पुराण विषय अनुक्रमणिका(अ-अनन्त) Purana Subject Index

Aksha

 

अक्ष

टिप्पणी : महाभारत में वन पर्व ७२ में नलोपाख्यान के अन्तर्गत आता है कि नल राजा ऋतुपर्ण का सारथी बना । मार्ग में ऋतुपर्ण ने बिभीतक का वृक्ष देखकर उसके पत्ते व फल तुरन्त गिनकर बता दिए। वह अक्ष विद्या जानता था । नल ने उससे अश्व विद्या के बदले अक्ष विद्या सीख ली । अक्ष विद्या सीखते ही कलि उसके शरीर से निकल कर बाहर खडा हो गया ।

           ऋग्वेद १०.३४.१३ में आता है कि अक्षैः मा दीव्येत्, कृषिमित् कृषस्व । अक्ष अर्थात् अपनी इन्द्रियों के साथ जुआ न खेले । उनका दुरुपयोग न करे । उनका उपयोग शक्ति के कर्षण के लिए, शक्ति का आरोहण करने के लिए करे । आंख को अक्षि कहते हैं । जब तक आंखें इधर - उधर जाती हैं, तब तक वह  आंखों का जुआ है । नल अश्व विद्या जानता है । अश्व का अर्थ होगा जिसकी चेतना व्याप्त हो गई है । यह सामूहिक आरोहण है । इसके विपरीत अक्ष सीधे आरोहण करने की एकांगी साधना है । अक्ष विद्या सीखते ही कलि बाहर निकल जाता है - फतहसिंह

 

          शतपथ ब्राह्मण ५.४.४.२३ के अनुसार जो अक्षों का अधिदेवता अग्नि है, वह पृथु है, विस्तीर्ण आयामों वाला है । अतः जब इस अधिदेवन पर अंगार रूपी अक्षों को फेंका जाता है तो इसका अर्थ होगा कि अक्ष भी अग्नि की विस्तीर्ण चेतना में समाहित हो जाएं । अधिदेवन शब्द अधिदैव का, भाग्य का प्रतीक हो सकता है। शतपथ ब्राह्मण का उपरोक्त कथन राजसूय यज्ञ के संदर्भ में है जिसमें अभिषेक के पश्चात् द्यूत क्रीडा का कर्म सम्पन्न होता है ) । लेकिन अक्षों में विकार होने के कारण इस क्रिया में बाधा आती है । जब इन्द्र गौतम ऋषि की पत्नी से समागम करता है, तो गौतम उसको सहस्रभग होने का शाप देते हैं। जब इन्द्र गौतम को प्रसन्न कर लेता है तो गौतम उसे सहस्रभग के सहस्राक्ष रूप में रूपान्तरित होने का वरदान देते हैं। यहां सहस्रभग भाग्य का प्रतीक हो सकता है तथा सहस्राक्ष शब्द भाग्य पर निर्भर न रहकर स्वयं के दोष देखने का प्रतीक हो सकता है।

 

तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.४.१६.१ से संकेत मिलता है कि अक्षों का विभाजन मुख्यतः चार युगों के अनुसार कृत, त्रेता, द्वापर व कलि में किया जा सकता है । इनमें से कृत और कलि का उल्लेख प्रायः वेद मन्त्रों में ( उदाहरणार्थ अथर्ववेद ७.५२.८) अक्ष के संदर्भ में आता है । कृत अक्ष वह हैं जिन्हें यजमान ने जीत लिया है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ५.१९.२ व ५.२०.१ के अनुसार यजमान कृत से जिस धन को प्राप्त करता है, उससे सभासदों को अन्न प्रदान करता है/ओज देता है । बौधायन श्रौत सूत्र २२.१९.१० में अक्षों का वर्गीकरण सौवर्ण, राजत, नागदन्त व बैभीतक इन चार में किया गया है । षड्-विंश ब्राह्मण ५.६.४ में चार युगों का सम्बन्ध क्रमशः कुहू अमावास्या, राका पूर्णिमा, सिनीवाली अमावास्या व अनुमति पूर्णिमा से किया गया है । त्रेता के संदर्भ में षड्-विंश ब्राह्मण में त्रेता को खर्व/वामन कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३५१ तथा आश्वलायन गृह्य सूत्र २.६.२ में वामदेव या वामन प्रकार के अक्षों का वर्णन है । वामन अक्षों के संदर्भ में इनके पादों का हृदय में स्थित होने का उल्लेख किया गया है । मैत्रायणी उपनिषद ७.११ में दक्षिण व सव्य अक्षियों में स्थित इन्द्र व इन्द्राणी का उल्लेख है जिनका समागम हृदयाकाश में होता है । हो सकता है कि यह भी वामन के पादों से सम्बन्धित हो । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.४.१६.१ में त्रेता के साथ आदिनवनदर्श का उल्लेख है । अथर्ववेद ७.११४.४ के अक्ष सूक्त में भी आदिनव का उल्लेख आया है जिसकी प्रकृति को अधिक स्पष्ट करना अपेक्षित है । द्वापर प्रकार के अक्षों के संदर्भ में महाभारत सभापर्व में युधिष्ठिर के साथ द्यूत खेलने वाला शकुनि द्वापर का अंश है । तैत्तिरीय ब्राह्मण में द्वापर के साथ बहि: सदम् शब्द को रखा गया है । कलि प्रकार के अक्षों का वर्णन पुराणों में नल आदि की कथाओं में पर्याप्त रूप से मिलता है । अथर्ववेद ७.११४.१ में कहा गया है कि घृत द्वारा कलि को शिक्षा देनी है । शतपथ ब्राह्मण ५.४.४.६ में कलि को अयानः अभिभू: कहा गया है तथा इसके साथ ५ दिशाओं का सम्बन्ध कहा गया है । इसके प्रतीक रूप में राजसूय यज्ञ में यजमान के हाथों में ५ अक्ष रखते हैं । कलि अक्ष बिभीतक प्रकार के हैं । बिभीतक अर्थात् जिनमें मृत्यु का भय छिपा हुआ है । महाभारत में नल - दमयन्ती की कथा का आधार कलि ही है । यह अन्वेषणीय है कि महाभारत सभापर्व में इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर व ब्रह्मा की सभाओं क वर्णन का क्या कलि की ५ दिशाओं से सम्बन्ध हो सकता है ? यह भी विचारणीय है कि अथर्ववेद १९.५३.२ में काल के जिस अमृत अक्ष का उल्लेख है, क्या काल भी कलि का विकसित रूप है ?

          वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है कि जब सोमलता को ढोने वाली शकट के अक्षों व चक्रों के घर्षण से ध्वनि उत्पन्न होने लगे तो यजमान - पत्नी यज्ञशेष घृत हाथों में लेकर उसे अक्षों में लगाती है ( तुलनीय : पुराणों में कैकेयी द्वारा स्व हस्त को अक्ष बनाना ) तथा जो वाक् उत्पन्न हुई है, वह आसुरी न बने, इस हेतु अक्रन्ददाग्निः इत्यादि मन्त्र का उच्चारण करती है ( आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १६.१२.७, कात्यायन श्रौत सूत्र ८.३.२८, शतपथ ब्राह्मण ३.५.३.१३, ६.८.१.१० ) । ऋग्वेद १.१६४.१३ की ऋचा के अनुसार सूर्य के रथ का अक्ष ऐसा है कि उस पर बहुत भार होते हुए भी उसका तापन नहीं होता, उसमें घर्षण नहीं होता । इस संदर्भ में यज्ञशेष घृत को अक्षों में लगाने वाली यजमान - पत्नी से क्या तात्पर्य हो सकता है ? बृहदारण्यक उपनिषद ४.२. के अनुसार दक्षिण अक्षि/अक्षन् में स्थित पुरुष की विराट पत्नी है । अतः जब अक्ष, घृत व विराट चेतना का मिलन होगा तब दैवी वाक् का, स्तुति का जन्म होगा, अन्यथा अक्षों से आसुरी वाक् ही निकलती रहेगी । महाभारत में अक्षों को बाण कहने का तात्पर्य भी वाण या स्तुति से हो सकता है । तैत्तिरीय संहिता ६.२.९.१ में दुर्वाक् उत्पन्न करने वाले अक्ष को वरुण कहा गया है जो सत्यानृत का निर्णय करता है । तैत्तिरीय संहिता ६.१.९.१ के अनुसार यह जो अक्ष चक्र की नाभि से लगातार सम्पर्क करते हुए आगे बढता है, यह उसका शोधन करता है । शोधन वरुण का कार्य है । दूसरी ओर, पत्नी जिसके द्वारा सुवाक् उत्पन्न होती है, मित्र के समान है । शतपथ ब्राह्मण ५.१.२.१५, कात्यायन श्रौत सूत्र १४.२.६ तथा जैमिनीय ब्राह्मण १.७७ आदि में उल्लेख आता है कि अध्वर्यु ऋत्विज सोम ग्रह को हविर्धान शकट के अक्ष के ऊपर धारण करता है, जबकि नेष्टा ऋत्विज सुरा ग्रह को अक्ष के नीचे धारण करता है । दोनों ग्रहों को अलग - अलग रखा जाता है । पुराणों में सार्वत्रिक रूप से एक कथन उपलब्ध होता है (भविष्यपुराण १.५२.१५, लिङ्ग १.५५.७, विष्णु २.८.६, स्कन्द १.२.३८.५) कि अक्षद्वय में से एक ध्रुव में निबद्ध है और दूसरा मानस पर्वत में।  तैत्तिरीय संहिता २.६.३.३ में प्रश्न उठाया गया है कि पुरोडाश के नीचे व ऊपर आज्य का लेप क्यों किया जाता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि जैसे अक्ष के ऊपर व नीचे आज्य न लगाने से वह नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार पुरोडाश भी है । पुरोडाश के ऊपर व नीचे के पृष्ठ द्यावापृथिवी के प्रतीक होते हैं । अक्ष के संदर्भ में भी सार्वत्रिक रूप से वर्णन आता है कि इन्द्र ने द्यौ व पृथिवी को आकाश में स्थिर किया ( तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.५.२, ३.७.७.१, शतपथ ब्राह्मण ३.५.३.१४, ऋग्वेद १०.८९.४ ), वैसे ही जैसे शकट में अक्ष के दोनों ओर दो चक्र स्थित रहते हैं । ऐसा अनुमान है कि द्यौ के पृथिवी से पृथक् होने के रूप में उदान प्राण के विकास का चित्रण किया गया है । पुराणों में उदान प्राण की यह पुष्टि नल - दमयन्ती कथा के माध्यम से चित्रित की गई है क्योंकि नल दक्षिणाग्नि का अधिष्ठाता है जिस पर ओदन पकाया जाता है ।

          वैदिक साहित्य में एक ओर रथ के अक्ष के लिए अक्ष शब्द का प्रयोग हुआ है तो दूसरी ओर अक्षियों/चक्षुओं के लिए भी अक्ष का प्रयोग किया गया है ( उदाहरण के लिए, शतपथ १०.५.२.७) । अथर्ववेद १९.६०.१ से संकेत मिलता है कि अक्षियों में चक्षु को स्थापित करना पडता है । अतः चक्षु व अक्षि का अलग - अलग अर्थ है । अक्षियों को अक्ष कहने कहने के पीछे तात्पर्य निमेष - उन्मेष को चक्र मानने से हो सकता है । अथवा सूर्य और चन्द्रमा के दो चक्र हो सकते हैं ।

