पुराण विषय अनुक्रमणिका(अ-अनन्त) Purana Subject Index

Agneeshoma

 

 अग्नीषोम

1.     टिप्पणी : हमारे भीतर ही जो ऊर्जा नीचे से ऊपर को जाती है, यह है अग्नि। ऊपर से नीचे की ओर आने वाली ऊर्जा सोम कहलाती है। इन दोनों के मिलन से एक ज्योति उत्पन्न होती है जिस पर ध्यान केन्द्रित करने से सारी चित्तवृत्तियां समाहित हो जाती हैं, बंध जाती हैं। यही अग्नीषोमीय पशु है। -- फतहसिंह

 

वामा सोमात्मिका प्रोक्ता दक्षिणा रविसन्निभा 

मध्यमा भवेदग्निः फलन्ती कालपूरिणी – गरुड १.६७.९

 

सोमयाग में पहले प्रवर्ग्य होते हैं, फिर सुत्या दिवस। इनके बीच में एक और कृत्य भी है जिसे अग्नीषोम कहते हैं। कहा गया है कि यह संक्रान्ति है, सोम भी है, अग्नि भी। अर्थात् सूर्य की किरण गर्म भी हो सकती है, ठंडी भी। यह अग्नीषोम गुह्य है। यह कार्य भी हो सकता है, कारण भी। इसका निहितार्थ होगा कि सुत्य दिवस में पहुंचने पर कारण शरीर ही बचता है। कारण शरीर में पहुंचने पर हम अपने कारण का निर्माण स्वयं कर सकते हैं।

 

महाभारत अनुशासन पर्व में स्वर्ण के अग्नीषोमात्मक होने का कथन अग्नीषोम सम्बन्धी कथाओं को समझने की पहली कुंजी है। शिव पुराण आदि में इस स्वर्णिम अवस्था को भस्म नाम दिया गया है। शतपथ ब्राह्मण १.६.३.१९ में पौर्णमास यज्ञ के अन्तर्गत अग्नीषोम के संदर्भ में इन्द्र द्वारा त्वष्टा-पुत्र विश्वरूप व वृत्र वध का आख्यान वर्णित है लेकिन इस कथा का पूर्ण रूप केवल महाभारत शान्ति पर्व में ही उपलब्ध है जहां हिरण्यकशिपु हिरण्यगर्भ/वसिष्ठ के बदले विश्वरूप को अपना पुरोहित बना लेता है। तब इन्द्र विश्वरूप व तत्पश्चात् वृत्र का वध करते हैं। इसका निहितार्थ होगा कि अग्नीषोम रूपी स्वर्णिम ज्योति का विकास सबसे पहले हिरण्यकशिपु के रूप में होता है जिसका उपयोग चाहे तो वसिष्ठ पुरोहित द्वारा देवभाग को पुष्ट करने के लिए किया जा सकता है, अथवा विश्वरूप पुरोहित के रूप में आसुरी भाग को पुष्ट करने में। कथा में विश्वरूप के तीन शिरों का इन्द्र द्वारा छेदन की कथा का मूल वेदमन्त्रों में ढूंढना अपेक्षित है। हो सकता है कि तीन सिर आहवनीय अग्नि, गार्हपत्य अग्नि और दक्षिणाग्नि से सम्बन्धित हों। वृत्र की उत्पत्ति के संदर्भ में पुराण कथाओं में त्वष्टा द्वारा अवशिष्ट सोम से होम की बात कही गई है, जबकि ऋग्वेद १.९३.४ में बृसय के शेष से वृत्र की उत्पत्ति प्रतीत होती है। तैत्तिरीय ब्राह्मण २.८.७.९ में बृसय के स्थान पर प्रथय शब्द आया है। कथा में इन्द्र द्वारा वृत्र पर वज्र प्रहार करने के संदर्भ में ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से वर्णन आता है ( उदाहरणार्थ, तैत्तिरीय संहिता २.५.२.१) कि वज्र प्रहार करने के समय अग्नीषोम-द्वय ने इन्द्र से कहा कि प्रहार मत करो, हम वृत्र के मुख में बैठे हुए हैं। तब इन्द्र ने उनको वृत्र के मुख से छुटकारा दिलाने का उपाय किया। अग्नीषोम-द्वय ने वृत्र के मुख से बाहर निकलने पर पुरस्कार मांगा। तब इन्द्र ने उऩ्हें पूर्णिमा को अग्नीषोमीय एकादश कपाल पुरोडाश देने की व्यवस्था की। अग्नीषोम-द्वय द्वारा वृत्र के मुख से बाहर निकलने पर उनका तेज वृत्र के अन्दर ही रह गया। तब गौ को भेजकर, जो सबकी मित्र है, उस तेज को प्राप्त किया गया। पुरस्कार के रूप में गौ के दुग्ध में घृत और पयः दोनों को रखने की व्यवस्था की गई जिसे पीकर देवता तृप्त होते हैं। पुराणों में इस आख्यान के बदले सार्वत्रिक रूप से वृत्र रूपी ब्रह्महत्या के भय से जल में कमलनाल में छिपने और नहुष द्वारा इन्द्र पद प्राप्ति आदि की कथा आती है जिसका निहितार्थ अपेक्षित है। इन्द्र द्वारा वृत्र पर चलाए गए दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र के संदर्भ में ऐसा प्रतीत होता है कि वज्र का निर्माण अमावास्या को किया गया होगा क्योंकि दर्श-पूर्णमास यज्ञ में अमावास्या को ही इन्द्र हेतु दधि की हवि का विधान है।

     पौर्णमास यज्ञ में पांच हवियों का विधान है जो इस प्रकार हैपांच प्रयाज, दो आघार, २ आज्य भाग(आग्नेय व सौम्य), आग्नेय पुरोडाश, अग्नि स्विष्टकृत्(गोपथ ब्राह्मण १.३.१० आदि)। आज्यभाग-द्वय के विषय में ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है कि वृत्र के मुख से निकलने पर अग्नीषोम-द्वय की पहली मांग यह थी कि हमें आज्य भाग प्राप्त हो। यह आज्य-द्वय सूर्य और चन्द्रमा रूपी चक्षु-द्वय के प्रतीक हैं।

     योगवासिष्ठ का यह कथन कि अग्नीषोम के द्वारा संक्रान्तियों/सन्धियों को समझना चाहिए, अग्नीषोम को समझने की दूसरी कुंजी है जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। शतपथ ब्राह्मण १.६.३.२४ के अनुसार अग्नीषोमीय उपांशु याज से अहोरात्रों को प्राप्त करते हैं तथा अग्नीषोमीय पुरोडाश से अर्धमासों को प्राप्त करते हैं। शतपथ ब्राह्मण ११.२.६.५ के अनुसार आग्नेय पुरोडाश दक्षिण पक्ष है, उपांशुयाज हृदय की भांति मध्य में स्थित है जबकि अग्नीषोमीय पुरोडाश उत्तर पक्ष है। उपांशु याज कर्म तूष्णीं किया जाता है, जबकि पुरोडाश कर्म उच्च स्वर में। उपांशु याज में आज्य से यजन किया जाता है जो असुरों का नाश करता है क्योंकि आज्य वज्र है(द्र. आज्य पर टिप्पणी; शतपथ ब्राह्मण १.६.३.२७)। पुरोडाश को समझने के संदर्भ में कहा जाता है कि यह कूर्म प्राण का, उदान प्राण का रूप है जिसने मेधा का, मस्तिष्क का रूप ग्रहण कर लिया है। यह पशु की, जिसको मेध्य बनाना है, एक प्रतिमा है, लघु रूप है(ऐतरेय ब्राह्मण २.९)। इस पुरोडाश में से अंगुष्ठ-द्वय मात्र निकाल कर प्रत्येक ऋत्विज भक्षण करता है। शतपथ ब्राह्मण ९.४.३.१० में अग्नि चयन के संदर्भ में दसों दिशाओं में अग्नीषोमीय पशु पुरोडाश की हवि का उल्लेख है, क्योंकि अग्नि दस दिशाओं में व्याप्त है। अग्नीषोमीय पुरोडाश कर्म के पश्चात् अग्नि स्विष्टकृत् कर्म होता है। पुरोडाश ग्रहण करने से ही अग्नि का अनिष्ट स्विष्ट में बदलता है(शतपथ ब्राह्मण ५.३.३.१०)।

     दर्शपूर्णमास याग में जहां अग्नीषोमीय-पुरोडाश के रूप में यजमान रूपी पशु की केवल प्रतिमा मात्र का संस्कार किया गया था, अग्निष्टोम नामक यज्ञ में पूरे यजमान पशु का ही संस्कार कर दिया जाता है। यज्ञ में प्रथम दिन दीक्षा कर्म होता है जो श्रद्धा का रूप है(शतपथ ब्राह्मण १२.१.२.१)। यह ऐसे है जैसे यजमान रूपी पशु को अग्नीषोम ने भोजन के लिए अपने मुख में रख लिया हो(शतपथ ब्राह्मण ३.३.४.२१)। यज्ञ के चतुर्थ दिन, जो यज्ञ के मुख्य सुत्या नामक पांचवें दिन से पहला दिन होता है, को उपवसथ संज्ञा दी गई है। इस दिन यजमान रूपी अग्नीषोमीय पशु का वास्तविक संस्कार करके उसे पांचवें दिन देवों को हवि देने योग्य बनाया जाता है। वास्तविक यज्ञ कर्म में यजमान के स्थान पर छाग(छिन्न गतिः यस्य स छागः ?) का उपयोग किया जाता है। अथर्ववेद ९.६.६ का कथन है कि अग्नीषोम पशु का संस्कार अतिथि को तृप्त करने जैसा है(यत् तर्पणमाहरन्ति य --- ) । जैमिनीय ब्राह्मण १.२१ के अनुसार अग्नीषोमीय कर्म गौ से दुग्ध प्राप्त कर लेने जैसा है, जबकि दुग्ध दुहने का काल अश्विनौ जैसा है। वास्तविक यज्ञ कर्म में यजमान रूपी पशु का संज्ञपन किया जाता है, उसकी चेतना को विस्तीर्ण चेतना या संज्ञा का रूप दिया जाता है जिसका यज्ञ कर्म में स्थान उत्तरवेदी होता है। हो सकता है कि महाभारत शान्तिपर्व आदि में अग्नीषोम के संदर्भ में जिस वडवामुख महर्षि द्वारा समुद्र जल के क्षारीय जल को पीकर शुद्ध करने का वर्णन है, वह चेतना की यही उत्तर स्थिति हो। ऋग्वेद १.९३.५ भी इस संदर्भ में द्रष्टव्य है जहां अग्नीषोम द्वारा सिन्धु को पाप से मुक्त करने का उल्लेख है।

     शान्ति पर्व में अग्नीषोम के संदर्भ में आख्यानों के माध्यम से क्षत्रत्व का ब्रह्मणत्व में व ब्रह्मणत्व का क्षत्रत्व में परिवर्तन वैदिक साहित्य में अग्नीषोम के वर्णन को समझने की तीसरी कुंजी है। वैदिक साहित्य में जब क्षत्रिय को शत्रुओं से रक्षा का कार्य, वृत्र वध का कार्य करना होता है, उसका निरूपण ११ अक्षरों वाले त्रिष्टुप् छन्द से किया जाता है। इसी के प्रतीक रूप में अग्नीषोमीय पुरोडाश को ११ कपाल वाला बनाया जाता है। इसके द्वारा अनिष्टकृत अग्नि स्विष्टकृत् (सु-इष्टकृत्) बनती है(शतपथ ब्राह्मण १२.८.३.१९)। जब ब्रह्मवर्चस की, सोम की प्राप्ति करनी होती है तो ८ कपालात्मक अग्नीषोमीय पुरोडाश का विधान है(तैत्तिरीय संहिता २.३.३.३)। अग्नीषोम में अग्नि अन्नाद है, अन्न का भक्षण करने वाली है, जबकि सोम अन्न है(तैत्तिरीय संहिता ३.४.३.३)। अथवा दूसरे शब्दों में यो कह सकते हैं कि अग्नि का विकास इस स्तर तक किया जाता है कि वह अन्न का भक्षण करके उसे देवों तक पहुंचा सके। दूसरी ओर सोम को ऐसा सर्वश्रेष्ठ अन्न बनना है जिससे देवगण तृप्त हो सकें। अथर्ववेद ३.१३.५ तथा तैत्तिरीय संहिता ५.६.१.३ में कुम्भ इष्टका मन्त्र के संदर्भ में कहा गया है कि आपः भद्र हों, घृत जैसे हों जो अग्नि को बुझाएं नहीं, अपितु प्रज्वलित करें।

     ऋग्वेद १.९३, १०.१९.१ व अथर्ववेद १.८.१, ६.५४, ६.९३.३, ७.११९ सूक्त अग्नीषोम देवता के हैं लेकिन इनमें से ऋग्वेद  १.९३ सूक्त का सार्वत्रिक रूप से अग्नीषोमीय कर्म में विनियोग हुआ है(उदाहरण के लिए, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.८.७.९)। तैत्तिरीय संहिता ३.४.३.१ में अग्नीषोम की सोम व अग्नि आदि से उत्पत्ति के संदर्भ में एक आख्यान का वर्णन किया गया है।

प्रथम लेखन : १९९३ ई.

 

अग्नी-षोम

पौर्णमासेष्टि और दर्शेष्टि को यजमान, यजमान पत्नी, ब्रह्मा, होता, अध्वर्यु और आग्नीध्र ये छ व्यक्ति मिलकर संपन्न करते हैं। पौर्णमासेष्टि में अग्नि, अग्नीषोम और अग्नीषोम इन तीन प्रधान देवताओं के निमित्त याग होता है। इनमें अग्नि का आठ कपाल पर पुरोडाश, अग्नीषोम का आज्य और अग्नीषोम का ग्यारह कपाल पर पुरोडाश होता है। इनमें मध्य के अग्नीषोम देवता का याग उपांशु धर्म से करना विहित है। - कात्यायन श्रौत पद्धतिविमर्श – डा. मनोहरलाल द्विवेदी (राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली, १९८८), पृ. ८६ 

१. अग्निनैवान्नमवरुन्धे, सोमेनान्नाद्यम् , अन्नवानेवान्नादो भवति । तैसं ३.४.३.३

२. अग्नीषोमयोरयाट् प्रिया धामानीत्युपांश्वनिरुक्तं तेनावरुन्धे, अग्नीषोमयोरयाट् प्रिया धामानीत्युच्चैर्निरुक्तं तेनानिरुक्तं च वा इदं निरुक्तं च, तस्यैवोभयस्यावरुद्ध्यै । अथो शुष्कहरिते एवावरुन्द्धे यद्वै शुष्कं तदाग्नेयं यद्धरितं तत् सौम्यँ- काठ ३२,

३. अग्नीषोमयोरहं देवयज्यया चक्षुष्मान् भूयासम् अग्नेर् अहं देवयज्ययाऽन्नादो भूयासम् ॥ दब्धिरस्य् अदब्धो भूयासम् अमुं दभेयम् अग्नीषोमयोर् अहं देवयज्यया वृत्रहा भूयासम् इन्द्राग्नियोर् अहं देवयज्ययेन्द्रियाव्यन्नादो भूयासम् । तैसं ,,, ।।

४. अग्नीषोमयोर्भासदौ (०योः षष्ठी [मै ३.१५,४]) । मै ,१५, ।।

५. अग्नीषोमयोर्वा एतद् भागधेयं यत् पौर्णमासम् (हविः) ताभ्यामेवैनं परिददाति ता एनमनपक्रामन्तौ गोपायत । काठ ,

६. अग्नीषोमा इमँ सु मे शृणुतं वृषणा हवम् । काठ ४,१६ ।

७. अग्नीषोमा एवाग्र आज्यभागौ यजन्ति । काठ ८,१० ।

८. अग्नीषोमाभ्यां यज्ञश्चक्षुष्मान् । काठ ५, १ ।।

९. अग्नीषोमयोर् अहं देवयज्यया वृत्रहा भूयासम् इत्य् आह । अग्नीषोमाभ्यां वा इन्द्रो वृत्रम् अहन् ताभ्याम् एव भ्रातृव्यम्̇ स्तृणुते । । तैसं , , ११, ; तै १, , , ६ ।।

१०. अग्नीषोमाभ्यां  वा एष मेधायात्मानमालभते (आत्मानं मेधायालभते [क.]) यो दीक्षते, स वा एतेनैव पशुनात्मानं निष्क्रीणीते । स्थूलः पीवा स्यात् , आत्मनो निष्क्रीत्यै, तस्मादग्नीषोमीयस्य पशोर्नाशितव्यं , पुरुषो ह्येतेनात्मानं निष्क्रीणीते, तस्मादग्नीषोमीये संस्थिते यजमानस्य गृहेऽशितव्यं -- मै , ,; क ३७, ८ ।

११. अग्नीषोमाभ्यां वै वीर्येणेन्द्रो वृत्रमहन् । स ओजसा वीर्येण व्यार्ध्यत, स एतमैन्द्राग्नमपश्यत् …. - मै ,,,,,; काठ २४,,३२,; क ३७,८ ।

अग्नीषोमाभ्यां वै वीर्येणेन्द्रो वृत्रमहन् , स ओजसा वीर्येण व्यार्ध्यत, एतमैन्द्राग्नमपश्यत् , तेनौजो वीर्यमात्मन्नधत्त , ओजसा वा एष वीर्येण व्यृध्यते यो राजसूयेनाभिषिञ्चते मै ४.३.१

१२. अग्नीषोमाभ्यां चाषान् (आलभते )। मै ३, १४, ४ ।।

१३. अग्नीषोमाविदं सर्वं यदन्नं चान्नादश्च, सोमो ऽन्नमग्निरन्नादः । काठसंक १४० ।

१४. अग्नीषोमा सवेदसा .....सं देवत्रा बभूवथुः । तै ३, , , २ ।

१५. परमेष्ठिनो वा एष यज्ञो ऽग्र आसीत् ......तेनाग्नीषोमौ निरवासाययत् तेनाग्नीषोमौ परमां काष्ठाम् अगच्छताम् । । तैसं , , . ।।

१६. अग्नीषोमौ प्रथमौ वीर्येण वसून् रुद्रानादित्यानिह जिन्वतम् । माध्यम्̇ हि पौर्णमासं जुषेथाम -- तैसं , , ,

१७. अग्नीषोमौ वृत्रहणौ । काठ , ।।

१८. चातुर्मास्यानि - अथ यद् अग्नीषोमौ प्रथमं देवतानां यजत्य्  अग्नीषोमौ वै देवानाँ  मुखम् - गो ,,२०;

अग्नीषोमौ वै देवानां सयुजौ । ताभ्यां सार्धं गृह्णाति विष्णव एकाकिने - माश , ,,

स वा इन्द्रः शिथिर इवामन्यत, सोऽग्नीषोमा अन्वगच्छत् , ता अब्रवीत् , याजयतं मेति , तं वा एतयाग्नीषोमा अयाजयताम् , तस्मिंस्तेजोऽग्निरदधादिन्द्रियं सोम, स्तता इन्द्रोऽभवत् – मै २.१.४

१९. अग्नीषोमौ वै ब्रह्मवर्चसस्य प्रदातारौ । मै ,,

ऽग्नीषोमौ वै ब्रह्मवर्चसस्य प्रदातारौ.....  यदष्टाकपालस्तेनाग्नेयो यच्छ्यामाकस्तेन सौम्यः – काठ १०.२

ग्नीषोमीयमेकादशकपालं निर्वपेत् सर्वेभ्यः कामेभ्यो ब्राह्मणो - काठ. १०.२

२०. अग्नीषोमौ वै ब्राह्मणस्य स्वा देवता, ता एव भागधेयेनोपधावति, ता अस्मै सर्वान् कामान्  प्रयच्छतः । काठ १०, ।।

२१. चातुर्मास्ये वैश्वदेवपर्व -- अथ यदग्नीषोमौ प्रथमौ देवतानां यजति दार्शपौर्णमासिके वा एते देवते । कौ ,

२२. अथेन्द्रोऽधृतश्शिथिल इवामन्यत सो (अग्नीषोमौ) ऽन्वागच्छत् , सोऽग्नौ चैव सोमे चानाथत, तमेतयेष्ट्याऽयाजयतामग्नीषोमीयेणैकादशकपालेन । काठ १०, । ।

२३. अयाडग्निरग्नेः... इति ब्रह्मवर्चसं तेनावरुन्द्धे, सोमस्यायाट् ...इति क्षत्रं तेन । काठ ३२,

२४. अहोरात्रे वा अग्नीषोमौ । तद् यद् दिवा वपया चरन्ति । तेन अहः प्रीतम् आग्नेयम् । रात्रिम् अनु संतिष्ठते । तेन रात्रिः सौमी प्रीता । सा एषा अहो रात्रयोर् अतिमुक्तिः । कौ १०,

२५. चक्षुषी (+वा [मै.J) अग्नीषोमौ, अनु ताभ्यां समपश्यन् । मै , , ; ऐ १, ८।।

२६. तयैवास्मिन् ( अग्नीषोमौ) तेज इन्द्रियं ब्रह्मवर्चसमधत्ताम् । तैसं २,,,१-२ ।

२७. या इमा अग्नीषोमावन्वाजग्मुरग्नीषोमौ युवं वै नो भूयिष्ठभाजौ स्थो ययोर्वामिदं युवयोरस्मानन्वाभजतमिति [१८]। ..... तस्माद्यस्यै कस्यै च देवतायै हविर्निर्वपन्ति तत्पुरस्तादाज्यभागावग्नीषोमाभ्यां यजन्ति । माश , , , १९

२८. तस्मिन् ( इन्द्रे ) तेजोऽग्निरदधादिन्द्रियँ सोमस्तता इन्द्रोऽभवत् । मै ,,।।

२९. देवा वै सत्त्रम् आसत ऋद्धिपरिमितं यशस्कामास् तेषाम्̇ सोमम्̇ राजानं यश आर्छत् स गिरिम् उद् ऐत् तम् अग्निर् अनूद् ऐत् ताव् अग्नीषोमौ सम् अभवताम् ।  ताव् इन्द्रो यज्ञविभ्रष्टो ऽनु परैत् – तैसं २.३.३.१

३०. प्राणापाना एवाग्नीषोमाभ्याँ  सम्भरति । काठ २३, ८ ।

३१. प्राणापानावग्नीषोमौ प्रसवाय सविता प्रतिष्ठित्या अदितिः। पथ्यामेव यजति यत्पथ्यामेव यजति वाचैव तद्यज्ञं पन्थामपि नयति। चक्षुषी एवाग्नीषोमौ प्रसवाय सविता प्रतिष्ठित्या अदितिः। चक्षुषा वै देवा यज्ञं प्राजानंश्चक्षुषा वा एतत्प्रज्ञायते यदप्रज्ञेयं तस्मादपि मुग्धश्चरित्वा यदैवानुष्ठ्या चक्षुषा प्रजानात्यथ प्रजानाति। ऐ ,

३२. भद्रा अग्नीषोमा भवतां नवेदसा । काठसंक ६१ ।

३३. ताव् अब्रूताम् अग्नीषोमौ मा प्र हार् आवम् अन्तः स्व इति मम वै युवम्̇ स्थ इत्य् अब्रवीन् माम् अभ्य् एतम् इति तौ भागधेयम् ऐच्छेताम् ।  ताभ्याम् एतम् अग्नीषोमीयम् एकादशकपालम् पूर्णमासे प्रायच्छत् । तैसं , ,,

तस्माज् जञ्जभ्यमानाद् अग्नीषोमौ निर् अक्रामताम् – तैसं २.५.२.४

३४. या इमा अग्नीषोमावन्वाजग्मुरग्नीषोमौ युवं वै नो भूयिष्ठभाजौ स्थो ययोर्वामिदं युवयोरस्मानन्वाभजतमिति [१८] तौ होचतुः । किमावयोस्ततः स्यादिति यस्यै कस्यै च देवतायै हविर्निर्वपांस्तद्वाम् पुरस्तादाज्यस्य यजानिति तस्माद्यस्यै कस्यै च देवतायै हविर्निर्वपन्ति तत्पुरस्तादाज्यभागावग्नीषोमाभ्यां यजन्ति । माश ,, , १९ ।।

३५. राजानौ वा एतौ देवतानां यदग्नीषोमौ । अन्तरा देवता इज्येते देवतानां विधृत्यै
तस्माद् राज्ञा मनुष्या विधृताः ।  तैसं ,,,-

३६. स ( सोमः ) गिरिमगछत् , तमग्निरन्वगछत्, तौ गिरा अग्नीषोमौ समभवतां, तस्मात्सददि गिरा अग्निर्दहति, गिरौ सोमः । मै , ,

अग्निरेव प्रावापयत् सोमो रेतो अदधान् मिथुनं वा अग्निश्च सोमश्च। मै १.१०.५,

ऽग्निरेव प्रावापयत् सोमो रेतोऽदधान्मिथुनं वा अग्निश्च सोमश्च सविता प्रासुवत् संवत्सरो वै सविता - काठ ३५.२०, क ४८.१८

अग्नीषोमाभ्यां यज्ञश्चक्षुष्मानित्यग्नीषोमौ वै यज्ञस्य चक्षुषी  काठ.सं ३२.१

अग्नीषोमयोर् वा एष आस्यम् आपद्यते यो दीक्षते तद् यद् उपवसथे अग्नीषोमीयम् पशुम् आलभते आत्म निष्क्रियणो ह एव अस्य एष तेन आत्मानम् निष्क्रीणीय अनृणो भूत्वा अथ यजते तस्माद् उ तस्य न अश्नीयात् । पुरुषो हि स प्रतिमया - कौ १०.३

अग्नीषोमयोरुज्जितिमनूज्जेषं वाजस्य मा प्रसवेन प्रोहामीति जुहूं प्राचीं दक्षिणेन पाणिना- माश १.८.३.१

ग्नीषोमौ तमपनुदतां योऽस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मो वाजस्यैनं प्रसवेनापोहामीत्युपभृतं प्रतीचीं सव्येन पाणिना - माश १.८.३.१

अग्नीषोमीय,या

१. अग्नीषोमीयं वा एतद्धविर्यदग्नौकरणम् । काठसंक ५७।।

२. अग्नीषोमीयँ  हि पौर्णमासँ हविर्भवति । माश १, ,, २ ।

३. अग्नीषोमीयः (सोमः) पशौ । काठ ३४,१४ ।।

४. अग्नीषोमीयमष्टाकपालं ( °यमेकादश° [मै.J) निर्वपेत् (+श्यामाकं वसन्ता ब्राह्मणः [मै., काठ. J) ब्रह्मवर्चसकामः । तैसं २, , ,; मै २, , ; काठ १०,२। ५. अग्नीषोमीयमकादशकपालं निर्वपेद्यं कामो नोपनमेत् । तैसं २,,,३ ।

६. अग्नीषोमीयमेकादशकपालम् (+ हिरण्यं दक्षिणा ।तैसं.J; पुरोडाशं निर्वपति [माश.) । तैसं १,,,१-२; मै २,,; माश ५,,,७ ।

७. अग्नीषोमीयया पूर्वपक्ष उपस्थेयो , अग्नीषोमीयो वै पूर्वपक्षो , अपरपक्षायैवैनं परिददाति , ऐन्द्राग्न्यापरपक्ष उपस्थेयः , ऐन्द्राग्नो वा अपरपक्षः , (°मीयया पूर्वपक्ष उपतिष्ठेत काठ.]। मै , , ; काठ ७, ५ ॥

८. अग्नीषोमीयो वै ब्राह्मणो देवतया , स्वामेव देवतां कामाय भागधेयेन उपासरत् । मै , ,

९. द्विरूपा अग्नीषोमीयाः । मै , १३, ।।

तम् आहुर् द्विरूपः स्यात् शुक्लम् च कृष्णम् च अहोरात्रयो रूपेण इति
शुक्लम् वा च लोहितम् च् अग्नीषोमयो रूपेण इति - कौ १०.३

१०. सवननिरूपणम् -- पौर्णमासं यज्ञमग्नीषोमीयं पशुमकुर्वत । तैसं , , , -

११. यत्सोमः (गर्भं) प्राजनयद्, अग्निरग्रसत, तस्मादग्नीषोमीया। तसं , ,,

१२, योऽग्नीषोमीय उपांशुयाजो हृदयमेवास्य (यज्ञस्य) स स यत्तेनोपांशु चरन्ति तस्माद्विदं गुहा हृदयम्....अथ योऽग्नीषोमीयः पुरोडाशो ऽयमेवास्य स सव्योऽर्धः । काश ३,,१०,५।।

 

मित्रविन्दोवाच

यान्पूर्वसर्गेप्यवृणोन्निकामतो ह्यग्नीषोमान्नामिका मित्रविन्दा

मित्रं हरिं प्राप्तुकामा सदैक तत्रोपायं चिन्तयामासदेवी  गरुड ३.२०.२२ 

अग्नीषोमप्रणयन-(आध्व०)

औपवसथ्ये अहनि अग्नीषोमीयपशौ योऽयमग्निः प्राचीनवंशाख्याया: शालाया मुखे द्वारभागे पूर्वसिद्धाऽऽहवनीयरूपेणावतिष्ठते तस्माच्छालामुखीयादग्ने: सकाशात् कियान् भाग अग्नीध्रीये धिष्ण्ये नेतव्यो भवति । सोमश्च पूर्वं शालामुखीयसमीपेऽवस्थितस्तेनाग्निना सहानीत: सन् पुनरपि हविर्धानमण्डपे नेतव्यः । तदिममग्ने: सोमस्य च हविर्धानमण्डपे प्रणयनमग्नीषोमप्रणयनमित्युच्यते । तु०- ऐ० ब्रा० सा० १,३० ।

अग्नीषोमप्रणयनीयप्रैष --

औपवसथ्येऽहनि अग्नीषोमीयपशौ अध्वर्यु: चतुर्गृहीतं गृहीत्वा सम्प्रैषमाह—'अग्नीषोमाभ्यां प्रणीयमानाभ्यामनुब्रू३हि' इति । सोऽयमग्नीषोमप्रणयनप्रैष इत्युच्यते । 'सोमाय प्रणीयमानायानुब्रू३हि, 'अग्नये प्रणीयमानाय' इति वा । द्र० ऐ० ब्रा० १,३० श्री०प०नि० पृ० २५१ । तत्र प्रैषात् पूर्वमध्वर्युः अग्नीषोमीयपशुशाखाया: पशुबन्धवत् पवित्रं करोति । तत: पशुकुम्भीं शाखापवित्रं वपाश्रपण्यौ रसने शूलं मैत्रावरुणदण्डं च शालामुखीयस्योत्तरतो दर्भेषु सादयति। सादितानि 'शुन्ध्वध्वम्' इति प्राकृतमन्त्रेण प्रोक्षति । आग्नीध्र: पाणी संमृज्याग्नीन् प्रज्वाल्य परिस्तीर्य शालामुखीयस्याग्ने दर्भान् परिस्तीर्य तेषु स्फ्यमग्निहोत्रहवणीं जुहूमित्यादि पशुबन्धवत् पात्राण्यासाद्य गार्हपत्ये आज्यं विलापयति । प्रतिप्रस्थाता पाणिसंमर्शनं कृत्वा ब्रह्माणं दक्षिणत उपवेश्य शालामुखीयादारभ्योत्तरवेदिपर्यन्तं पृष्ठ्यां स्तीर्त्वा पवित्रे कृत्वा यजमान ! वाचं यच्छेति यजमानं संप्रेष्याग्निहोत्रहवणीं प्राकृतमन्त्रेणादाय तत्रैव प्रतितप्य प्रोक्षणीसंस्कारं कृत्वा पात्राणि प्राकृतमन्त्रेण प्रोक्ष्य आज्यं दधि च तथैव निरूप्य अधिश्रित्योभयं पर्यग्नि करोति । ततोऽध्वर्युः पाणी सम्मृश्य प्राकृतेन मन्त्रेण स्फ्यादानादि कृत्वा खरदेशे स्फ्यं स्तब्ध्वा संप्रैषमाह-'प्रोक्षणीरासादय' इत्यादि पशुवत् । आग्नीध्रः प्रोक्षणी: सादयति। अध्वर्युः स्फ्यं प्रकतिवद् ददाति। प्रतिप्रस्थाता उत्तरवेदिसमीपे इध्माबर्हिषी उपसादयति । आग्नीध्रः दक्षिणेन स्रुवं दशापवित्रं स्वधितिं सव्येन हस्तेन वेदाग्राण्यादाय शालामुखीये 'अग्नेर्वाम्' इति मन्त्रेण प्रतितप्य स्रुवं मन्त्रेणोभयं सम्मृज्य प्रतिप्रस्थात्रे प्रयच्छति। प्रतिप्रस्थाता जुह्वादीन् पशुवत् प्रतितप्य सम्मृज्य वेदाग्राणि शालामुखीये प्रतितप्य पात्राणि अग्रेणोत्करं तृणेषु सादयित्वा पुनरादाय शालामुखीय सकाशे निदधाति । पत्नीं शालामुखीयमाज्यं चावेक्षयित्वा यजमानमाज्यमवेक्षयति । अध्वर्युः प्रोक्षणीनामुत्तरत आनीयाज्यं स्वयमवेक्ष्योत्पूय प्रोक्षणीश्चोत्पूयाज्यं दधि चादाय ब्रह्मयजमानाभ्यां सह प्राग्वंशे गत्वा वेद्यां स्रुक्षु पशुवदाज्यानि गृहीत्वा परिकर्मिभ्य: प्रदायाऽप उपस्पृश्य ब्रह्मणे सोमं राजानं ददाति । ब्रह्मा राजानमादाय शालामुखीयमग्रेणपरिश्रित्योत्तरतोऽवस्थायाऽन्वगग्निं नयति। अध्वर्युः शालामुखीये  प्रणयनीयमिध्ममाधाय चात्वालादुपयमनीं कल्पयित्वा पुराणगार्हपत्ये आज्यं विलाप्योत्पूय, अध्वर्युं यजमानस्तं पत्नी, तां पुत्रास्तान् पौत्रास्तान् ज्ञातयश्चेति ज्येष्ठानुक्रमेण समन्वाररब्धेषु सत्सु प्रचरण्यां चतुर्गृहीतं गृहीत्वा शालामुखीये जुहोति-त्वं सोम तनूकृद्भ्यो द्वेषोऽन्योन्यकृदभ्य उरु यन्तासि वरूथं स्वाहा' इति । सोमायेदमिति यजमानः । ततः स्रुवेण जुहोति—'जुषाण अप्तुराज्यस्य वेतु' इति । अग्नये इदमिति यजमानः । इत्येतावत् कर्माध्वर्युः करोति इति विशेषोऽवगन्तव्यः । द्र० श्रौ०प०नि० पृ० २४९-२५१ । द्र० महावेद्यामनुष्ठीयमानाग्नीषोमीयपशुकर्मन्-।

