रस्ताव सूर्य की उदित अवस्था का नाम है। इसके पश्चात् चन्द्रमा का उदय होता है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अजिन
टिप्पणी : यज्ञ में कृष्णाजिन के उपयोग का उल्लेख आता है। गोपथ ब्राह्मण १.२.२ के अनुसार ब्रह्मचारी मृगाजिन से ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति करता है। जैमिनीय ब्राह्मण २.६६ के अनुसार कृष्णाजिन में जो शुक्ल भाग है, वह सामों का और कृष्ण भाग ऋचाओं का रूप है। जो बभ्रु या हरित वर्ण है, वह यजुओं का रूप है। द्यौ और पृथ्वी, दोनों को कृष्णाजिन कहा गया है(काठक संहिता १९.४, तैत्तिरीय संहिता ५.१.४.३)। तैत्तिरीय संहिता ५.१.१०.५ इत्यादि के अनुसार कृष्णाजिन ब्रह्म का रूप है। शतपथ ब्राह्मण ६.४.२.६ के अनुसार कृष्णाजिन अग्नि का स्व-लोक है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.