Adhipati - Adhivaasana - Adhokshaja अधिपति - अधिवासन - अधोक्षज
अधिपति
टिप्पणी : अथर्ववेद के ३.२७, ५.२४ व १२.३.५५ सूक्त अधिपतियों से सम्बन्धित हैं।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अधिवासन
टिप्पणी : लक्ष्मीनारायण संहिता के वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि देव प्रतिमा के लिए हमारा शरीर ही अधिवास अर्थात् ऊपर ढंकने के वस्त्र का काम करता है। शब्दकल्पद्रुम में विभिन्न कार्यों के आरम्भ में यजुर्वेद व सामवेद के मन्त्रों द्वारा गन्ध-पुष्पादि २३ द्रव्यों द्वारा अधिवासन कर्म का वर्णन किया गया है। ऋग्वेद १.१६२.१६ की सार्वत्रिक ऋचा में यज्ञ में आलभन किये जाने वाले अश्व के हिरण्य अधिवास का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण ५.३.५.२२ में अभिषेक कर्म के संदर्भ में गर्भ रूप यजमान के लिए वास को उल्ब और अधिवास को क्षत्र की योनि कहा गया है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अधोक्षज
टिप्पणी : महाभारत उद्योग पर्व ७०.१० में अधोक्षजज की निरुक्ति इस प्रकार की गई है – अधो न क्षीयते जातु अर्थात् जिसके हिरण्यय कोश अथवा आनन्दमय कोश का स्वर्ण/जातु नीचे के कोशों में गिर कर क्षीण नहीं होता। त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद २.१५३ में अधोक्षज विष्णु का स्थान तुर्यातीत अवस्था में कहा गया है। ऋग्वेद ३.३३.९ में विश्वामित्र नदियों को रथ से पार करने के प्रयास में नदियों से अनुरोध करते हैं कि नदियों का नमन हो जाए, वह रथ के अधो-अक्ष होकर बहें। शांखायन ब्राह्मण २७.६ के अनुसार सत्रकाल में उत्तर हविर्धान के अधोअक्ष सर्पण करते हैं जिससे पापों का नाश होता है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.
अध्यात्म
टिप्पणी : अथर्ववेद ९.१४, ९.१५, १३.१, १३.२ व १३.३ सूक्तों के देवता अध्यात्म हैं। शतपथ ब्राह्मण में विशेष रूप से घटनाओं के आधिभौतिक, आध्यात्मिक व आधिदैविक रूपों का एक साथ वर्णन किया गया है। ऐसा अनुमान है कि एक घटना जो भौतिक स्तर पर घटित हो रही है, वही किसी रूप में आध्यात्मिक व आधिदैविक स्तर पर भी घटित होगी। पं. मोतीलाल शास्त्री ने शतपथ ब्राह्मण के अपने भाष्य में आधिभौतिक घटनाओं की विशेष व्याख्या की है।उदाहरण के लिए, इस भौतिक जगत में जो गौ हमें दिखाई देती है, वह तसम से आच्छादित दैवी गौ का ही रूप है। वेद मन्त्रों का ग्रहों की गति की व्याख्या करने में सफल होना भी इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत हो सकता है। श्री प्रह्लाद ब्रह्मचारी द्वारा देवबन्द से प्रकाशित श्रीधीश गीता में इन्द्रियों के अधिभूत, अध्यात्म व आधिदैवत का वर्णन उल्लेखनीय है।
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई.