Ananga - Anapatya - Anamitra - Anaadhrishti
अनङ्ग
टिप्पणी : बहिर्मुखी चित्तवृत्तियों का निरोध कर देने पर, या काम को भस्म कर देने पर काम अनङ्ग हो जाता है। तब यह वही काम है जिसके लिए गीता में कृष्ण ने कहा है – धर्माविरुद्धो कामोऽहं, अर्थात् मैं धर्म के अविरुद्ध काम हूं। - फतहसिंह
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अनपत्य
टिप्पणी : अथर्ववेद के तीन मन्त्रों और ऋग्वेद ३.५४.१८ में अनपत्य शब्द प्रकट हुआ है। अथर्ववेद १८.२.४७ में द्वेषों को अनपत्यवान् कहा गया है। साधना के मार्ग में सिद्धि प्राप्त न होने की दशा को अनपत्यता कहा जा सकता है। जिसने अनपत्यता के कारणों पर विजय पा ली है, उसे अनपत्य पति कहा जा सकता है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अनमित्र
टिप्पणी : अथर्ववेद ६.४०.३ में पांचों दिशाओं के अनमित्र(अन् + अमित्र, जिसका कोई शत्रु नहीं) होने की कामना की गई है। अथर्ववेद १२.१.१० में कहा गया है कि जिस अनमित्रा पृथ्वी को विष्णु ने पद से मापा, जिसे इन्द्र ने शत्रुहीन किया, वह पृथ्वी हमें पयः प्रदान करे।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अनाधृष्टि
टिप्पणी : वेदों में अनाधृष्ट, अनाधृष्य आदि शब्द प्रकट हुए हैं। तप से अनाधृष्य होते हैं(ऋग्वेद १०.१५४.२)। मरुत ओज द्वारा अनाधृष्ट होते हैं(ऋग्वेद १.१९.४)। अथर्ववेद २०.९४.५ में पात्रों के अनाधृष्य होने की कामना की गई है। जैमिनीय ब्राह्मण ३.३१० के अनुसार शरीर में पृथ्वी भाग, अन्तरिक्ष भाग व आकाश भाग से गायत्री का संयोग होने पर अग्नि, द्यौ व आदित्य की उत्पत्ति होती है। शांखायन ब्राह्मण २७.५ में अग्नि, द्यौ व आदित्य को अनाधृष्य कहा गया है क्योंकि इनकी गति ऊपर की ओर है। शतपथ ब्राह्मण ८.२.४.४ में अन्न को विराट् व अनाधृष्ट कहा गया है। पुराणों में अनाधृष्टि को भोजा-पुत्र कहा गया है। भोजा जो भोजन देगी, वह अनाधृष्ट होगा।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.