          महाभारत में नल और पुष्कर में द्यूत क्रीडा के संदर्भ में पुष्कर कौन है ? इस संदर्भ में मैत्रायणी उपनिषद ६.१ तथा शतपथ ब्राह्मण १०.५.२.७ का कथन है कि यह आदित्य जो आकाश में विचरण करता है, जिस आकाश में दिशाएं पर्णों के रूप में स्थित हैं, यही पुष्कर है । आन्तरिक रूप में हिरण्मय पुरुष के लिए हृदय पुष्कर है ।

          ऋग्वेद १०.८५.१२ तथा अथर्ववेद १४.१.१२ में सूर्या सावित्री के मनोमय अनः/शकट के अक्ष में व्यान प्राण की उपस्थिति का उल्लेख है । अथर्ववेद १४.१.३५ में अक्षों में वर्चस होने का उल्लेख है । ऊपर अक्षों के चार युगों में विभाजन करने के संदर्भ में डा. फतहसिंह का विचार है कि अन्नमय और प्राणमय कोश की संधि एक युग है जिसके दोनों ओर अन्नमय कोश और प्राणमय कोश रूपी दो चक्र लगे हैं । दूसरा युग प्राणमय और मनोमय कोश के बीच, तीसरा मनोमय और विज्ञानमय के बीच और चौथा विज्ञानमय और हिरण्यय कोश के बीच है । इनमें नीचे के २ युगों में दर्श और पूर्णमास का एक युगल और ऊपर के २ युगों में दूसरा युगल है ।

          ऋग्वेद के सूक्त १०.३४ व अथर्ववेद के सूक्तों ७.५२ ७.११४ के देवता अक्ष हैं । वेद में अक्ष एक वचन और बहुवचन में आता है । जब अक्ष बहुवचन में आता है तो उनको ग्रहण/अन्तर्मुखी करना आना चाहिए ( अथर्ववेद ७.११४.५) । अथर्ववेद ४.३८.४ के अनुसार अक्षों में शुच व क्रोध को धारण करने वाली आनन्दिनी व प्रमोदिनी अप्सराओं का वास है । अथर्ववेद ७.११४.२ में अग्नि से प्रार्थना की गई है कि वह अप्सराओं के लिए घृत दे, अक्षों से धूलि को निकाल दे । अथर्ववेद ७.११४.१ के अनुसार बभ्रु नामक देव अक्षों में रहकर शरीर को वश में कर लेता है, तथा घृत द्वारा कलि को शिक्षा देनी है । अथर्ववेद २.२.५ में अक्षकामा, मन को मोहने वाली गन्धर्व - अप्सराओं को नमन किया गया है ।

          जब अक्ष शब्द का प्रयोग एकवचन में होता है तो यह रथ चक्र का वहन करने वाला होता है( उदाहरण के लिए, ऋग्वेद १.१६४.१३) ।

          अक्षों के संदर्भ में डा. लक्ष्मीनारायण धूत का यह कथन बहुत महत्त्वपूर्ण है कि इस प्रकृति के सभी कार्यकलाप अक्ष विद्या या द्यूत पर आधारित हैं । अंग्रजी में इसे चांस कहा जाता है । कोई घटना घटित हो सकती है या नहीं, प्रकृति में यह एक चांस मात्र है । जैसे - जैसे प्रकृति से ऊपर उठते हैं, द्यूत समाप्त होता जाता है ।

 