अग्नीषोमप्रणयनीया-(हौ०)

औपवसथ्येऽहनि अग्नीषोमप्रणयनीयप्रैषानन्तरं होत्रा उपांशुस्वरेणाग्नीषोमप्रणयनार्थमनुवक्तव्या ऋच: अग्नीषोमप्रणयनीया इत्युच्यन्ते । ता:सा वीर्हि देव' (आ० श्रौ० ४।१०।१) 'प्रैतु ब्रह्म' (ऋ० १।४०३) होता दे..' (ऋ० ३।२७ ।७-९) 'उप त्वा...' (ऋ० १।१।७-९) 'उप प्रियं..' (ऋ० ९।६७।२९) 'अग्ने जुषस्व...' (ऋ० १।१५५।७) 'सोमो जिगाति... (ऋ० ३।६२।१३-१५) 'तमस्य राजा..' (ऋ० १।१५।६।४) 'अन्तश्च प्रागा..' (ऋ० ८।४८।२) 'श्येनो न योनिं..' (ऋ० ९।७१।६) अस्तभ्नाद्द्या..' (ऋ० ८।४२ । १-२) । (इत्यष्टादश 'उत्तमा परिधानीया। त्रि: प्रथमामन्वाह त्रिरुत्तमाम्' इति मिलित्वा द्वाविंशतिरनूच्यन्ते। (तु०- ऐ० ब्रा० १।३० आ० श्रौ० ४।१०।१-५)।

अग्नीषोमीयपशु- (अव्य०, सा०)

यः अग्नीषोमीयपशुकर्मण: पशुराम्नायते स कृष्ण सारङ्गः छागो भवति । तदुक्तम् --'छागस्य वपाया मेदसोऽनुब्रू३हि' इति । तस्मात् छाग एव अग्नीषोमीय: पशुर्भवति नान्यो गवादिः तदुक्तम्-छागो वा मन्त्रवर्णात् (मी०सू० ६८।३) अर्थात् अग्नीषोमीया: पशुः नियमेन छाग एव स्यान्नान्यः। छागस्य वपाया मेदसोऽनुब्रू३हि' इति मन्त्रवर्णात् । द्र० मी०को० पृ० २५०।१ । अग्नीषोमीयपशुशब्दश्च सवनीयादिपशूनां प्रकृतिः सन् द्रव्ये कर्मणि च प्रयुज्यते इति विशेषोऽवधेयः । अत्र च योऽग्निर्यश्च सोमस्तावुभौ सर्वदेवात्मकौ अग्नेराहुत्यधिकरणत्वेन सोमस्य होमद्रव्यत्वेन च सर्वोपकारित्वात् (तु०- ऐ० ब्रा० सा० २।३)। ये पुनरग्नीषोमीयस्य पशो: प्रकृतिम् ऐन्द्राग्नं निरूढपशुबन्धं मन्वते तैर्निरूढपशुबन्धप्रयोगे यत्रेन्द्राग्निपदं तत्राग्नीषोमपदस्योहः कार्य इति च विशेषोऽवधेयः । द्र० श्रौ०प०नि० पृ० २५२-५३)।

अग्नीषोमीयपशुकर्मन्-(अव्य०, आध्व०)

औपवसथ्येऽहनि (सुत्याया: पूर्वदिने) अग्नये सोमाय चानुष्ठेयं अर्थात् सौमादह्नः प्राचीने औपवसथ्येऽग्ने: सोमस्य मधुपर्कार्थं क्रियते। १-देवता संकल्पादि अग्निप्रणयनान्तम् २ब्रह्मोपवेशनादि ३महावेदिकरणम् ४-हविर्धानशकटकर्म ५-हविर्धानगृहनिर्मिति: ६-औदुम्बर्यवटखननम् ७-उपरवखननम् ८सदो निर्माणम् ९-उपरवा: १०-खरधिष्ण्यनिर्मिति: ११-औत्तरवेदिकाग्न्याद्युपस्थानम् १२-ग्रहपात्रासादनम्, १३-अग्नीषोमप्रणयनम् १४-वसतीवरी ग्रहणादि आध्वर्यवं कर्मजातमग्नीषोमीय पशुकर्म अग्नीषोमीयपशुरिति च सामीप्यात् निगद्यते। द्र० श्रौ०प०नि० पृ० २३९-२५३, महावेद्यामनुष्ठीयमानाग्नीषोमीयपशुकर्मन्-। अग्नीषोमीयपशुदेवता-(आध्व०)

अग्नीषोमीयपशुकर्मण: अग्नि: सोमश्चेति द्वे प्रधानदेवते भवत: । आज्यभाग-प्रयाजानुयाजोपयाजादयोऽङ्गदेवताः।

अग्नीषोमीयपशुदेवतासंकल्प-(याज०) द्र० पशुदेवता संकल्प।

अग्नीषोमीयपशुदेश- (आध्व०)

अग्नीषोमीयपशुकर्मण: सौमिक्युत्तरवेदिः (महावेदिः) अनुष्ठानदेश: (स्थान) भवति । अग्नीषोमीयं पशुकर्म उत्तरवेद्यामनुष्ठीयते इत्यर्थः । अग्नीषोमीय: पशुः दीक्षासु

सोमस्य समीपे समाम्नायते।

अग्नीषोमीयपशुद्रव्य-(आध्व०, सा०)

अग्नीषोमीयपशुकर्मण: वपा, एकादश कपाल: पुरोडाश:, हवि: (पश्वङ्गानि)। चेति त्रीणि द्रव्याणि भवन्ति । तदुक्तम्-वपा पुरोडाशो हवि: पशो: प्रदानानि' (आ०श्रौ० ३।४।४) । द्र० पशुप्रदान-।

अग्नीषोमीयपशुपर्यग्निकरणप्रैष-(आध्व०)

अग्नीषोमीयपशुकर्मण: पशो: पर्यग्निकरणायाध्वर्युरुच्चैः स्वरेण मैत्रावरुणं प्रत्याह--'पर्यग्नये क्रियमाणायानुब्रू३हि' इत्ययं प्रैष: अग्नीषोमीयपशुपर्यग्निकरण प्रैष इत्यु

च्यते । द्र० पर्यग्निकरणप्रैष- -

अग्नीषोमीयपशुपर्यग्निकरणीया-(हौ०)

अग्नीषोमीयपशुकर्मण: पशो: पर्यग्निकरणप्रैषेणाध्वर्युणा पर्यग्निकरणाय प्रेषितो मैत्रावरुण: 'अग्निर्होता न:' (ऋ० ४।१५।१-३) इति तृचमुपांशुस्वरेण पर्यग्नये अन्वाह। ता इमास्तिस्र ऋचोऽग्नीषोमीयपशुपर्यग्निकरणीया इत्युच्यन्ते। द्र० ऐ० ब्रा० सा० २।५ श्रौ०प०नि० पृ० १४४-४५, पर्यग्निकरणानुवचन-।

अग्नीषोमीयपशुपुरोडाशनिर्वाप-(आध्व०)

'अग्नीषोमीयस्य (पशो:) वपया प्रचर्याग्नीषोमीयं पशुपुरोडाशमेकदेशकालं निर्वपेत्' । इत्यग्नीषोमीयपशुपुरोडाशनिर्वाप उच्यते। द्र० मी०को० पृ० २५१२। निरुप्तस्य अग्नीषोमीयपुरोडाशस्य। शालामुखीये कर्तव्यं न तु शामित्रेऽग्नौ । यद्यपि अग्नीषोमीये पशौ शामित्रोऽग्नि: हवि: श्रपणार्थ: श्रुत:, पशुपुरोडाशोऽपि हवि: सोऽपि तत्रैव श्रापणीय: तथापि न पशुश्रपेण (शामित्रेण) पुरोडाश: श्रपितो भवति। तेन पृथक् श्रपयितव्यः । अर्थात्शालामुखीय एवात ऊर्ध्वं गार्हपत्यो भवति' इति वचनेन विहिते गार्हपत्ये एव पुरोडाशश्रपणं न शामित्रेऽग्नौ । इति विशेषोऽवधेय: । द्र० मी०को पृ० १०१ - २।

अग्नीषोमीयपशुपुरोडाशयाग (आध्व०)

अग्नीषोमीयस्य पशोर्वपया प्रचर्य पुरोडाशेन यागेन प्रचरति । तत्र पुरोडाशो व्रीहीमय एकादशकपालो भवति।

अग्नीषोमीय पशुपुरोडाशयागस्य पुरोनुवाक्या—(हौ०)

अग्नीषोमा यो अद्य' (ऋ० १।९३ ।२) । इत्यग्नीषोमीय पशुपुरोडाशयागस्य पुरोनुवाक्या। द्र० श्रौ० को० २ भा० पृ० २११ । अग्नीषोमीयपशुयागस्य पुरोडाशेन सवनीयादिपशुपुरोडाशस्य प्रसङ्गसिद्धिर्न भवति ।

द्र० मी० को० पृ० ९९।

अग्नीषोमीयपशुपुरोडाशयागस्य प्रैष-(हौ०)

 ‘होता यक्षदग्नीषोमौ पुरोडाशस्य जुषेतां होतर्यज' (ऋत्वि० ५।७।२) इत्यग्नीषोमीयस्य पशुपुरोडाशस्य प्रैष उच्यते । द्र० श्रौतको० २ भा० पृ० २११। अग्नीषोमीयपशुपुरोडाशयागस्य याज्या-(हौ०)

 ‘आऽन्यं दिवो..' (ऋ० १ ।९३, ऐ० ब्रा० २।९) इतीयमृक् होत्रोपांशुस्वरेण पठ्यमाना अग्नीषोमीयपशुकर्मण: पुरोडाशयागस्य याज्या भवति । द्र० श्रौ०को० २ भा० पृ०

२११ ।

अग्नीषोमीयपशुपुरोडाशयागस्य स्विष्टकृत्पुरोनुवाक्या-(हौ०)

इलामग्ने पुरुदंसम्' (ऋ० ३।२२।५) इत्यग्नीषोमीयपशुपुरोडाशयागस्य स्विष्टकृत: पुरोनुवाक्या। द्र० श्रौ० को० २ भा० पृ० २११। ।

अग्नीषोमीयपशुपुरोडाशयागस्य स्विष्टकृत्प्रैष(हौ०)—

होता यक्षदग्निं पुरोडाशस्य जुषतां हविर्होतर्यज' । ऋ० इति अग्नीषोमीयपशुपुरोडाशस्विष्टकृत: प्रैष उच्यते। द्र० आ० श्रौ० ३,,९ श्रौ० को० २ भा० पृ० २११।

अग्नीषोमीयपशुपुरोडाशयागस्य स्विष्टकृद् याज्या-(हौ०)

स्वदस्व हव्या' (ऋ० ३।५४।२२ ऐ० ब्रा० २।९) इतीयमृक् होत्रा उपांशुस्वरेण पठ्यमाना अग्नीषोमीयपशुपुरोडाशसंबन्धिन: स्विष्टकृद्यागस्य याज्या भवति । द्र० श्रौ० को० २ भा० पृ० २११ ।

अग्नीषोमीयपशुपुरोडाशयागस्य हौत्रक्रम(हौ०)

अग्नीषोमीयस्य पशो: पुरोडाशस्य प्रथमं 'अग्नीषोमा यो अद्य' (ऋ० १।९३ ॥३) इति पुरोनुवाक्या । ततो होता यक्षदग्नीषोमौ' (ऋ०खि० ५।७।२) इति प्रैषः। तत: 'अन्यं दिवोमातरिश्वा' (ऋ० १।९३।६) इति याज्या। तत: पशुपुरोडाशस्विष्टकृत: 'इलामग्ने पुरुदंसम्' (ऋ० ३।२२।५) इति पुरोनुवाक्या। तत:होता यक्षदग्निं पुरोडाशस्य' (आ० श्रौ० ३।५।६) इति प्रैषः । तत: 'स्वदस्व हव्या' (ऋ० ३।५४ ।२२) इति याज्या । इत्यग्नीषोमीयपशुपुरोडाशयागस्य हौत्रक्रमोऽवगन्तव्यः । द्र० श्रौ० को० २ भा० पृ० २११ ।

अग्नीषोमीयपशुशस्त्रपूर्वसंस्था-(सा०) एकादशप्रयाजा: अग्नीषोमीयपशो: पूर्वसंस्थेत्युच्यते । द्र० पूर्वसंस्था१।

अग्नीषोमीयपशुयागभूतस्य पश्वङ्गप्रधानहविष: पुरोनुवाक्या- प्रेषयाज्या (हौ०) अग्नीषोमीयस्य पशोर्हृदयाद्येकादशाङ्गरूपस्य प्रधानहविष: 'अग्नीषोमाय आहुतिम्' (ऋ० १।९३ ॥३) इति पुरोनुवाक्या।होता यक्षदग्नीषोमौ छागस्य हविष आत्ताम्..जुषेतां हविर्होतर्यज' (ऋ० खि० ५।७।२) इति हविष: प्रैषः। 'अग्नीषोमा हविष:' (ऋ० १।९३। ७) इति हविषो याज्या। द्र० ऐ० ब्रा० २।१० श्रौ०को० २ भा० पृ० २११ । अग्नीषोमीयपशुपश्वङ्गप्रधानहविषोऽवदानप्रैष-(आध्व०, हौ०)

अग्नीषोमीयस्य पशोर्हृदयाद्येकादशाङ्गरूपस्य पश्वङ्गप्रधानहविष: 'मनोतायै हविषोऽवदीयमानस्वानुब्रू३हि' इत्यध्वर्युणोक्तोऽवदानप्रैषोऽङ्गावदान प्रेष इति चोच्यते। द्र० ऐ० ब्रा० २।१०, श्रौ०प०नि० पृ० १३६ श्रौ० को० २ भा० पृ० २०७ । २०९, अङ्गावदानप्रैष

अग्नीषोमीयपशुपश्वङ्गप्रधानहविषोऽवदाने मनोतासूक्तानुवचन-(हौ०)

अग्नीषोमीयपशो: प्रधान- हविषोऽवदानकाले त्वं ह्यग्ने प्रथमो मनोता' (ऋ० ६।१।१-१३) इति सूक्तस्यानुवचनं मनोतासूक्तानुवचनमित्युच्यते । देवानां मनांस्योतानि दृढं प्रविष्टानि यस्यां देवतायां सा मनोतेत्युच्यते । द्र० ऐ०ब्रा० सा० ३१०। अग्नीषोमीयपशुयागस्य प्रायश्चित्तहोम(आध्व०) आज्येडामार्जनान्ते 'उलूखले मुसल' इत्येवं हुत्वा ध्रुवामाप्याय्य प्रायश्चित्तानि जुहोति । इत्यग्नीषोमीयपशुप्राय

श्चित्तहोम इत्युच्यते ।

अग्नीषोमीयपशुयागस्य वनस्पतियाग(आध्व०)

अग्नीषोमीये पशौ वनस्पतियागार्थं जुह्वामुपस्तीर्य सकृत् पृषदाज्यस्योपहत्य द्विरभिघार्यवनस्पतयेऽनुब्रू३हि, वनस्पते संप्रेष्येति संप्रेषौ कृत्वा वषट्कृते जुहोति । इति अग्नीषोमीया० पशुवनस्पतियाग इत्युच्यते। द्र० आ० श्रौ० ऐ० ब्रा० सा० २।१०।

अग्नीषोमीयपशुयागस्य वनस्पतियागहौत्रक्रम-(हौ०)

अग्नीषोमीयपशोर्वनस्पतियागस्य प्रथमं 'वनस्पतयेऽनुब्रू३हि' इति अनुवचनप्रैषः । तत:देवेभ्यो वनस्पते हवींषि' इति वनस्पतियागस्य पुरोनुवाक्या। तत:होता यक्षद् वनस्पतिम्' (ऋ०खि० ५।७।२) । इति वनस्पतियागस्य प्रैषः । तत: 'वनस्पते रशनया नियूय' (ऋ०खि० ५।७।२) इति याज्या । तत: 'पिप्रिहि देवाँ उशतो यविष्ठय' (ऋ० १०।२।१) इति वनस्पति स्विष्टकृत: पुरोनुवाक्या।होता यक्षदग्निं स्विष्टकृतम्' इति वनस्पतिस्विष्टकृत: प्रैषः ।अग्ने यदद्य विशो अध्वरस्य' (ऋ० ६।१५।१४) इति वनस्पतिस्विष्ट कृतो याज्या। इत्यग्नीषोमीयपशोर्वनस्पतियागस्य हौत्रक्रम इत्युच्यते। द्र० श्रौ०को० २ भा० पृ० २१२ ।

अग्नीषोमीयपशुवपायागप्रयाजप्रैष-(आध्व०, हौ०)

अग्नीषोमीयपशुवपायागात् निरूढपशुवपायागाच्च पूर्वमध्वर्युणा समिदादिभ्य: प्रेष्येत्युक्ते मैत्रावरुण: होतृषदनाद् दक्षिणत: प्रह्वोऽवस्थाय दण्डमवष्टव्य प्रयाजेभ्य: प्रेषित: सन् तनूनपान्नराशंसविकल्पसहितान् एकादशप्रयाजानाह । तत्रहोता यक्षदग्निं समिधा० वेत्वाज्यस्य होतर्यज' इति प्रथम: समित्प्रैषः ।होता यक्षत्तनूनपातम् वेत्वाज्यस्य होतर्यज' इति वैकल्पिको द्वितीय: तनूनपात्प्रैषः ।होता यक्षन्नराशंसम्, चन्द्रा०वेत्वाज्यस्य होतर्यज' इति वैकल्पिको द्वितीयो नराशंसप्रैषः ।होता यक्षद् अग्निमील ईलित:. वेत्वाज्यस्य होतर्यज' इति तृतीय इट् प्रैष: ।होता यक्षद् बर्हिः सुष्टरीम्' प्रियमिन्द्रस्य वेत्वाज्यस्य होतर्यज' इति चतुर्थो बर्हिः प्रैषः ।होता यक्षद् दुर ऋष्वा. व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज' इति पञ्चम: द्वारां प्रैषः। 'होता यक्षद् उषासानक्ता. वीतामाज्यस्य होतर्यज' इति षष्ठ: उषासानक्ता प्रैषः ।होता यक्षद् दैव्या होतारा० दिविदेवेषु धत्तां वीतामाज्यस्य होतर्यज' इति सप्तमो दैव्या होतृप्रैष: ।होता यक्षत् तिस्र: देवमपो व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज' इति अष्टम: तिसृणां देवीनां प्रैष: ।होता. यक्षत् त्वष्टारम्० सुवीरो वीरैर्वेत्वाज्यस्य होतर्यज' इति नवमस्त्वष्ट्रप्रेष: । 'होता यक्षद् वनस्पतिम् देवो देवेभ्यो हव्यावाड् वेत्वाज्यस्य होतर्यज' इति दशमो वनस्पति प्रैषः ।होता यक्षदग्निं स्वाहा० अग्न आज्यस्य व्यन्तु होतर्यज' इत्येकादश: स्वाहाकृतिप्रैषः । तदेवं सर्वत्र पशुषु अध्वर्युप्रेषितो मैत्रावरुण एतैरेकादशप्रैषमन्त्रैर्होतारं प्रेष्यति । ततो होता मैत्रावरुणाय दण्डप्रदानानन्तरं होतृषदनस्य पश्चादवस्थाय 'अहे दैधिषव्य' इत्यादि मन्त्रेण होतृषदनाभिमन्त्रणादि स्रुग्रादपनान्तं प्रकृतिवत् कृत्वा यजमानगोत्रानुसारेण दश प्रयाजयाज्या: तत्तत्प्रैषोत्तरं पठतीति विशेषोऽवधेय: । द्र० श्रौ०प०नि० पृ० १४३-४४, श्रौ० को० २ भा० पृ० १९९-२००।

अग्नीषोमीयपशुवपायागप्रयाजप्रैषविधि-(हौ०,आध्व०)

अग्नीषोमीयपशोर्निरूढपशोश्च वपायागे प्रथममध्वर्युर्मैत्रावरुणं प्रेष्यति । ततो मैत्रावरुण: प्रैषमन्त्रेण होतारं प्रेष्यति । ततो होता तत्तत्सूक्तगता: प्रयाजयाज्या: पठति । सोऽयमग्नीषोमीयपशुप्रयाजप्रैषविधिरित्युच्यते। प्रयाजयाज्याश्च आप्रीसूक्तानामृचो भवन्ति । आप्रीसूक्तानि च ऋग्वेदे दश सन्ति । द्वितीयप्रयाजयाज्याश्च यजमानगोत्रानुसारेण नराशंसतनूनपादभेदेन होत्रा पठ्यन्ते इति विशेषोऽवगन्तव्यः । द्र० आप्री-।

अग्नीषोमीयपशुवपायागप्रयाजयाज्या-(हौ०)

द्र० प्रयाजयाज्या-।

अग्नीषोमीयपशुवपायागस्य पुरोनुवाक्या प्रेषयाज्या-(हौ०)

पाशुकाज्यभागानन्तरमध्वर्युणा 'अग्नीषोमाभ्यां छागस्य वपाया मेदसोऽवदीयमानस्यानुबू३हि' इति प्रेषितो मैत्रावरुण: 'अग्नीषोमाविमम्' (ऋ० १।९३ ॥१) इति पुरोनुवाक्यां पठति। 'प्रैषांश्चादेशमनुवाक्यां च' (आ० श्रौ०) इत्याश्वलायनसूत्रेण मैत्रावरुणो यत्र यागे भवति तत्र स एवानुवाक्यां पठेदित्युक्तत्वात् । तत:--'अग्नीषोमाभ्यां छागस्य वपाया मेदसः प्रेष्य' इति प्रेषित: सन्होता यक्षदग्नीषोमौ छागस्य वपाया मेदसो जुषेतां हविर्होतर्यजं' (ऋ० खि० ५।७।२) इति प्रैषेणहोतारं प्रेष्यति । इति वपायागस्य प्रैषः । ततोऽनेन प्रेषेण प्रेषितो होतायुवमेतानि दिवि' (ऋ० १।९३ ।५) इति याज्यां पठति । इत्यग्नीषोमीयपशुवपायागस्य पुरोनुवाक्याप्रैषयाज्या भवन्ति।

द्र० श्रौ०प०नि० पृ० १४६ श्रौ०को० २ भा० पृ० २०१ ।

अग्नीषोमीयपशुवपायागहौत्रक्रम (हौ०)

अनादेशे प्रात: सवने उपवसथीयेऽहनि अग्नीषोमीयपशौ प्रथमंहोता यक्षदग्निं समिधा' इत्यादय: 'होता यक्षद्वनस्पतिमुपाव' इत्यन्ता: (ऋ० खि० ५।७।१) तनूनपान्नराशंसविकल्पेन दश प्रयाजप्रैषा उच्यन्ते। तत: 'समिद्धोऽग्निर्निहित:' इत्यादय: वनस्पतिरवसृजन्नुप (ऋ० २।३।१-१-१०) इत्यन्ता: शुनकगोत्रिणां सर्वेषां दश प्रयाजयाज्या: पठितव्याः । तत्र पूर्वं प्रैषस्ततस्तस्य याज्येति पाठक्रमोऽवधेयः । तत:पर्यग्नये क्रियमाणायानुब्रू३हि' (ऐ० ब्रा० २ ।५) इति पर्यग्निकरणप्रैष: (तत:अग्निर्होता नो अध्वरे' (ऋ० ४।१५।१-३) इति पर्यग्निकरणार्था ऋचः। तत: उपप्रेष्यहोतर्हव्या देवेभ्यः' अध्रिगवे प्रेष्योपप्रेष्यहोतर्' इति वा अध्वर्युणोक्ते 'अजैदग्निरसनद् वाजम्' (ऋ० खि० ५ ।७।२) इत्युपप्रैष: (मैत्रावरुणप्रैषः) । तत: 'दैव्या: शमितार आयध्वमुत' इत्यादि 'शमीध्वमध्रिगो' इत्यन्त: अध्रिगुप्रैषः। तत: 'स्तोकेभ्योऽनुब्रू३हि' इति स्तोकीयानुवचनप्रैषः । तत:जुषाव स प्रथस्तमम्' (ऋ० १ ।७५ ॥१), 'इमं नो यज्ञममृतेषु धेहि' (ऋ० ३।२१ ।१-५) इति स्तोत्रीया ऋचः। तत:होता यक्षदग्निं स्वाहाज्यस्य' (ऋ० ५।७।१ ख) इति एकादश: प्रयाजप्रैष: । तत: शुनकगोत्रिणां सर्वेषां वा घृतमिमिक्षे घृतमस्य' (ऋ० २।३।११) इत्यन्तिमा एकादशी प्रयाजयाज्या। तत्र आप्री सूक्तानामृच: प्रयाजयाज्या उच्यन्ते । ताश्च यजमानगोत्रानुसारेण पठनीयाः । तथा च सर्वेषां यजमानानां स्वस्वाप्रीसूक्तानामन्तिमा ऋक् एकादशी प्रयाजयाज्या भवतीति विशेषोऽवधेयः। तत: प्रथमस्य आज्यभागस्यहोता यक्षदग्निमाज्यस्य' द्वितीयस्याज्यभागस्य होता यक्षत् सोममाज्यस्य' इत्याज्यभागयो: प्रैषौ । (ऋ० खि० ५।७।२)। तत: प्रथमस्याज्यभागस्य 'अग्निर्वृत्राणि' (ऋ० ६।१६।३४), द्वितीयस्याज्यभागस्य 'त्वं सोमासि सत्पति:' (ऋ० १ ।९१ ।५) इति पुरोनुवाक्ये । तत: प्रथमस्याज्यभागस्य 'जुषाणो अग्निराज्यस्य वेतु, द्वितीयस्याज्यभागस्य 'जुषाण: सोमआज्यस्य हविषो वेतु' (आ० श्रौ० १।५।२९) । तत: 'अग्नीषोमाविमम् (ऋ० १।९३ ॥१) इति वपायागस्य पुरोनवाक्या। तत:होता यक्षदग्नीषोमौ छागस्य' (ऋ०खि० ५।७।२३) इति वपायागस्य प्रैषः । तत:युवमेतानि दिविइति वपायागस्य याज्या। इति प्रयाजप्रैषादिर्वपायागयाज्यान्त: अग्नीषोमीयपशुवपायागस्य हौत्रक्रम इत्युच्यते । होत्रा ऋत्विजा प्राधान्येन क्रमश: क्रियते इति हौत्रक्रम: । द्र० श्रौ० को० २ भा० पृ० १९९-२०१ ।

अग्नीषोमीयपशुविकृति-(सा०)

सवनीय-(सुत्या) दिनात् पूर्वस्मिन्नहनि विधीयमानस्य अग्नीषोमीयस्य पशोः सवनीपशु-अनूबन्धपशुनिरूढ (ऐन्द्राग्न) पशुप्रभृतयोऽन्ये पशुयागा विकृतयो भवन्ति । 'अग्नीषोमयो: स्थाने' (आ० श्रौ० ३।४।९) इति ब्रुवताऽऽचार्येण अग्नीषोमीय: पशूनां प्रकृति: पाशुके विध्यन्तगृह्यमाण इति अग्नीषोमीयपशुः सर्वपशूनां प्रकृतिरुक्तः । (तु०- आ० श्रौ० ३।४।९ नारायणः) । द्र० पशुनिरूढपशुबन्धप्रकृतिअग्नीषोमीयपशु-।

अग्नीषोमीयपशुसंस्था-(सा०)

सोमयागदिनात् पूर्वेद्यु: (उपवसथ्येऽहनि) अग्नीषोमीयः पशुर्विहितः । तं पशुयज्ञं दीक्षणीयेष्टिवत् पत्नीसंयाजान्तमनुतिष्ठन्ति। पत्नीसंयाजेभ्य: पराण्यङ्गानि नानुतिष्ठन्ति । सेयं समाप्तिरग्नीषोमीयपशु संस्थेत्युच्यते।

अग्नीषोमीयपशुसंकल्प (याज०) द्र० निरूढ  पशुबन्ध-संकल्प-। तत्रऐन्द्राग्नेन' इत्यस्य स्थाने 'अग्नीषोमीयेणेति विशेषोऽवधेयः।

अग्नीषोमीयपशुयागस्य सूक्तवाक-(हौ०)

सोमयज्ञेषु प्रकृतिभूतज्योतिष्टोमा...अग्निष्टोमे तद्विकृतिषु चैकाहाहीनसत्रेषुअग्निमद्य होतारमवृणीतायं यजमान....भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषसूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहि' इति प्रेषेण (खिल० ७।५।२) सूक्तवाकायसंप्रेषितो होता 'इदं द्यावापृथिवी भद्रमभूदार्ध्म सूक्तवाकयुतनमोवाकम्..' इत्यादि सूक्तवाकमाश्वलायनोक्तम् (आ०श्रौ० १।९।१) पठति । श्रौ०को० २ भा० प० २१३ । द्र० सूक्तवाक-।

अग्नीषोमीयपशु पश्वङ्गप्रधान हविषो हौत्रक्रम(हौ०)

अग्नीषोमीयस्य पशोर्हविष: प्रथमं 'मनोतायै हविषोऽवदीयमानस्यानुब्रू३हि' इति मनोतानुवचनप्रैषः। तत:त्वं ह्यग्ने प्रथमो मनोता' (ऋ० ६।१।१-१३) इति मनोतासूक्तानुवचनम् । तत:अग्नीषोमाय आहुतिम् (ऋ० १।९३।३) इति पश्वप्रधानहविष: (पश्वङ्गानाम्) पुरोनुवाक्या । तत:होता यक्षदग्नीषोमौ च्छागस्य

हविष:' (खिल० ५ ।७ ॥२) इति प्रैषः । तत: 'अग्नीषोमा हविष: प्रस्थितस्य' (ऋ० १।९३। ७) इति याज्या (प्रस्थितयाज्या)। इति अग्नीषोमीयपशुपश्वङ्गप्रधानहविषो हौत्रक्रम उच्यते । द्र० श्रौ०को०२ भा० पृ० २११।

अग्नीषोमीयपश्वनुयाजहौत्रक्रम (हौ०)

अग्नीषोमीयपशोरनुयाजानां प्रथमं प्रैष: ततो याज्या इति हौत्रक्रमो भवति पुरोनुवाक्या नास्ति । तत्र प्रथमस्यानुयाजस्य देवं बर्हिः सुदेवं देवै... वेतु यज' इति प्रैषः । तत:देवं बर्हिर्वसुवने वसुधेयस्य वेतु' इति याज्या। द्वितीयस्यानुयाज्यस्य 'देवीर्द्वारः संघाते..व्यन्तु यज' इति प्रैषः । । देवीर्द्वारो  वसुधेयस्य व्यन्तु' इति याज्या। ततस्तृतीयस्यानुयाजस्य 'देवी उषासानक्ता....वीता यज' इति प्रैषः । 'देवी उषासानक्ता वसुवने वसुधेयस्य वीताम्' इति याज्या। ततश्चतुर्थस्यानुयाजस्य 'देवी जोष्ट्री वसुधिती..वीतां यज' इति प्रैषः ।देवी जोष्ट्री वसुवने वसुधेयस्य वीताम्' इति याज्या। तत:पञ्चमानुयाजस्य 'देवी ऊर्जाहुती इषम्....वीतां यज' इति प्रैषः। 'देवी ऊर्जाहुती वसुवने वसुधेयस्य वीताम्' इति याज्या । तत: षष्ठस्यानुयाजस्यदेवा दैव्या होतारा..वीतां यज' इति प्रैष: । 'देवा दैव्या होतारा वसुवने वसुधेयस्य वीताम्' इति याज्या। तत: सप्तमस्यानुयाजस्य 'देवीस्तिस्तिस्रस्तिस्रो देवी....व्यन्तु यज' इति प्रैषः । 'देवीस्तिस्रस्तिस्रो देवीर्वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु श्रुति' याज्या। तत: अष्टमस्यानुयाजस्य 'देवो नराशंसस्त्रिशीर्षा...वेतु यज' इति प्रैषः । देवो नराशंसो वसुवने वसुधेयस्य वेतु' इति याज्या। तत: नवमस्यानुयाजस्य 'देवो वनस्पतिर्वसुवने वसुधेयस्य वेतु' इति याज्या । तत: दशमस्यानुयाजस्य 'देवं बर्हिर्वारितीनां निधे...वेतु यज' इति प्रैषः । 'देवं बर्हिर्वारितानां वसुवने वसुधेयस्य वेतु' इति याज्या । तत: एकादशस्यानुयाजस्य 'देवो अग्नि: स्विष्टकृत्...नमो वाके वीहि यज' इति प्रैष: । 'अग्नि: स्विष्टकृत..नमो वाके वीहि' इति याज्या। (खिल० ५।७।३)। अनुयाजेषु पुरोनुवाक्या न भवन्तीति विशेषोऽवधेय: । द्र० श्रौ० को० २ भा० पृ० २१२-१३, तत्रत्य

टिप्पणं च, अनुयाजप्रैषयाज्या-।

अग्नीषोमीयपश्वेकादशप्रयाज-(हौ०)

अग्नीषोमीये पशौ समिधः, तनूनपात्, नराशंसः, इल:, बर्हिः, दुरः, उषासानक्ता दैव्याहोतारा तिस्रो देव्य:, त्वष्टा, वनस्पति: स्वाहाकृतय: इति एकादश प्रयाजा: । तत्र यथायजमानगोत्रं द्वितीयप्रयाजस्य तनूनपान्नराशंसयोर्भेदेन प्रयोगात् प्रयाजानामेकादशत्वमिति विशेषोऽवगन्तव्य: । (तु०- ऐ० ब्रा० २।४)। द्र०

 

आप्री-।

-    श्रौतयज्ञप्रक्रिया-पदार्थानुक्रमकोषः

प. पीताम्बरदत्त शास्त्री

(राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानम्, नवदेहली, २००५)



 

 

 
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