पुराण विषय अनुक्रमणिका(अ-अनन्त) Purana Subject Index

Ananta

भगवद्गीतायां कथनमस्ति - प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥ अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।(१०.२८-२९)। कथनस्य अभिगमनाय सूक्ष्मदृष्ट्या सर्प-नागयोः मध्ये किमन्तरं अस्ति, अस्य व्याख्या अपेक्षिता अस्ति। यथा वासुकेः टिप्पण्यां कथितमस्ति, या अतृप्तवासना गम्भीरतलेषु विद्यमाना अस्ति, तस्याः मनोमय, जाग्रतस्तरं यावत् उन्नयनं वासुकिसर्पस्य कार्यमस्ति। वासुकिः अचेतनस्तरस्य रूपान्तरणं चेतनस्तरे, वीणायाः संगीतस्य स्तरे करोति। सः वीणायाः तन्त्रीरूपः अस्ति। यदा अक्षाणां रूपान्तरणं अश्वरूपे, धारारूपे भवति, तदैव तन्त्र्याः निर्माणं भवति। यः अनन्तः अथवा शेषः अस्ति, सः जाग्रतस्तरे अथवा अर्धजाग्रतस्तरे दक्षताप्राप्त्यर्थं कार्यरतः अस्ति। यथा सर्वविदितमस्ति, एकः पितृयाणः पन्थः अस्ति, अन्यः देवयानः। यदा मन्थरगतियुक्तस्य तन्त्रतः दक्षतन्त्रस्य चयनं क्रियन्ते, तदा अयं रूपान्तरणं न शतप्रतिशत दक्षतासहितः भवति। अस्य किंचित् अंशः अनुपयोगी ऊर्जायां गच्छति यस्याः उद्धारस्य न कोपि उपायः अस्ति। वैदिकवाङ्मये अस्य संज्ञा शेषः अस्ति। अयं शेषः रौद्रप्राणानां निर्माणं करोति। दर्शपूर्णमासादि यागेषु अस्य शेषस्य शमनाय स्विष्टकृत् अग्नये आहुतिविधानमस्ति। अन्येषु यज्ञेषु स्विष्टकृतस्याग्नेः अन्ये रूपाः भवन्ति। यः शेषः अस्ति, तस्य भार्या रेवती(रयि-वती) अस्ति। प्रश्नोपनिषदानुसारे एकः प्राणः अस्ति, एकः रयिः। प्राणः देवयानः पन्थः अस्ति, रयिः पितृयाणः। शेषस्य अभिगमनाय भविष्यपुराणे ३.४.१२.३८ कथनमस्ति यत् यः पिनाकसंज्ञकः धनुः अस्ति, तस्य दण्डभागस्य निर्माणं स्वर्गस्य सारतः अभवत् - विस्मितो भगवान्विष्णुस्सारं स्वर्गस्य वै तदा ।। गृहीत्वाशु धनुर्दिव्यं पिनाकं स चकार ह ।।.... गुणश्चापस्य वै शेषः शक्रो वाणस्तदाभवत् ।। पिनाकधनुषस्य ज्या अनन्तसंज्ञकेन नागेन निर्मिता अस्ति। अग्निपुराणे १४५.२९ कथनमस्ति यत् पिनाकसंज्ञकः यः धनुरस्ति, तस्य दण्डस्य निर्माणं ल वर्णेन भवति, ज्यायाः र वर्णेन -  र रक्ते स्याद्भुजङ्गेशो ल पिनाकी च मांसके । ल वर्णः पृथिवीमहाभूतस्य संकेतः अस्ति, र वर्णः अर्कस्य अथवा सूर्यस्य। अतएव, पृथिवीमहाभूते सूर्यस्य समावेशः पिनाकी धनुः अस्ति। महाभारत शान्तिपर्वे  २८९.१८ कथनमस्ति -  आनतेनाथ शूलेन पाणिनामिततेजसा। पिनाकमिति चोवाच शूलमुग्रायुधः प्रभुः।। अत्र कथनमस्ति यत् पिनाकधनोः यः दण्डः अस्ति, तस्य निर्माणं शिवस्य शूलस्य पाणिना आनमनेन अभवत्।

     पुराणेषु नागशब्दस्य यः विस्तारः अस्ति, तत् वैदिकवाङ्मये अन्यत्र न दृष्टिगोचरं अस्ति। अपितु, नागस्य स्थाने नाकः(न-अकः, पापरहितावस्था, स्वर्गस्य स्थितिः) शब्दस्य व्याख्या उपलब्धा अस्ति।

तन्त्रशास्त्रे सार्वत्रिकरूपेण कथनमस्ति यत् नाग, कृकल, कूर्म, देवदत्त एवं धनंजयः एते पञ्च वायवः अथवा प्राणाः सन्ति। तेषु यः नागप्राणः अस्ति, तस्य गुणः उद्गारः अस्ति। उद्गिरणं अर्थात् ऊर्जायाः, चेतनाशक्त्याः ऊर्ध्वप्रक्षेपणम्, किंचित् स्फुरणं। नागप्राणाः स्थिराः न सन्ति। तेषां प्रकृतिः ऊर्ध्वारोहण – अधोरोहणस्य अस्ति। यदा कुण्डलिनीशक्तिः स्थूलदेहस्य अतिक्रमणं करोति, तदा ब्रह्माण्डे अबाधगत्या विचरणे समर्था भवति। मैत्रायणीसंहितायां   2.2.9 कथनमस्ति - इन्द्रायार्कवते ऽश्वमेधवता एकादशकपालं निर्वपेन्निरुद्धं याजयेदन्तं वा एष गतो यो निरुद्धो, ऽन्तो ऽर्को, ऽन्तो ऽश्वमेधो, ऽन्तेनैवास्मा अन्ते कल्पयति

सुबालोपनिषदे ९.१४ कथनमस्ति - यो भास्वतीमेवास्तमेति नागमेवाप्येति यो नागमेवास्तमेति विज्ञानमेवाप्येति यो विज्ञानमेवास्तमेत्यानन्दमेवाप्येति य आनन्दमेवास्तमेति तुरीयमेवाप्येति यस्तुरीयमेवास्तमेति तदमृतमभयमशोकमनन्तं निर्बीजमेवाप्येति तदमृतमभयमशोकमनन्तनिर्बीजमेवाप्येतीति होवाच ॥