वैदिक साहित्य में अक्ष शब्द क्या वास्तव में इन्द्रियों के अर्थों में प्रयुक्त हुआ है ? इसका प्रमाण शतपथ ब्राह्मण ५.३.१.१०, अथर्ववेद ५.३१.६ तथा ६.७०.१ में इस कथन से मिलता है कि द्यूत क्रीडा में अक्ष/पांसे जिस पर गिराए जाते हैं, उसे अधिदेवन कहते हैं । यह अधिदेवन या अधिदेव अग्नि हो सकता है, जबकि अक्ष अंगार हैं । अधिदेव का उल्लेख यह संकेत करता है कि यह इन्द्रियों की ओर संकेत है क्योंकि इन्द्रियों के संदर्भ में अधिभूत, अध्यात्म और अधिदेव की चर्चा की जाती है । त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद १.८ में चन्द्रमा, ब्रह्मा, दिशा, वायु, अर्क, वरुण, अश्विनौ, अग्नि, इन्द्र, उपेन्द्र, प्रजापति व यम नामक १२ अक्ष अधिदेवताओं को गिनाया गया है । ५ अधिभूतों के रूप में आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथिवी का नाम आता है । इन ५ तत्त्वों के सात्त्विक अंशों से क्रमशः श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना व घ्रण नामक ५ ज्ञानेन्द्रियों का प्रादुर्भाव होता है ( श्रीधीश गीता, ६.८) । ५ अधिभूतों के राजसिक अंश से क्रमशः वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ व गुदा नामक ५ कर्मेन्द्रियों का प्रादुर्भाव होता है । इन ५ अधिभूतों के तामसिक अंशों से पांच महाभूतों का जन्म होता है । इसके अतिरिक्त, मन, बुद्धि, चित्त व अहकार का जन्म उपरोक्त ५ तत्त्वों की समष्टि से होता है । शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध को ५ तन्मत्राएं कहते हैं ।  

In vedic and puraanic literature, there are two famous arts – the art of gambling called Aksha vidyaa and the art of horse riding, called the Ashva vidyaa. Aksha seems to be connected with concentrating the energy of universe into itself, just like a magnet. On the other hand, the art of horse riding or Ashva vidya is connected with spreading oneself into the universe. Dr. Fatah Singh has pointed out the famous mantra of  Rigveda which becomes the basis for further understanding of Aksha. According to this mantra, one should not play dice with aksha/dice. Instead, the dice should be used to plough the field for agriculture. A dice which can be used for gambling is generally round, while the one which can be used as a plough, should be pointed one. In analogy with a magnet, one can imagine that in a longitudinal aksha/axis the energy will enter from one end and exit from the other. There may be various forms of longitudinal aksha, e.g., an arrow, a plough, an axle, a pen etc. If one can make any of his faculty so pointed as an arrow, then one will be able to map all his body or all his personality with this faculty( This is the instruction given in Vipashyanaa meditation, to make consciousness as sharp as an arrow, then map the body with this arrow). This will be called a plough in agriculture. Dr. Lakshmi Narayan Dhoot has rightly pointed out that playing dice means the chance theory of nature. Every phenomenon in nature takes place as a chance. As one goes above nature, this chance gradually loses significance.

          Vedic literature mentions four types of Aksha which are the names of 4 yugas – Krita, Tretaa, Dwaapara and Kali. The last type, Kali, has been covered widely in puraanic stories. Few vedic texts instruct to conquer the first type Krita and then feed Brahmins with the wealth gained by this one. To clarify the nature of Dwaapara one, Mahaabhaarata has introduced one actor in it’s stories named Shakuni who is an incarnation of Dwaapara. Shakuni may be understood as the omens which may appear now and then. Regarding Kali type of Aksha, the famous story of Nala and Damayanti in Mahaabhaarata may be recalled. In this story, king Nala knows the art of horse riding/Ashva vidya, but he does not know the art of gambling/aksha vidya. Due to this, he loses his consort Damayanti. He is able to regain her only when he learns the art of gambling/aksha vidya. As soon as he learns this art, Kali or sin comes out of his body.

          When the aksha is longitudinal one, it is used as an axle of a chariot. Two wheels are connected at it’s ends and there are certain rituals which are performed in a yaga. It is desirable that the movement of wheels should not produce unwanted sound due to friction with the aksha/axle. If this sound is produced, this is connected with demonical nature. Therefore, yajamaana consort applies butter at he aksha ends.

          Our senses have also been called aksha. Dr. Fatah Singh says that until these senses are concentrated, these will play dice only.

 

संदर्भाः

अथ श्वो भूते । अक्षावापस्य च गृहेभ्यो गोविकर्तस्य च गवेधुकाः सम्भृत्य सूयमानस्य गृहे रौद्रं गावेधुकं चरुं निर्वपति ते वा एते द्वे सती रत्ने एकं करोति सम्पदः कामाय तद्यदेतेन यजते यां वा इमां सभायां घ्नन्ति रुद्रो हैतामभिमन्यतेऽग्निर्वै रुद्रोऽधिदेवनं वा अग्निस्तस्यैतेऽङ्गारा यदक्षास्तमेवैतेन प्रीणाति माश ५.३.१.[१०]

यं देवं देवाः प्राणाः पुरुषं परिगृह्य जाग्रति स वेद लोकं पुरुषं महान्तम्॥

इति। इमं ह वाव तं देवं देवाः प्राणाः पुरुषं परिगृह्य जाग्रति। सो ऽयम् अक्षन्न् अन्त स हैष वामनः। -जै ३.३५१

पुरुषश्चक्षुषो योऽयं दक्षिणोऽक्षिण्यवस्थितः ।     इन्द्रोऽयमस्य जायेयं सव्ये चाक्षिण्यवस्थिता ॥२ समागमस्तयोरेव हृदयान्तर्गते सुषौ ।     तेजस्तल्लोहितस्यात्र पिण्ड एवोभयोस्तयोः ॥ - मैत्रायण्युपनिषत् ७.११

अथास्मै पञ्चाक्षान्पाणावावपति अभिभूरस्येतास्ते पञ्च दिशः कल्पन्तामित्येष वा
अयानभिभूर्यत्कलिरेष हि सर्वानयानभिभवति तस्मादाहाभिभूरसीत्येतास्त पञ्च दिशः कल्पन्तामिति पञ्च वै दिशस्तदस्मै सर्वा एव दिशः कल्पयति माश ५.४.४.[६]

सप्त चक्रान् वहति काल एष सप्तास्य नाभीरमृतं न्वक्षः ।
स इमा विश्वा भुवनान्यञ्जत्कालः स ईयते प्रथमो नु देवः ॥शौअ १९.५३.

अक्रन्ददग्निरित्यक्षशब्दमनुमन्त्रयते आपश्रौ १६.१२.

दक्षिणया द्वाराऽनीता पत्नी पाणिभ्यां शेषं प्रतिगृह्याऽक्षधुरावनक्ति पराग्देवश्रुताविति युगप-त्तद्वचनत्वात् काश्रौ ८.३.२८

संस्रवं पत्न्यै पाणावानयति साक्षस्य संतापमुपानक्ति देवश्रुतौदेवेष्वाघोषतमिति प्रयच्छति- माश ३.५.३.१३

स यदाऽक्ष उत्सर्जेत् । अथैतद्यजुर्जपेदसुर्या वा एषा वाग्याऽक्षस्य तामेतच्छमयति तामेतद्देवत्रा करोति यद्वेवैतद्यजुर्जपति । यस्मिन्वै कस्मिंश्चाहितेऽक्ष उत्सर्जति तस्यैव सा वाग्भवति तद्यदग्नावाहितेऽक्ष उत्सर्जत्यग्नेरेव सा वाग्भवत्यग्निमेव तद्देवा उपास्तुवन्नुपामहयंस्तथैवैनमयमेतदुपस्तौत्युपमहयत्यक्रन्ददग्नि स्तनयन्निव द्यौरिति तस्योक्तो बन्धुः - माश ६.८.१.[११]

पञ्चारे चक्रे परिवर्तमाने तस्मिन्ना तस्थुर्भुवनानि विश्वा ।
तस्य नाक्षस्तप्यते भूरिभारः सनादेव न शीर्यते सनाभिः ॥ १.१६४.१३

 

रथमारोक्ष्यन्नाना पाणिभ्यां चक्रे अभिमृशेत् । अहन्ते पूर्वं पादावालभेद्बृहद्रथन्तरे ते चक्रे १ वामदेव्यमक्ष इत्यक्षाधिष्ठाने २ आश्व.गृह्य सू. २.६

अक्षराजाय कितवम् कृताय सभाविनम् त्रेताया आदिनवदर्शम् द्वापराय बहिःसदम् कलये सभास्थाणुम् - तैब्रा. ३.४.१६.१

 

अथैतद्वामेऽक्षणि पुरुषरूपमेषास्य पत्नी विराट् । तयोरेष संस्तावो य एषोऽन्तर्हृदय आकाशः । - बृह.उप. ४.२.३

वरुणो वा एष दुर्वाग् उभयतो बद्धो यद् अक्षः स यद् उत्सर्जेद् यजमानस्य गृहान् अभ्युत्सर्जेत् सुवाग् देव दुर्याम्̇ आ वदेत्य् आह गृहा वै दुर्याः शान्त्यै पत्नी
2
उपानक्ति पत्नी हि सर्वस्य मित्रम् मित्रत्वाय – तैसं. ६.२.९.१

यन् (सोमं) न विचिनुयाद् यथाऽक्षन्न् आपन्नं विधावति तादृग् एव तत् क्षोधुको ऽध्वर्युः स्यात् क्षोधुको यजमानः – तैसं. ६.१.९.१

वाङ्म आसन् नसोः प्राणश्चक्षुरक्ष्णोः श्रोत्रं कर्णयोः । अपलिताः केशा अशोणा दन्ता बहु बाह्वोर्बलम् ॥शौअ १९.६०.

अथ पूर्वेद्युः । द्वौ खरौ कुर्वन्ति पुरोऽक्षमेवान्यं पश्चादक्षमन्यं नेत्सोमग्रहांश्च सुराग्रहांश्च सह सादयामेति तस्मात्पूर्वेद्युर्द्वौ खरौ कुर्वन्ति पुरोऽक्षमेवान्यं पश्चादक्षमन्यम् माश ५.१.२.[१५]

नाक्षम् उपस्पृशेत्। यद् अक्षम् उपस्पृशेद् भ्रातृव्ये श्रियम् ऋञ्ज्यात्। अन्तरा चक्रौ प्रोहति। तस्माद् यद् अन्तरा चक्राव् अनसस् तद् उपजीवनीयतमम्। - जै १.७७

अक्षाऽनतिक्रमणं ग्रहाणाम् उपर्युपर्यक्षमध्वर्युर्धारयत्यधोऽधो नेष्टा सम्पृचाविति – कात्या. श्रौसू. १४.२.६

यथाक्षो ऽनुपाक्तः  अवार्छत्य् एवम् अवाऽऽरम् इत्य् उपरिष्टाद् अभ्यज्याधस्ताद् उपानक्ति- तैसं २.६.३.३

इन्द्रा य गिरो अनिशितसर्गाः अपः प्रैरयन्त्सगरस्य बुध्नात् यो अक्षेणेव चक्रिया शचिभिः विष्वक्तस्तम्भ पृथिवीमुत द्याम् - तैब्रा २.४.५.२

सूर्यो वरिष्ठो अक्षभिर्विभाति अनु द्यावा-पृथिवी देवपुत्रे - तैब्रा ३.७.७.१

दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः स्वाहेति संस्रवं पत्न्यै पाणावानयति साक्षस्य संतापमुपानक्ति देवश्रुतौ देवेष्वाघोषतमिति – माश ३.५.३.१४

यो अक्षेणेव चक्रिया शचीभिर्विष्वक्तस्तम्भ पृथिवीमुत द्याम् ॥ १०.८९.

यदेतन्मण्डलं तपति यश्चैष रुक्म इदं तच्छुक्लमक्षन्नथ यदेतदर्चिर्दीप्यते यच्चैतत्पुष्करपर्णमिदं तत्कृष्णमक्षन्नथ य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषो यश्चैष हिरण्मयः पुरुषोऽयमेव स योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषः माश १०.५.२.[७]

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