अत्र कथनमस्ति यत् यः नागप्राणः अस्ति, तस्य चरमावस्था विज्ञानमयः कोशः अस्ति, यत्र चेतना समूहरूपे एवं व्यूहरूपे अपि अस्ति। यदा चेतना समूहरूपे भवति, तदा आन्तरिकसंघर्षाणां अपि संभावना भवति। यदा व्यूहरूपे वसति, तदा संघर्षाणां संभावना नास्ति। यदा भगवद्गीतायां एवं विष्णुधर्मोत्तर १.५६.१५ (अनन्तः सर्वनागानां सूर्यस्तेजस्विनां तथा ।।) कथनमस्ति यत् नागानां अनन्तः अस्मि, तदा सुबालोपनिषदतः स्पष्टं भवति यत् नागतः अनन्तस्थित्याः प्रापणं एकपदीया प्रक्रिया नास्ति, अपितु आनन्दः एवं तुरीया मध्यमौ पदौ स्तः।

अनन्तबलरामस्य एकं वैशिष्ट्यं सीरध्वजः अस्ति। अस्मिन् संदर्भे चातुर्मासयागे शुनासीरयागः उल्लेखनीयमस्ति। शतपथब्राह्मणे २.६.३.२ कथनमस्ति - या वै देवानां श्रीरासीत्साकमेधैरीजानानां विजिग्यानानां तच्छुनमथ यः संवत्सरस्य प्रजितस्य रस आसीत्तत्सीरं । यदा आनन्दस्य अतिरेकः एवंप्रकारस्य अस्ति यत् तेन स्थूलदेहस्य अपि कर्षणं भवति, तत् सीरधारणं अस्ति। तैत्तिरीयब्राह्मणे ३.४.१३.१ कथनमस्ति - अन्ताय बहुवादिनम् । अनन्ताय मूकम् । अत्र मूका स्थितिः किमस्ति, अन्वेषणीयम्।

वैदिकवाङ्मये विस्तारतः कथनाः सन्ति यत् अन्तस्य पारं गमनं अनन्तः अस्ति। यत्र अन्तः अस्ति, मृत्युरेवान्तः अस्ति। यत्र अनन्तः अस्ति, तत् मृत्योः तरणमस्ति। तैत्तिरीयब्राह्मणे ३.११.७. कथनमस्ति - उरवो ह वै नामैते लोकाः । येऽवरेणादित्यम् । अथ हैते वरीयाँसो लोकाः । ये परेणादित्यम् । अन्तवन्तँ ह वा एष क्षय्यं लोकं जयति । योऽवरेणादित्यम् । अथ हैषोऽनन्तमपारमक्षय्यं लोकं जयति । यः परेणादित्यम् अनन्तँ ह वा अपारमक्षय्यं लोकं जयति । योऽग्निं नाचिकेतं चिनुते ।

ब्रह्मपुराणानुसारेण १.६७ पुरुषोत्तमक्षेत्रः अनन्तवासुदेवस्य प्रतिष्ठायाः स्थानमस्ति।

 

 

 

अनन्त

टिप्पणी :  भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी व्रत की कथा संक्षेप में इस प्रकार है – कौण्डिन्य मुनि ने शीला को पत्नी रूप में प्राप्त किया। शीला ने अन्य स्त्रियों को देखकर अनन्त चतुर्दशी का व्रत किया और 14 ग्रन्थियों वाली डोर अपने हाथ में बांधी। कौण्डिन्य मुनि ने उसे कोई टोटका समझकर तोडकर अग्नि में फेंक दिया जिससे उसकी धन – सम्पत्ति नष्ट हो गई। तब कौण्डिन्य ने कारण जानकर अनन्त की आराधना की। सबसे पहले उसे एक चूत या आम्र वृक्ष दिखाई दिया जिसके फलों को कोई पक्षी नहीं खा रहा था तथा उसके फल कीटयुक्त थे। कौण्डिन्य ने उससे पूछा कि क्या वह अनन्त को जानता है। उत्तर नहीं में मिला। फिर उसने वत्स सहित एक गौ देखी जो हरी भूमि पर इधर – उधर दौड रही थी लेकिन वह घास को न तो सूंघती थी, न खाती थी। उसने भी उत्तर दिया कि वह अनन्त को नहीं जानती। फिर उसने एक वृषभ देखा। वह भी अनन्त को नहीं जानता था। फिर उसने दो पुष्करिणियां देखी जो परस्पर मिली हुई थी। वह भी अनन्त को नहीं जानती थी। फिर उसने खर और कुंजर देखे जो अनन्त को नहीं जानते थे। अन्त में निराश हो जाने पर अनन्त ने उसे एक बूढे ब्राह्मण के रूप में दर्शन दिए। अनन्त ने बताया कि उसने जो आम्र का वृक्ष देखा है, वह पहले जन्म में एक वेदपाठी ब्राह्मण था जिसने अपने शिष्य को विद्या नहीं दी। जो गौ थी, वह एक ब्राह्मणी थी जिसने निष्फला भूमि दान की थी। वृषभ एक ब्राह्मण था जो लोभ से ग्रस्त था। वह स्वादु भोजन स्वयं करता था, पर्युषित भोजन दूसरों को देता था। पुष्करणियां दो ब्राह्मणियां थी जो धर्म व अधर्म का स्वरूप थी। खर क्रोध का रूप था। कुंजर मद का रूप था।

     सबसे पहले प्रश्न उठता है कि अनन्त व्रत की कथा का चुनाव शुक्ल चतुर्दशी तिथि को ही क्यों किया गया। इसका कारण यह हो सकता है कि शुक्ल चतुर्दशी से अगली तिथि पूर्णिमा है जिसमें आकाश में जाग्रत मन रूपी चन्द्रमा अपने पूर्ण स्वरूप में दिखाई देगा। अन्य तिथियों में मन का कुछ अंश अचेतन मन बनकर इस पृथिवी में समाया रहता है। पूर्णिमा तिथि को यह अपेक्षा की जाती है कि जिस प्रकार आकाश में पूर्ण चन्द्र दिखाई दे रहा है, वैसे ही हमारे मन का कोई भी अंश अचेतन न रह जाए। अचेतन मन के विषय में रजनीश द्वारा विपश्यना के संदर्भ में पहले ही बहुत व्याख्या की जा चुकी है कि हम जो कार्य सामान्य स्थिति में अपने अचेतन मन से कर रहे हैं, जैसे चलना – फिरना, भोजन करना आदि, उसे हम चेतन मन से करना सीखें। यदि मन का सम्बन्ध पूर्णिमा से है तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चतुर्दशी का सम्बन्ध प्राण से होगा। चतुर्दशी तिथि को शिव की तिथि कहा जाता है। जो प्राण रौद्र स्थिति में हैं, उन्हें शान्त, शिव बनाना है। उसका उपाय यह निकाला गया है कि प्राण अन्तवान् होने के बदले अनन्तवान् हों।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से अन्त और अनन्त में क्या अन्तर है, इसका स्पष्टीकरण मैत्रायणी संहिता २.२.९ से प्राप्त होता है । चित्तवृत्तियों का निरोध कर लेना, वृत्र का वध कर देना अन्त कहलाता है । यह एकान्तिक साधना है, तप है । इसके पश्चात् अनन्त बन कर अनन्त आनन्द प्राप्त करने की साधना आरम्भ होती है । भागवत पुराण के छठे स्कन्ध में वृत्र के वध का उल्लेख है । उससे  आगे सातवें व आठवें स्कन्धों में क्रमशः नाम व रूप के वर्णन आते हैं । सातवें स्कन्ध में प्रह्लाद की कथा है जो ईश्वर के नाम का उपासक है । आठवें स्कन्ध में विष्णु के मोहिनी अवतार का वर्णन आता है । इसकी तुलना द्वादशाह नामक सोमयाग से की जा सकती है जहां प्रथम छह दिन एकान्तिक साधना के होते हैं । छठे दिन वृत्र का वध होता है । सातवें से लेकर नवम अह तक के दिनों की संज्ञा छन्दोम होती है । यह कहा जा सकता है कि छन्दोम दिवसों में रस की, संगीत की प्राप्ति होती है । फिर १०वां दिन अविवाक्यम् कहलाता है - संभवतः इतना आनन्द कि उसको कहा नहीं जा सकता ।  भविष्य पुराण में बलराम के अवतार के रूप में आह्लाद( आल्हा) का चरित्र चित्रण उपरोक्त तथ्यों की पुष्टि करता है । स्वयं बलराम अनन्त नहीं हैं, जब वह आह्लाद से युक्त हो जाते हैं, वह अनन्त की स्थिति है । रामायण आदि ग्रन्थों में प्रायः ७ अध्याय ही मिलते हैं जिनमें छठे काण्ड में वृत्र का वध होता है, जैसे रामायण में रावण का वध । सातवां काण्ड उत्तर काण्ड कहलाता है । डा. फतहसिंह का कथन है कि इस सातवें काण्ड में छठे अध्याय से आगे के सभी काण्डों का समावेश कर दिया गया है, अतः यह उत्तर काण्ड कहलाता है । ऐसा नहीं है कि चूंकि यह काण्ड बाद में जोडा गया, इसलिए उत्तर काण्ड कहलाता है, जैसा कि कुछ विचारकों का मत है ।

      अनन्त चतुर्दशी व्रत कथा के संदर्भ में भविष्य पुराण में वर्णित कथा में कौण्डिन्य मुनि के नाम से स्पष्ट होता है कि वह अपने पापों का नाश करने के लिए तत्पर है (कुण्ड धातु को उणादिकोश २.४९ में दाह के अर्थों में लिया गया है ) । मुनि का अर्थ मौन होता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.४.१३.१ के अनुसार अनन्त की खोज मूक बनकर आरम्भ होती है । अनन्त की खोज में वह पहले अपनी साधना में आम्र वृक्ष का दर्शन करता है और आम्र/चूत बने हुए स्वयं के व्यक्तित्व से पूछता है कि क्या यह अनन्त है ? उसको नकारात्मक उत्तर मिलता है । यह आम्र वृक्ष कैसे उत्पन्न हुआ ? कथा में कहा गया है कि यह चूत वृक्ष पहले जन्म में एक वेद विद्या युक्त ब्राह्मण था जिसने अपनी विद्या का शिष्यों को दान नहीं किया । इस कारण इस जन्म में यह चूत वृक्ष बना । डा. फतहसिंह का विचार है कि हमारा विज्ञानमय कोश गुरु है, मनोमय कोश शिष्य है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि यदि हमने कोई विद्या ग्रहण की है लेकिन उसे जीवन में नहीं उतार पाए, वैसी स्थिति इस कथा के माध्यम से कही जा रही है । असीम चेतना से व्युत्थान की, हिरण्यय कोश से नीचे के कोशों में अवतरण की स्थिति आम्र वृक्ष का रूप हो सकती है । अनन्त की साधना के दूसरे चरण में कौण्डिन्य मुनि द्वारा हरी घास में दौडती हुई गौ व वत्स के दर्शन का उल्लेख आता है । कथा में कहा गया है कि यह गौ पूर्व जन्म में निष्फला भूमि थी  । जैसा कि अन्यत्र भी टिप्पणियों में कहा जा चुका है, विचारकों का अनुमान यह है कि गौ वह होती है जो ऊर्जा को ग्रहण करके उसका उत्सर्जन करने में समर्थ हो । इस संसार के जड चेतन सभी पदार्थों में जाने - अनजाने यह प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से चल ही रही है । अतः यह पृथिवी भी गौ कहलाती है । लेकिन साधना के दृष्टिकोण से भविष्य पुराण की अनन्त चतुर्दशी की यह कथा छद्म रूप में कह रही है कि साधक के लिए पहली स्थिति निष्फल हो जाना है, कोई उत्सर्जन न हो । रजनीश द्वारा प्रायः बुद्ध का तथा अन्यों का उदाहरण दिया जाता है कि कोई गाली देता रहे, लेकिन मन में उसकी प्रतिक्रिया नहीं होगी । यह निष्फला भूमि हो सकती है । अनन्त का ज्ञान इस स्थिति में भी नहीं होता । इससे अगली फला भूमि कौन सी होगी, यह अन्वेषणीय है ।   अनन्त की साधना के तृतीय चरण में कौण्डिन्य मुनि एक वृष के दर्शन करता है । वह वृष भी अनन्त को नहीं जानता । कथा में वृष के बारे में कहा गया है कि वह लाभ की प्राप्ति पर उत्पन्न होने वाला हर्ष है। अन्यत्र कहा गया है कि वह लोभ का रूप है। अनन्त साधना के चतुर्थ चरण में दो पुष्करिणियों के दर्शन होते हैं जिनका जल एक दूसरे में स्थान्तरित होता रहता है । वह भी अनन्त का पता नहीं जानती । इन पुष्करिणियों को कथा में धर्म अधर्म व्यवस्थान कहा गया है। व्याख्या अपेक्षित है । पुष्करिणियों में जो जल रहता है, वह पुण्य – पाप का प्रतीक है। पञ्चम व षष्ठ चरण में गर्दभ/ खर व कुञ्जर के दर्शनों का उल्लेख है जिन्हें कथा में क्रोध व धर्मदूषक कहा गया है । खर व कुञ्जर को रामायण की खर - दूषण की कथा से अथवा अन्य संदर्भों के आधार पर समझने का प्रयत्न किया जा सकता है । किसी घटना के घटित होने पर क्रोध उत्पन्न होने का कारण यह होता है कि हमें घटना की परिस्थितियों का, घटना के घटित होने के कारणों का पता नहीं होता । तीर्थंकर महावीर को पता चल जाता था और वह अपने शिष्यों को बताते थे । इसका कारण हमारा अज्ञा है जिसे कथा में खर या गर्दभ कहकर इंगित किया गया है । एक बार क्रोध आने पर फिर हम अप्रिय घटना का दोष अन्यों पर मंढने लगते हैं । इसे अनन्त की कथा में धर्म - दूषक कहा गया प्रतीत होता है (तुलनीय - खर - दूषण की कथा में दूषण ) । कुञ्जर को मदयुक्त कहा गया है। ऐसा अनुमान है कि कुञ्जर पुरुषार्थ का प्रतीक है।

कथा में प्रकट होने वाले गोवृष के संदर्भ में, वैदिक साहित्य में सूर्य को वृष कहा गया है । वह पहले अपनी किरणों से जल का कर्षण करता है तथा फिर उसकी वर्षा करता है । ऋग्वेद ५.४७.२ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.११.७.४ में आदित्य के दो रूपों की कल्पना की गई है । एक रूप जो आदित्य से अवर है, नीचे है, वह अन्तवान है, क्षय होने वाला है । दूसरा रूप जो आदित्य से ऊपर है, वह अनन्तवान है । गोपथ ब्राह्मण में जिस प्रायणीय - उदयनीय अतिरात्र से अनन्त प्राप्ति का उल्लेख है, उसमें उदयनीय से तात्पर्य आदित्य के उदय से, उदान प्राण के उदय से है । उदान प्राण के अन्तर्गत चन्द्रमा, नक्षत्र आदि का उदय आता है जिनका स्थान योग में आदित्य से ऊपर माना जाता है । अतः यह कहा जा सकता है कि कौण्डिन्य मुनि ने जिस वृष के दर्शन किए हैं, वह अवर आदित्य है ।

      गोपथ ब्राह्मण १.५. में वर्णन आता है कि प्रजापति ने पूर्णाहुति, अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास, इष्टि पशुबन्ध, अग्निष्टोम, राजसूय, वाजपेय, अश्वमेध, सर्वमेध, अहीन यज्ञों द्वारा यजन किया लेकिन उसने अन्त ही देखा । फिर उसने प्रायणीय अतिरात्र व उदयनीय अतिरात्र अन्तों वाले सत्र से यजन किया । उसने अपनी वाक् का होता ऋत्विज में, प्राण का अध्वर्यु में, चक्षु का उद्गाता में, मन का ब्रह्मा में, अङ्गों का अन्य होताओं में एकीकरण कर दिया । तब उसने अनन्त का दर्शन किया ( तुलनीय - पुराणों में अनन्त व्रतों के वर्णन में शरीर के अङ्गों में नक्षत्रों का न्यास ) । यह उल्लेखनीय है कि प्रायणीय अतिरात्र वाले दिन की देवता अदिति, सर्वोत्कृष्ट वाक्, देवों की माता है । इसके विपरीत दिति, खण्डित इकाई है जो असुरों की माता है । प्रायणीय से अर्थ प्रयाण, आरम्भ से होता है । सोमयाग के अन्त में उदयनीय अतिरात्र में यजमान एक सूर्य के रूप में उदित होता है । प्रायणीय - उदयनीय अतिरात्रों की व्याख्या श्रीमती राधा की विचारधारा के अनुसार भी करने का प्रयत्न किया जा सकता है । प्रायणीय अर्थात् विश्व में जो कुछ घटित हो रहा है, उसके प्रति मन में स्वीकार भाव लाना, यह सोचना कि जो कुछ हो रहा है, ठीक ही हो रहा होगा, आस्तिक बुद्धि । जब यह स्वीकार भाव प्रमाणों से पुष्ट हो जाए, जीवन में उतर जाए, वह उदयनीय हो सकता है ।

     अनन्तता क्या है, इस संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १४.५.५.१९ तथा १३.७.१.१ का यह कथन महत्त्वपूर्ण है कि कण - कण में उस परमात्मा के रूप के दर्शन करना ही मधु विद्या है । यही अनन्तता को प्राप्त होना है । शतपथ ब्राह्मण १४.६.२.११ में रूप के स्थान पर नाम द्वारा अनन्त की प्राप्ति का उल्लेख है ।

     अनन्त को शेषनाग का रूप देने के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ४.३.१.७ में संवत्सर को अनन्त कहा गया है क्योंकि एक संवत्सर व्यतीत होने के पश्चात् फिर उसकी पुनरावृत्ति होने लगती है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.४३ में ऐसी स्थिति, जिसमें आदि और अन्त का पता न लगे, की कल्पना एक अहि/सर्प के रूप में की गई है जिसके मुख में उसकी पुच्छ है । यह उल्लेखनीय है कि जब वैदिक साहित्य में संवत्सर का उल्लेख आता है तो उससे तात्पर्य यह लिया जाना चाहिए कि जैसे बाह्य जगत में पृथिवी द्वारा सूर्य की परिक्रमा और चन्द्रमा द्वारा पृथिवी की परिक्रमा से संवत्सर का जन्म होता है, उसी प्रकार सूर्य प्राण, पृथिवी वाक् व मन चन्द्रमा द्वारा अध्यात्म में संवत्सर को जन्म देना है ।

     अनन्त के आयुध सीर/हल के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण २.६.३.२ तथा जैमिनीय ब्राह्मण २.२३४ आदि में चातुर्मास यज्ञ के चतुर्थ मास में शुनासीर यज्ञ का वर्णन आता है । कहा गया है कि इसमें जो शुनम् भाग है, उसके द्वारा देवगण श्री का सम्पादन करते हैं । यह वृत्र के वध से प्राप्त होती है । तथा जो सीर भाग है, वह संवत्सर पर विजय प्राप्त करने पर उसके रस के रूप में प्राप्त होता है । यह रस वही मधु है जिसका दर्शन अनन्तता की प्राप्ति पर कण - कण में होता है ( द्र. स्कन्द पुराण में अनन्त माधव का उल्लेख ) । ऐसा प्रतीत होता है कि सीर को ही पुराणों में कौण्डिन्य मुनि की पत्नी शीला के रूप में चित्रित किया गया है ।

     वराह पुराण में अनन्त के लक्षणों के रूप में श्रोत्रों में अनन्त आकाश तथा चक्षुओं में अनन्त तेज आदि होने के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १४.६.१०.१२ में भी श्रोत्रों को अनन्त बनाने के लिए उनमें दिशाओं की प्रतिष्ठा का उल्लेख है और दिशाओं को अनन्त कहा गया है । लेकिन जैमिनीय ब्राह्मण २.२१४ में प्राची और ऊर्ध्वा दिशाओं द्वारा सर्वप्रथम अनन्त स्वर्ग लोक की जय का उल्लेख आता है । स्कन्द पुराण में ब्रह्मा द्वारा हंस बनकर ऊर्ध्व दिशा में तथा विष्णु द्वारा यज्ञवराह बनकर अधोदिशा में शिवलिङ्ग का अन्वेषण करने और अनन्तता को प्राप्त होने का वर्णन आता है जो अपने आप में एक विशिष्ट वर्णन है । हंस सूर्य का प्रतीक हो सकता है ( हंस: शुचिषद् वसु अन्तरिक्षसद् इत्यादि ) । वराह पुराण में चक्षुओं की अनन्तता के संदर्भ में जैमिनीय ब्राह्मण १.१६८ में सोम से प्रार्थना की गई है कि वह मेरे अन्दर ऐसे नृचक्ष चक्षु स्थापित करे जिसके द्वारा गायत्री श्येन बनकर स्वर्ग से अमृत लाई, जिन्हें अदिति के अनन्त चक्षु कहा जाता है । शतपथ ब्राह्मण १०.२.६.६ में अनन्तता के लिए नृचक्ष सविता का आह्वान किया गया है । शतपथ ब्राह्मण १४.६.१.११ में यज्ञ में दक्षिण दिशा में ब्रह्मा द्वारा मन के द्वारा अनन्तता प्राप्त करने का उल्लेख है । अधो दिशा, जिसे वैदिक साहित्य में ध्रुवा दिशा कहा जाता है, में अनन्तता प्राप्ति का क्या उपाय है, इसका वर्णन पौराणिक साहित्य में अधिक स्पष्ट प्रतीत होता है ।

     प्रायः भक्त तपस्या के अन्त में अपने इष्टदेव के दर्शन करने पर उनकी स्तुति करता है, जो अनुष्टुप् छन्द में होती है । जैमिनीय ब्राह्मण में 'अन्त' वाली स्थिति के अन्त में स्तुति को स्तोम तथा अनन्त वाली स्थिति में स्तुति को स्तोत्र नाम दिया गया है ।

     अनन्त के संदर्भ में अन्य महत्त्वपूर्ण उल्लेखों में जैमिनीय ब्राह्मण १.२५७ का कथन है कि परिमण्डल द्वारा अनन्तता प्राप्त होती है, जैसे सूर्य, चन्द्रमा, द्यौ, अन्तरिक्ष व पृथिवी के परितः । इसी प्रकार पुरुष के परितः भी परिमण्डल अपेक्षित है । जैमिनीय ब्राह्मण १.३१४ के उल्लेख के अनुसार प्रजापति काम होकर अनन्त हुआ और अनन्त होकर मृत्यु? हुआ । छान्दोग्य उपनिषद ४.६.३ में चार कला रूपी पादों वाले अनन्त ब्रह्म का वर्णन किया गया है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.११.१.१ में नचिकेता अग्नि चयन के संदर्भ में प्रथम इष्टका को अनन्त कहा गया है ।

     शतपथ ब्राह्मण ९.३.३.१५ में वसुधारा होम के संदर्भ में कल्पना की गई है कि द्युलोक एक गौ है जिसके विद्युत स्तन हैं, वहां से गिरने वाली धारा ही धारा है । यह धारा पृथिवी रूपी गौ को प्राप्त होती है । पृथिवी रूपी गौ से यजमान को । फिर यजमान स्वयं गौ बन कर यज्ञ कर्म में आज्य धारा के रूप में उसका अग्नि में होम करता है जिससे यह धारा देवों को प्राप्त होती है । देवों से पुनः गौ को । इस प्रकार यह चक्र चलता रहता है । यह अनन्त का एक रूप है । यह वसुधारा संवत्सर अग्नि से एकीकृत होती है । संवत्सर का रूप अनन्त कहा गया है ।

प्रथम लेखन – 1993ई., संशोधन – 23-5-2010(वैशाख शुक्ल दशमी, विक्रम संवत् 2067), 26-9-2015(भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी, विक्रम संवत् 2072)

Spiritually, what is the difference between finite and infinite? To become introvert or to kill the demon Vritra is called end or finite. This is a result of individual penances. After that start the efforts to achieve infinite bliss . In Bhaagavata puraana, killing of demon Vritra has been mentioned in sixth chapter. Then the next chapters mention the significance of  name and forms etc. in the form of story of Prahlaada who recites god’s name and then roopa through Mohini, the manifestation of lord Vishnu. This description resembles the description of 12 day Somayaga where special days called chhandoma days start after the sixth day.  Dr. Fatah Singh says that texts like Raamaayana etc. generally contain 7 chapters, out of which 6 are devoted to killing of some demon and then the 7th chapter is called Uttarakaanda, meaning later one. Some modern thinkers interpret it that this chapter was added at a later period. But Dr. Fatah Singh says that the happenings of the later days have been condensed in this one later chapter.

There is fast on 14th day of fortnight named Ananta Chaturdashi Vrata. The well known story being heard on this day is that of muni Kaundinya who lost all his wealth due to disrespect to Ananta. Then after observing this fast, he regained his wealth. In this story, he wanders in the world in search of Ananta. First he asks about Ananta from a mango tree, then from a cow grazing with her calf, then from an ox, then from two conjoining ponds, then from an ass and then from an elephant. From all of these, he gets a negative answer. The name kundin in Sanskrit itself expresses as the one who is proceeding towards cleaning his sins( root kunda in Unaadikosha has been taken as heat, burning). Muni means who has become silent, or in other words, introvert. The story should be interpreted as follows : at first stage, he sees himself as a aamra/mango tree . It becomes difficult to interpret mango in spirituality. It can be done like this. Amaa or new moon night is the state of infinite consciousness. To come down from this state can be called Aamra. It has been stated in the story that this Aamra tree was a Brahmin studying Vedas but who did not impart his knowledge to his disciples. Therefore he became an Aamra tree in next birth. In the next stage, muni Kaundinya sees a cow with her calf. It has been stated in the story that in her previous birth, this cow was a Braahmin woman who donated infertile land and due to this sin, she became a cow in her next birth. In one upnishada, a cow and her calf have been stated to be symbolizing Shruti and Smriti respectively. In third stage, muni Kaundinya meets a Vrisha/ox. He also did not know anything about infinite. This ox was a man in his previous birth who himself ate tasty food, but gave others rotten food. Next he sees two ponds which exchange water of each other. These also do not know anything about infinite. These are said to be two Brahmin women in previous birth who exchanged donations between themselves only. All these inside stories point out that according to puraanic view, until the give and take between higher and lower selves is completed, infinite can not be made known. Let us try to correlate these stories with facts of vedic literature. Regarding meeting with an ox, in vedic literature, sun has also been called an ox. The sun first draws the water with his rays and then showers this in the form of rain. Therefore, the sun is called the Vrisha, one who causes rain. Two forms of sun have been contemplated – one which is lower than sun and one which is above the sun. The lower one is ending, finite, decaying. The upper one is of infinite nature. Therefore, it can be said that the Vrisha which muni Kaundinya saw is of  lower level only.

In one brahmanical text, it has been stated that Prajaapati performed all the yagas but he saw finite only, not infinite. Then he performed a yaga with a special starting day and one special ending day. The starting day is called Praayaneeya, marching day. The ending day is called Udayaneeya, the rising day. He dissolved his vaak/inner voice with Hotri priest, Praana with Adhvaryu priest, eye with Udgaataa priest, mind with Brahmaa priest and other body parts with other priests. Then only he could visualize infinite. The goddess of starting day is  Aditi, undivided, the mother of gods, is taken as the highest evolution of cow( the opposite of it is Diti, word meaning divided, who is the mother of demons etc).

In puraanic literature, Ananta is synonym with Sheshanaaga, a serpent on which lord Vishnu sleeps. In one brahmanical text, the samvatsara/year has been called infinite because when one year ends, the next is the repetition of the previous one. So it is infinite. The other brahmanical text contemplates a serpent whose tail is in its mouth and therefore it is free from start or end. Legendary figure Balaraama, brother of Krishna  and Lakshmana, brother of Rama are said to be manifestations of Ananta. The weapon of Ananta is Seera or the plough.  The significance of plough can be explained according to brahmanical literature. At the end of Chaaturmaasya yaga or the yaga of 4 months, there is a last performance of yaga which is called Shunaaseera. This has been explained in a way that the first part of the word Shunam signifies silence and by this, gods gather their wealth by conquering  demons. On the other hand the second part of the word, seera, signifies the juice or extract of samvatsara which was conquered. There is similarity between the word seera and Sheelaa who happens to be the wife of Kaundinya in the above story of puranas. It is worth investigating whether Sheela, which has been stated to be made of 13 or 14 qualities of a man, can perform the same act as a seera, the plough, the weapon of Ananta.

Varaaha puraana mentions infinite sky in ears and infinite lusture in eyes as signs of Ananta/infinite. This is in accordance with statements of  Brahmanical literature where directions are established inside the ears to make these infinite and moreover, directions themselves have been called infinite. But other brahmanical texts mention east and vertical directions by which infinite heaven could be first conquered. In Skanda puraana, Brahmaa becomes a swan to explore the vertical direction and find out the end of Shivalinga. In the same way, Vishnu becomes a yaga boar to explore the downward direction for the end of Shivalinga. But both could not succeed. (In vedic literature, Hansa/swan is considered to be the sun – Hansah Shuchisad etc. ). In one brahmanical text , it has been prayed that let some establish such eye within me by which Gaayatri brought nectar from heaven, those eyes which are called the infinite eyes of goddess Aditi. One brahmanical text states the attainment of infinite by mind in southward direction by the Brahmaa priest in yaga. What is the method to attain infiniteness in the lower or downward direction, which is called the direction of stability(Dhruvaa ), is more clearly explained in puraanic literature. It is stated that the earth rests on the head of Sheshanaaga, the infinite one.

One brahmanical text states that the outer ring or circumference of  sun, moon, heaven, sky and earth lead to infinity. The same is desirable around the man also. At one place it has been stated that Prajaapati first became Kaama/desire and then became infinite and then he became death from infinite(?). One upanishada mentions infinite Brahman having 4 legs in the form of 4 phases. One brahmanical texts describes the establishment of Nachiketa fire in which the first brick has been called infinite.

 In yagas like Agnihotra, it is thought that yajamaana himself is the calf who tries to milk the Aditi cow. One sacred brahmanic text contemplates sky as a cow whose nipples are electricity of the sky and the rain from above is her milk. This milk is obtained by the cow in the form of earth. Then this cow imparts this milk to yajamaana. Then yajamaana himself becomes a cow and offers this stream of milk in fire in the form of butter stream. Thus this stream reaches to gods. From gods, it again reaches to cow. This completes a cycles which continues running on. This is one form of Ananta. This stream becomes integrated with fire of the samvatsara/ year.

First published : 1994 AD; modified : 23-5-2010 AD(Vaishaakha shukla dashami, Vikrami samvat 2067)

 

 

संदर्भ

विश्ववेदसो रयिभिः समोकसः सम्मिश्लासस्तविषीभिर्विरप्शिनः।

अस्तार इषुं दधिरे गभस्त्योरनन्तशुष्मा वृषखादयो नरः॥ १.०६४.१०

 

समानो अध्वा स्वस्रोरनन्तस्तमन्यान्या चरतो देवशिष्टे।

न मेथेते न तस्थतुः सुमेके नक्तोषासा समनसा विरूपे॥ १.११३.०३

तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे।

अनन्तमन्यद्रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति॥ १.११५.०५

त्वमायसं प्रति वर्तयो गोर्दिवो अश्मानमुपनीतमृभ्वा।

कुत्साय यत्र पुरुहूत वन्वञ्छुष्णमनन्तैः परियासि वधैः॥ १.१२१.०९

 

अविन्दद्दिवो निहितं गुहा निधिं वेर्न गर्भं परिवीतमश्मन्यनन्ते अन्तरश्मनि।

व्रजं वज्री गवामिव सिषासन्नङ्गिरस्तमः।

अपावृणोदिष इन्द्रः परीवृता द्वार इषः परीवृताः॥ १.१३०.०३

त्रिरस्य ता परमा सन्ति सत्या स्पार्हा देवस्य जनिमान्यग्नेः।

अनन्ते अन्तः परिवीत आगाच्छुचिः शुक्रो अर्यो रोरुचानः॥ ४.००१.०७

 

अजिरासस्तदप ईयमाना आतस्थिवांसो अमृतस्य नाभिम्।

अनन्तास उरवो विश्वतः सीं परि द्यावापृथिवी यन्ति पन्थाः॥ ५.०४७.०२

 

यस्या अनन्तो अह्रुतस्त्वेषश्चरिष्णुरर्णवः।

अमश्चरति रोरुवत्॥ ६.०६१.०८

प्र या जिगाति खर्गलेव नक्तमप द्रुहा तन्वं गूहमाना।

वव्राँ अनन्ताँ अव सा पदीष्ट ग्रावाणो घ्नन्तु रक्षस उपब्दैः॥ ७.१०४.१७

 

दिवि स्वनो यतते भूम्योपर्यनन्तं शुष्ममुदियर्ति भानुना।

अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टयः सिन्धुर्यदेति वृषभो न रोरुवत्॥ १०.०७५.०३

यज्ञेशाच्युत गोविन्द माधवानन्त केशव ।
कृष्ण विष्णो हृषीकेश वासुदेव नमो अस्तु ते ।
कृष्णाय गोपिनाथाय चक्रिणे सुरवैरिणे ।
अमृतेशाय गोपाय गोविन्दाय नमो नमः ।
एतान्य् अनन्तनामानि मण्डलान्ते सदा पठेत् ।-
खिल ७.३.१

प्र या जिगाति खर्गलेव नक्तमप द्रुहुस्तन्वं१ गूहमाना ।

वव्रमनन्तमव सा पदीष्ट ग्रावाणो घ्नन्तु रक्षस उपब्दैः ॥शौअ ८.४.१७

 

अनन्तं विततं पुरुत्रानन्तमन्तवच्चा समन्ते ।

ते नाकपालश्चरति विचिन्वन् विद्वान् भूतमुत भव्यमस्य ॥शौअ १०.८.१२

तन् मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे ।

अनन्तमन्यद्रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥२०.१२३.

 

 

इन्द्रायार्कवते ऽश्वमेधवता एकादशकपालं निर्वपेन्निरुद्धं याजयेदन्तं वा एष गतो यो निरुद्धो, ऽन्तो ऽर्को, ऽन्तो ऽश्वमेधो, ऽन्तेनैवास्मा अन्ते कल्पयति,  - मै.सं. 2.2.9

 

परिमण्डलो भूत्वानन्तो भूत्वा शये। तदनुकृतीदम् अप्य् अन्या देवताः परिमण्डलाः परिमण्डल आदित्यः परिमण्डलश् चन्द्रमाः। परिमण्डला द्यौः परिमण्डलम् अन्तरिक्षं परिमण्डलेयं पृथिवी। अपि यद् इदं पुरुषे दिव्यं तत्परिमण्डलम्। एतस्यैव न्यङ्गम् अनुन्यञ्जानः परिमण्डलां महतीम् अनन्तां श्रियं जयति य एवं वेद॥ - जैब्रा १.२५७

पृथिवी कलान्तरिक्षं कला द्यौः कला समुद्रः कलैष वै सोम्य चतुष्कलः पादो ब्रह्मणोऽनन्तवान्नाम ॥ छा.उ. ४.६.

लोकोऽसि स्वर्गोऽसि । अनन्तोऽस्यपारोऽसि । अक्षितोऽस्यक्षय्योऽसि । तपसः प्रतिष्ठा । त्वयीदमन्तः । - तैब्रा. ३.११.१.१

उरवो ह वै नामैते लोकाः । येऽवरेणादित्यम् । अथ हैते वरीयाँसो लोकाः । ये परेणादित्यम् । अन्तवन्तँ ह वा एष क्षय्यं लोकं जयति । योऽवरेणादित्यम् । अथ हैषोऽनन्तमपारमक्षय्यं लोकं जयति । यः परेणादित्यम् अनन्तँ ह वा अपारमक्षय्यं लोकं जयति । योऽग्निं नाचिकेतं चिनुते । - तैब्रा. ३.११.७.

अन्ताय बहुवादिनम् । अनन्ताय मूकम् । - तैब्रा. ३.४.१३.१

स सत्त्रेणोभयतो ऽतिरात्रेणान्ततो ऽयजत। वाचं ह वै होत्रे प्रायच्छत्। प्राणम् अध्वर्यवे चक्षुर् उद्गात्रे मनो ब्रह्मणे ऽङ्गानि होत्रकेभ्य आत्मानं सदस्येभ्यः। एवम् आनन्त्यम् आत्मानं दत्त्वानन्त्यम् आश्नुत। - गोप.ब्रा. १.५.८

या वै देवानां श्रीरासीत्साकमेधैरीजानानां विजिग्यानानां तच्छुनमथ यः संवत्सरस्य प्रजितस्य रस आसीत्तत्सीरं – माश २.६.३.२

उभयतोमुखाभ्यां पात्राभ्यां गृह्णाति । कुतस्तयोरन्ता ये उभयतोमुखे तस्मादयमन्तः संवत्सरः परिप्लवते तं गृहीत्वा न सादयति तस्मादयमसन्नः संवत्सरः - ४.३.१.७

तस्यै यजमान एवात्मा । बाहुरूधः स्रुक्स्तनो धारैव धारा यजमानादधि देवान्देवेभ्योऽधि गां गोरधि यजमानं तदेतदनन्तमक्षय्यं देवानामन्नं परिप्लवते स यो हैतदेवं वेदैवं हैवास्यैतदनन्तमक्षय्यमन्नं भवत्यथातः सम्पदेव - ९.३.३.१७

तदेतदृचाभ्युक्तं विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः सवितारं नृचक्षसमिति तदेतत्सर्वमायुर्दीर्घमनन्तं हि तद्यदिदमाहुर्दीर्घं त आयुरस्तु – माश १०.२.६.६

ब्रह्म वै स्वयम्भु तपोऽतप्यत तदैक्षत न वै तपस्यानन्त्यमस्ति हन्ताहम्भूतेष्वात्मानं जुहवानि भूतानि चात्त्मनीति तत्सर्वेषु भूतेष्वात्मानं हुत्वा भूतानि चात्मनि सर्वेषां भूतानां श्रैष्ठ्यं स्वाराज्यमाधिपत्यम्पर्यैत्तथैवैतद्यजमानः सर्वमेधे सर्वान्मेधान्हुत्वा सर्वाणि भूतानि श्रैष्ठ्यं स्वाराज्यमाधिपत्यं पर्येति माश १३.७.१.१

इदं वै तन्मधु। दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत्। रूपंरूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय। इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दशेत्ययं वै हरयोऽयं वै दश च सहस्राणि बहूनि चानन्तानि च तदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमबाह्यमयमात्मा – माश १४.५.५.१९

कतिभिरयमद्य ब्रह्मा यज्ञं दक्षिणतो देवताभिर्गोपायिष्यतीत्येकयेति कतमा सैकेति मन एवेत्यनन्तं वै मनोऽनन्ता विश्वे देवा अनन्तमेव स तेन लोकं जयति - १४.६.१.११

याज्ञवल्क्येति होवाच। यत्रायं पुरुषो म्रियते किमेनं न जहातीति नामेत्यनन्तं वै नामानन्ता विश्वे देवा अनन्तमेव स तेन लोकं जयति - १४.६.२.११

श्रोत्रमेवायतनमाकाशः प्रतिष्ठानन्त इत्येनदुपासीत काऽनन्तता याज्ञवल्क्य दिश एव सम्राडिति होवाच तस्माद्वै सम्राड्यां कां च दिशं गच्छति नैवास्या अन्तं गच्छत्यनन्ता हि दिशः श्रोत्रं हि दिशः – माश १४.६.१०.१२

स वा एषोऽपूर्वोऽनपरो यज्ञक्रतुर्यथा रथचक्रमनन्तमेवं यदग्निष्टोमस्तस्य यथैव प्रायणं तथोदयनम्। तदेषाऽभि यज्ञगाथा गीयते यदस्य पूर्वमपरं तदस्य यद्वस्यापरं तद्वस्य पूर्वम्। अहेरिव सर्पणं शाकलस्य न विजानन्ति यतरत्परस्तादिति। यथा ह्येवास्य प्रायणमेवमुदयनमसदिति। ॥ऐ.ब्रा. ३.४३

येन ह्य् आजिम् अजयन् नृचक्षा येन श्येनं शकुनं सुपर्णम्।
यद् आहुश् चक्षुर् अदिताव् अनन्तं सोमो नृचक्षा मयि तद् दधातु॥
इति। ततो वै ते ऽनन्धा अभवन् प्रापश्यन्। अनन्धो हैव भवति प्रपश्यति य एवं वेद॥ -
जैब्रा. १.१६८

द्यौर् भूत्वा सर्वम् अनुव्यभवत्। विराड् भूत्वादित्यो ऽभवत्। कामो भूत्वानन्तो ऽभवत्। अनन्तो भूत्वा मृत्युरभवत्। संवत्सरो भूत्वा नादस्यत्। न ह दस्यति य एवं वेद। - जैब्रा. १.३१४

सेयं प्राची दिक् प्रथमायजत। सैतेनायजत। सैताम् एवर्द्धिम् आर्ध्नोद्, एतां प्रतिष्ठाम् एतम् अनन्तं स्वर्गं लोकम् अजयत्।...अथेयम् ऊर्ध्वा दिग् ऐक्षत येनैवेमाः पूर्वा इष्ट्वारात्सुस् तेनो एवाहं यजा इति। सैतेनैवायजत। सैताम् एवर्द्धिम् आर्ध्नोद् एतां प्रतिष्ठाम् एतम् अनन्तं स्वर्गं लोकम् अजयत्। स एष एतस्यानन्त स्वर्गो लोको जितः। - जैब्रा. २.२१४

 

यद् वा इन्द्रस्य वृत्रं जघ्नुष इन्द्रियं वीर्यम् आसीत् तच् छुनम्। यत् संवत्सरस्य प्रजितस्य पयस् तत् सीरम्। - जैब्रा. २.२३४

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